Monday, 17 September 2018

प्रश्न - *दीदी जी, आपने एक बार काफी दिन पहले लिखा था कि संतो का अलग अलग साधना का तरीका रहा है,लेकिन सभी ने ईश्वर को प्राप्त किया है चाहे वो कबीर जी हो या रैदास जी हो इसको थोड़ा विस्तार से समझा दीजिये।*

प्रश्न -  *दीदी जी, आपने एक बार काफी दिन पहले लिखा था कि  संतो का अलग अलग साधना का तरीका रहा है,लेकिन सभी ने ईश्वर को प्राप्त किया है चाहे वो कबीर जी हो या रैदास जी हो इसको थोड़ा विस्तार से समझा दीजिये।*

उत्तर - आत्मीय भाई, उपरोक्त प्रश्न को यदि दो भागों में तोड़ते हो तो दो बातें सामने निकल के आती हैं

1- साधना का तरीका अर्थात मार्ग
2- भगवान की प्राप्ति अर्थात मंजिल

जितने भी सन्त बड़े हुए हैं सबकी मंजिल एक थी। लेकिन भक्ति मार्ग अलग था।

उदाहरण गुरुग्राम से राष्ट्रपति भवन दिल्ली जाना हो तो मंजिल मान लो राष्ट्रपति भवन को और रास्ते/मार्ग मानो -धौला कुँआ मार्ग, महरौली रोड मार्ग, नजफगढ़ मार्ग, कापसहेड़ा मार्ग इत्यादि।

मार्ग कोई भी हो पहुंचना तो राष्ट्रपति भवन दिल्ली ही है। कोई मार्ग सुगम और ट्रैफिक फ्री है और कोई दुर्गम और ट्रैफिक से भरा। इसलिए कोई जल्दी पहुंचेगा और कोई देर से। लेकिन पहुंचेंगे सब एक जगह।

ईष्ट निर्धारण अर्थात किस मार्ग से हम उस विराटचेतना/परमसत्य तक पहुंचेंगे। उदाहरण कोई गायत्री मंन्त्र जपता है तो कोई कृष्ण मंन्त्र तो कोई राम मंन्त्र तो कोई शिव मंन्त्र जपता है तो कोई दुर्गा मंन्त्र इत्यादि ।

कुछ निराकार की आराधना करते हैं।

लेकिन साकार उपासक हो या निराकार उपासक, दोनों यह मानते हैं कि

भगवान - सद्विचार, सद्गुण, सद्चिन्तन, सत्प्रवृत्ति और सत्कर्मो का समुच्चय है। वही देवता और पूजन का अधिकारी है जिनमे यह गुण हों।

भगवान करते क्या हैं? लोकल्याण और धर्म की स्थापना, लोगों के मन से दुर्भावना निकालकर सद्भावना भरते हैं। उन्हें सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह भी सब मानते हैं।

भगवान को पाने के लिए भगवान जैसा बनना पड़ता है।

कबीर, रैदास, तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास, शंकराचार्य, ठाकुर रामकृष्ण, विवेकानन्द, रामदास, युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव भगवान के जैसे बनने के लिए युगपिड़ा निवारण में लग गए, एक तरफ आत्मबोध साधना की और दूसरी तरफ लोकसेवा में जुट गए। लोगों का दर्द दूर किया, धर्म की स्थापना की, लोगों को शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक लाभ मिल सके इसलिए जीवन युगनिर्माण मे समर्पित कर दिया।

जब भगवान जैसे सोचने और कर्म करने लगते हैं, तो जीवन में मंथन होता है समुद्र की तरह, तब ब्रह्म जो हममें विद्यमान है वो उभरने लगता है। आत्म साक्षात्कार होता है, माया का पर्दा गिर जाता है और भगवान मिल जाता है।

अब इससे फर्क नहीं पड़ता कि आत्मबोध के लिए निराकार की साधना की या साकार की, कृष्ण का मंन्त्र जपा या राम का, दुर्गा का जपा या शिव का, गायत्री मंत्र जपा या महामृत्युंजय मंत्र जपा, किस भाषा या किस राग में जपा, पढालिखा ज्ञानी ने मंन्त्र जपा या अनपढ़ अज्ञानी ने जपा, सुर ताल से जपा या बेसुरा जपा...

 जिसका भी मंन्त्र जपा हो बस प्रेम, विश्वास, श्रद्धा और समर्पण पूरा होगा तो ही असर दिखेगा, स्वयं सुधरेगा तो ही माया का पर्दा गिरेगा, लोकसेवा में जुटेगा तो ही देवत्व झलकेगा।

भगवान कर्मकांड नहीं- बल्कि भाव देखते हैं।
भगवान राग नहीं - बल्कि अनुराग देखते हैं।
भगवान मंन्त्र नहीं- बल्कि मंन्त्र से मिली प्रेरणा देखते हैं।
भगवान केवल श्रद्धा-विश्वास-प्रेम और समर्पण के बंधन से बंधते हैं।

*भ्रांति और भूल है लोगों की केवल जप से मुक्ति मिलती है, जबकि वास्तविकता यह है कि जिसका जप कर रहे हो उसके जैसा सोचने, बनने और उसके बताये मार्ग पर चलने पर मुक्ति मिलती है।*

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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