Monday, 15 October 2018

प्रश्न - *क्या सचमुच मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक विचारों, भावनाओं और मनोदशा का कोई प्रभाव पड़ता है? क्या इससे शरीर के रसायन में भी परिवर्तन होता है?*

प्रश्न - *क्या सचमुच  मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक विचारों, भावनाओं और मनोदशा का कोई प्रभाव पड़ता है? क्या इससे शरीर के रसायन में भी परिवर्तन होता है?*

उत्तर - आत्मीय बहन, हाँजी 100% प्रभाव पड़ता है।

 कुछ वैज्ञानिकों ने इस सत्य का पता लगाने के लिए कि क्या मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक भावनाओं का कोई प्रभाव पड़ता है, एक परीक्षण किया। उन्होंने विभिन्न प्रवृत्ति के आदमियों को एक कोठरी में बन्द कर दिया। उनमें से कोई क्रोधी, कोई विषयी और कोई नशों का व्यसनी था। थोड़ी देर बाद गर्मी के कारण उन सबको पसीना आ गया। उनके पसीने की बूँदें लेकर अलग- अलग विश्लेषण किया गया और वैज्ञानिकों ने उनके पसीने में मिले रासायनिक तत्त्वों के आधार पर उसके स्वभाव घोषित कर दिये जो बिल्कुल ठीक थे |

मानसिक दशाओं अथवा विचार- धाराओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता है, इसका एक उदाहरण बड़ा ही शिक्षाप्रद है- एक माता को एक दिन किसी बात पर बहुत क्रोध हो गया। पाँच मिनट बाद उसने उसी आवेश की अवस्था में अपने बच्चे को स्तनपान कराया और एक घण्टे के भीतर ही बच्चे की हालत खराब हो गई और उसकी मृत्यु हो गई। शव परीक्षा के परिणाम से विदित हुआ कि मानसिक क्षोभ के कारण माता का रक्त तीक्ष्ण परमाणुओं से विषैला हो गया और उसके प्रभाव से उसका दूध भी विषाक्त हो गया था, जिसे पी लेने से बच्चे की मृत्यु हो गई।

इसके विपरीत जो आत्मविश्वास, उत्साह- साहस और पुरुषार्थ भावना से भरे विचार रखता है। सोचता है कि उसकी शक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ है। उसकी योग्यता इस योग्य है कि वह अपने लायक हर काम कर सकता है। उसमें परिश्रम और पुरुषार्थ के प्रति लगन है। उसे संसार में किसी की सहायता के लिए बैठे नहीं रहना है। वह स्वयं ही अपना मार्ग बनायेगा और स्वयं ही अपने आधार पर, उस पर अग्रसर होगा- ऐसा आत्मविश्वासी और आशावादी व्यक्ति अभाव और प्रतिकूलता में भी आगे बढ़ जाता है।

यही कारण है कि शिशु- पालन के नियमों में माता को परामर्श दिया गया है कि बच्चे को एकान्त में तथा निश्चिन्त एवं पूर्ण प्रसन्न मनोदशा में स्तन- पान कराये। क्षोभ अथवा आवेग की दशा में दूध पिलाना बच्चे के स्वास्थ्य तथा संस्कारों के लिए हानिप्रद होता है। जिन माताओं के दूध पीते बच्चे, रोगी, रोने वाले, चिड़चिड़े अथवा क्षीणकाय होते हैं, उसका मुख्य कारण यही रहता है कि वे माताएँ स्तनपान के वांछित नियमों का पालन नहीं करतीं अन्यथा वह आयु तो बच्चों के स्वस्थ- तन्दुरुस्त होने की होती है।

मनुष्य के विचारों से भावनाओ का जन्म होता है, भावनाओ का घनत्व मनोदशा बनाता है। जैसे एक पुष्प को आप एक विचार मान लो, अब जिस प्रकार पुष्पों का समूह गुलदस्ता कहलाता है, वैसे ही विचारों और भावनाओं का समूह मन या मनोदशा कहलाता है। गुलदस्ते में यदि खुशबूदार पुष्प हुए तो कमरा महकेगा, बदबू देने वाले पुष्प सड़े गले हुए तो बदबू भी फ़ैलेगी। पुष्प की गंध को फैलने से रोकने के लिए पुष्प का हटाना पड़ेगा। वैसे ही परेशान करने वाले मनोभावों से मुक्ति के लिए उसकी जड़ उस विचार को हटाना पड़ेगा। उसकी जगह सही विचारो के समूह को मन मे सोचना पड़ेगा।

सन्दर्भ पुस्तक - विचारों की सृजनात्मक शक्ति

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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