प्रश्न - *यज्ञकर्त्ता ऋणि नही रहता, क्या सचमुच यज्ञ से ऐसा लाभ मिलता है?*
उत्तर - हाँजी, यह शत प्रतिशत कथन सही है, यज्ञकर्ता ऋणमुक्त होता है, लेकिन कुछ नियम शर्तों के पालन के बाद। (Term & Conditions applied)
*कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा*
समस्त सृष्टि कर्म प्रधान है। जो जैसा करेगा वो वैसा भरेगा।
*उद्यमी पुरुषः बपुतः लक्ष्मी:*
उद्यमी पुरुष के पास लक्ष्मी स्वतः आती है।
*अतः ऋणमुक्त होने के लिए कर्म आपको स्वयं करना पड़ेगा और यज्ञ आपके अच्छे भाग्य निर्माण में सहायता करेगा, प्रारब्ध का शमन करेगा। मार्ग की बाधाओं को दूर करेगा, पुरुषार्थ-साहस और विवेक बढ़ाएगा। याद रखिये सुनहरे भविष्य का बैंक लॉकर दो चाबियों से खुलता है - एक कर्म और दूसरा भाग्य। कर्म हम स्वयं करते है और भाग्य निर्माण में देवता सहायता करते हैं। किसान की तरह बीज बोने का काम हमारा, और बीज से पौधा बनाने का कार्य ईश्वर का। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं।*
*वेद भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो यज्ञ करेगा- उसे ऋणी नहीं रहने दूँगा ।।*
'सुन्वताम् ऋणं न'
इस प्रतिज्ञा के होते हुए भी देखा जाता है कि कई यज्ञ करने वाले भी ऋणी बने रहते हैं ।। इसका कारण भी आगे चलकर वेद भगवान् ने स्पष्ट कर दिया है ।।
''न नूनं ब्रह्मणामृणं प्रोशूनामस्ति सुन्वताम् न सोमोअप्रतापये ।''
अर्थात्- निश्चय ही यज्ञकर्त्ता ब्रह्म परायण मनुष्य कभी ऋणी नहीं हो सकते ।। किन्तु इन्द्र जिनको लाँघ कर चला जाता है, वह दरिद्र रह जाते हैं ।।
इन्द्र भगवान् समस्त ऐश्वर्य के देव तो हैं, वे सब को सुखी बनाना चाहते हैं, इंद्र अर्थात समष्टिगत सोच, विश्वकल्याण की भावना जिसके मन मे नहीं होगी, और जो कंजूस, स्वार्थी और नीच स्वभाव का होगा, उससे इंद्र भगवान खिन्न होकर उनके समीप नहीं रुकते और उन्हें बिना कुछ दिये ही लाँघ कर चले जाते हैं ।। यह बात निम्न मन्त्र में भी स्पष्ट कर दी गई है ।।
अतीहि मन्युषविणं सुषुवां समुपारणे ।।
इतं रातं सुतं दिन॥ (ऋ.8/32/21)
क्रोध से यज्ञ करने वाले को अन्धा समझ कर इन्द्र भी उसे नहीं देखता ।। ईर्ष्या से प्रेरित होकर जो यज्ञ करता है, उसे बहरा समझकर इन्द्र भी उसकी पुकार नहीं सुनते ।। जो यश के लिए यज्ञ करता है उसे धूर्त समझ कर इन्द्र भी उससे धूर्तता करते हैं ।। जिनके आचरण निकृष्ट हैं, उनके साथ इन्द्र भी स्वार्थी बन जाते हैं, कटुभाषियों को इन्द्र भी शाप देते हैं ।। दूसरों का अधिकार मारने वालों की पूजा को इन्द्र हजम कर जाते हैं ।।
इससे प्रकट है कि जो सच्चे यज्ञकर्त्ता हैं और पुरुषार्थी है, उन्हीं के ऊपर इन्द्र भगवान् सब प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सुख सम्पदाएँ बरसाते हैं ।। भगवान् भावना के वश में हैं ।। जिनकी श्रद्धा सच्ची है, जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जिनका चरित्र शुद्ध है, जो परमार्थ की दृष्टि से हवन करते हैं, उनका थोड़ा सा सामान भी इन्द्र देवता सुदामा के तन्दुलों की भाँति प्रेम- पूर्वक ग्रहण करते हैं और उसके बदले में इतना देते हैं, जिससे अग्निहोत्री को किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, वह किसी का ऋणी नहीं रहता ।।
रुपये पैसे का ऋण न रहे, सो बात ही नहीं ।। देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण आदि सामाजिक और आध्यात्मिक ऋणों से छुट्टी पाकर वह बंधन- मुक्त होकर मुक्ति- पद का सच्चा अधिकारी बनता है ।।
यज्ञ से तृप्त हुए इन्द्र की प्रसन्नता तीन प्रकार से उपलब्ध होती है-
(1) कर्मकाण्ड द्वारा आधिभौतिक रूप से भौतिक ऐश्वर्य का धन, वैभव देता है ।।
(2) साधना द्वारा पुरुषार्थियों को आधिदैविक रूप से राज्य, नेतृत्व- शक्ति और कीर्ति प्रदान करता है ।।
(3) योगाभ्यासी, आध्यात्म- हवन करने वाले को इन्द्रिय- निग्रह मन का निरोध का ब्रह्म का साक्षात्कार मिलता है ।।
यज्ञ से सब कुछ मिलता है ।। ऋण से छुटकारा भी मिलता है, पर याजक होना चाहिये सच्चा ! क्योंकि सच्चाई और उदारता में ही इन्द्र भगवान् प्रसन्न होकर बहुत कुछ देने को तैयार होते हैं ।।
(यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान पृ.3.20- 21)
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - हाँजी, यह शत प्रतिशत कथन सही है, यज्ञकर्ता ऋणमुक्त होता है, लेकिन कुछ नियम शर्तों के पालन के बाद। (Term & Conditions applied)
*कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा*
समस्त सृष्टि कर्म प्रधान है। जो जैसा करेगा वो वैसा भरेगा।
*उद्यमी पुरुषः बपुतः लक्ष्मी:*
उद्यमी पुरुष के पास लक्ष्मी स्वतः आती है।
*अतः ऋणमुक्त होने के लिए कर्म आपको स्वयं करना पड़ेगा और यज्ञ आपके अच्छे भाग्य निर्माण में सहायता करेगा, प्रारब्ध का शमन करेगा। मार्ग की बाधाओं को दूर करेगा, पुरुषार्थ-साहस और विवेक बढ़ाएगा। याद रखिये सुनहरे भविष्य का बैंक लॉकर दो चाबियों से खुलता है - एक कर्म और दूसरा भाग्य। कर्म हम स्वयं करते है और भाग्य निर्माण में देवता सहायता करते हैं। किसान की तरह बीज बोने का काम हमारा, और बीज से पौधा बनाने का कार्य ईश्वर का। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं।*
*वेद भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो यज्ञ करेगा- उसे ऋणी नहीं रहने दूँगा ।।*
'सुन्वताम् ऋणं न'
इस प्रतिज्ञा के होते हुए भी देखा जाता है कि कई यज्ञ करने वाले भी ऋणी बने रहते हैं ।। इसका कारण भी आगे चलकर वेद भगवान् ने स्पष्ट कर दिया है ।।
''न नूनं ब्रह्मणामृणं प्रोशूनामस्ति सुन्वताम् न सोमोअप्रतापये ।''
अर्थात्- निश्चय ही यज्ञकर्त्ता ब्रह्म परायण मनुष्य कभी ऋणी नहीं हो सकते ।। किन्तु इन्द्र जिनको लाँघ कर चला जाता है, वह दरिद्र रह जाते हैं ।।
इन्द्र भगवान् समस्त ऐश्वर्य के देव तो हैं, वे सब को सुखी बनाना चाहते हैं, इंद्र अर्थात समष्टिगत सोच, विश्वकल्याण की भावना जिसके मन मे नहीं होगी, और जो कंजूस, स्वार्थी और नीच स्वभाव का होगा, उससे इंद्र भगवान खिन्न होकर उनके समीप नहीं रुकते और उन्हें बिना कुछ दिये ही लाँघ कर चले जाते हैं ।। यह बात निम्न मन्त्र में भी स्पष्ट कर दी गई है ।।
अतीहि मन्युषविणं सुषुवां समुपारणे ।।
इतं रातं सुतं दिन॥ (ऋ.8/32/21)
क्रोध से यज्ञ करने वाले को अन्धा समझ कर इन्द्र भी उसे नहीं देखता ।। ईर्ष्या से प्रेरित होकर जो यज्ञ करता है, उसे बहरा समझकर इन्द्र भी उसकी पुकार नहीं सुनते ।। जो यश के लिए यज्ञ करता है उसे धूर्त समझ कर इन्द्र भी उससे धूर्तता करते हैं ।। जिनके आचरण निकृष्ट हैं, उनके साथ इन्द्र भी स्वार्थी बन जाते हैं, कटुभाषियों को इन्द्र भी शाप देते हैं ।। दूसरों का अधिकार मारने वालों की पूजा को इन्द्र हजम कर जाते हैं ।।
इससे प्रकट है कि जो सच्चे यज्ञकर्त्ता हैं और पुरुषार्थी है, उन्हीं के ऊपर इन्द्र भगवान् सब प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सुख सम्पदाएँ बरसाते हैं ।। भगवान् भावना के वश में हैं ।। जिनकी श्रद्धा सच्ची है, जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जिनका चरित्र शुद्ध है, जो परमार्थ की दृष्टि से हवन करते हैं, उनका थोड़ा सा सामान भी इन्द्र देवता सुदामा के तन्दुलों की भाँति प्रेम- पूर्वक ग्रहण करते हैं और उसके बदले में इतना देते हैं, जिससे अग्निहोत्री को किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, वह किसी का ऋणी नहीं रहता ।।
रुपये पैसे का ऋण न रहे, सो बात ही नहीं ।। देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण आदि सामाजिक और आध्यात्मिक ऋणों से छुट्टी पाकर वह बंधन- मुक्त होकर मुक्ति- पद का सच्चा अधिकारी बनता है ।।
यज्ञ से तृप्त हुए इन्द्र की प्रसन्नता तीन प्रकार से उपलब्ध होती है-
(1) कर्मकाण्ड द्वारा आधिभौतिक रूप से भौतिक ऐश्वर्य का धन, वैभव देता है ।।
(2) साधना द्वारा पुरुषार्थियों को आधिदैविक रूप से राज्य, नेतृत्व- शक्ति और कीर्ति प्रदान करता है ।।
(3) योगाभ्यासी, आध्यात्म- हवन करने वाले को इन्द्रिय- निग्रह मन का निरोध का ब्रह्म का साक्षात्कार मिलता है ।।
यज्ञ से सब कुछ मिलता है ।। ऋण से छुटकारा भी मिलता है, पर याजक होना चाहिये सच्चा ! क्योंकि सच्चाई और उदारता में ही इन्द्र भगवान् प्रसन्न होकर बहुत कुछ देने को तैयार होते हैं ।।
(यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान पृ.3.20- 21)
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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