Wednesday 26 September 2018

यज्ञोपैथी सम्बन्धी शंका समाधान* शंका - *भेषज यज्ञ किसे कहते हैं? रोगोपचार हेतु इसका विधि विधान क्या है?*

*यज्ञोपैथी सम्बन्धी शंका समाधान*

शंका - *भेषज यज्ञ किसे कहते हैं? रोगोपचार हेतु इसका विधि विधान क्या है?*

*समाधान* - *वनौषधि यज्ञ को वेदों में भैषज्य यज्ञ कहा है।* भैषजकृतो हवा एवं यज्ञो यत्रैवंविद ब्रह्मा भवति अर्थात् उनमें वैद्यक शास्त्रज्ञ ब्रह्मा होता है, वे भैषज्य यज्ञ हैं।

*भेषज यज्ञ का उद्देश्य* - यज्ञ चिकित्सा में औषधियों को होमीकृत कर उन्हें सूक्ष्मतम बनाना एवं उनके प्रभाव से व्यक्तियों, वातावरण एवं वनस्पतियों को विकारमुक्त/रोगमुक्त करना ही प्रमुख उद्देश्य है।

*औषधि उपचार के मार्ग* - मुखमार्ग(गोली खाना)- रक्तमार्ग(इंजेक्शन) तथा श्वांस(यग्योपैथी से औषधीय धूम्र) मार्ग द्वारा ली जाने वाली औषधि का अलग- अलग प्रभाव पड़ता है। सबसे ज्यादा प्रभावी श्वांस द्वारा ली औषधि होती है, जिसकी पहुंच मष्तिष्क के कोषों तक होती है, फेफड़े क्लीन करते हुए प्राणवायु में मिलकर रक्त में मिलकर समस्त शरीर तक पहुंचती है। यह रोगनाशक के साथ साथ बलवर्द्धक होती है।

*भेषज यज्ञ संक्षिप्त होता है* -
भेषज यज्ञ/हवन देवआह्वान के लिए नहीं, चिकित्सा प्रयोजन के लिए होते हैं, इसलिए इनको देव पूजन आदि की सर्वाङ्गपूर्ण प्रकियायें न बन पड़ें तो चिन्ता की बात नहीं है। ताँबे के हवन कुण्ड में अथवा भूमि पर १२ अँगुल चौड़ी १२ अँगुल लम्बी, ३ अँगुल ऊँची, पीली मिट्टी या बालू की वेदी बना लेनी चाहिए। हवन करने वाले उसके आस- पास बैठें। यदि रोगी भी हवन पर बैठ सकता हो तो उसे पूर्व की ओर मुख कराके बिठाना चाहिए। शरीर- शुद्धि, मार्जन,शिखाबन्धन, आचमन, प्राणायाम, न्यास आदि गायत्री मन्त्र से करके कोई ईश्वर प्रार्थना हिन्दी या संस्कृत की करनी चाहिए। वेदी और यज्ञ का जल, अक्षत आदि से पूजन करके गायत्री मन्त्र के साथ हवन आरम्भ कर देना चाहिए।

*आहुति संख्या एवं क्रम* -
👉🏼 7 आज्याहुति घी से
👉🏼 24 गायत्री मंत्र/सूर्य मंन्त्र/चन्द्र गायत्री मंत्र से
👉🏼 कम से कम 5 या 11 महामृत्युंजय मंत्र से
👉🏼 इसके बाद पूर्णाहुति, वसोधारा, घृतावग्रहाणम और भष्म धारण और शांतिपाठ करके यज्ञ समाप्त करना चाहिए
👉🏼 यज्ञ के पश्चात उतपन्न हुए औषधीय धूम्र वातावरण में रोगी को 10 मिनट गहरी श्वांस लेते हुए गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। उसके ततपश्चात 20 मिनट अनुलोमविलोम या प्राणाकर्षण प्राणायाम करना चाहिए। इस 30 मिनट की प्रक्रिया में प्राणायाम के माध्यम से अधिक से अधिक धूम्र भीतर प्रवेश करता है जो रोगमुक्ति में सहायक है।
👉🏼 विशेष औषधियों का काढ़ा बनाकर दो वक्त लेना चाहिए।
👉🏼 शाम को एक और बार थोड़ी हवन सामग्री से धूम्र भी लिया जा सकता है।


🙏🏻पूर्णाहुति में सामान्य हवन सामग्री का नहीं वरन् किन्हीं विशिष्ट वस्तुओं का प्रयोग करना पड़ता है। पूर्णाहुति तीन भागों में विभक्त है।
१- स्विष्टकृत होम- जिसमें मिष्ठान्न होमे जाते है।
२- पूर्णाहुति- जिसमें फल होमना होता है।
३- बसोधारा- जिसमें घी की धारा छोडी़ जाती है। इन तीनों कृत्यों को मिलाकर पूर्णाहुति कहा जाती है। इस विधान को प्रधानतया पोषक प्रयोग के रूप में लिया जाता है। निरोधक सामग्री तो हविष्य के रूप में इससे पूर्व ही यजन हो चुकी होती है।

यज्ञ में गौ घृत उपयोग में लिया जाता है।

*यज्ञ चिकित्सा में कलश में रखे जल का भी वैज्ञानिक महत्त्व है।* यह जल यज्ञ प्रक्रिया में यज्ञ ऊर्जा से प्रभावित एवं वाष्पीकृत वनौषधियों के सूक्ष्म गुणों से युक्त होता रहता है। यूनानी चिकित्सा पद्धति द्वारा बनाये जाने वाले अर्क के पीछे भी यही सिद्धान्त है यह जल मंत्रोच्चार द्वारा अभिमन्त्रित किया जाता है। मंत्र की सामर्थ्य जल में होती हैं। इसे रोगी पर शान्तिमन्त्र पढ़ते हुए छिड़कना चाहिए। सूर्य को जल चढ़ाकर थोड़ा जल बचाकर रोगी को पिला भी देना चाहिए।

*यज्ञ में मंन्त्र क्यों बोलकर आहुति देते हैं?* यज्ञ प्रक्रिया में प्रायः हर पदार्थ के कारण शक्ति को उभारा जाता है तभी वह यजनकर्ता के मन और अन्तःकरण में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। यज्ञ की विशिष्टता उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति पर निर्भर है। औषधि की कारण शक्ति का उत्पादन अभिवर्धन करने के लिए मंत्रविज्ञान का सहारा लिया जाता है। मंत्रों का चयन ध्वनि विज्ञान चयन ध्वनि के आधार पर किया जाता है। इस कसौटी पर गायत्री मंत्र की सामर्थ्य असामान्य आँकी गयी है। अर्थ की दृष्टि से तो यह मंत्र सामान्य है। उसमें भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर की गयी है। पर मंत्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर गायत्री महामंत्र सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है। यज्ञ में प्रयुक्त अन्य वेद मंत्रों का महत्त्व भी कम नहीं है। वेदमंत्रों का उच्चारण उदात्त- अनुदात्त भावों एवं स्वरित क्रम से मध्यवर्ती उतार- चढ़ाव के साथ किया जाता है। ये सब विधान इस दृष्टि से बनाने पडे़ हैं कि इन मंत्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला और शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके। मंत्र शक्ति की असीम सामर्थ्य के कारण शरीर में यंत्र तत्र सन्निहित अनेकों चक्रों तथा उपत्यिकाओं- ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है।

यज्ञ प्रक्रिया अपने आप में एक समग्र विज्ञान है। इसका प्रत्येक पक्ष विशिष्ट है। यज्ञ समाप्त होने पर बचा अवशिष्ट, स्विष्टकृत के होम से बचा 'चरु' द्विव्य प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। आहुतियों से बचा 'इदन्नमम्' के साथ टपकाया हुआ तथा वसोधारा से बचा घी घृतावघ्राण के रूप में मुख, सिर तथा हृदय आदि पर लगाया व सुधां जाता है। होमीकृत औषधियों एवं अन्य हव्य पदार्थों से संस्कारित भस्म को मस्तक तथा हृदय पर धारण किया जाता है। ये सभी पदार्थ उतना ही प्रभाव डालते हैं जितनी कि हविष्य की आहुतियों से उत्पादित ऊर्जा।

यज्ञोपचार एक समग्र चिकित्सा विज्ञान है, जिसमें शरीर विज्ञान के अनगिनत आयाम, औषधियों के गुण, धर्मों का विवेचन, सूक्ष्मीकरण का सिद्धान्त, मनोविज्ञान एवं मनोचिकित्सा, ध्वनि विज्ञान एवं मंत्र चिकित्सा तथा आस्थाओं के जीवन में समावेश का एक अद्भुत समन्वय है। मनोविकारों और शारीरिक विकारों से पीडि़त असंख्यों मानवों के लिए आज ऐसी ही एक चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता है। इन अप्रत्यक्ष रोगों की चिकित्सा हेतु यदि इस चिर- पुरातन पद्धति को आधुनिक सन्दर्भ में पुनर्जीवित किया जा सके। तो पीडि़त मानवता की यह सर्वोपरि सेवा होगी।

उपरोक्त कंटेंट सन्दर्भ पुस्तक युगऋषि परमपूज्य गुरुदेब पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा लिखित पुस्तक - *यज्ञ का ज्ञान विज्ञान* और *यज्ञ एक समग्र उपचार पद्धति* से लिया गया है।

🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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