Monday, 22 October 2018

क्या सोचा था और क्या हो गया? शिष्यत्व छोड़ लोग नेता बन गए....सेवा छोड़कर सम्मान प्राप्ति के मेवा में जुट गए.

*क्या सोचा था और क्या हो गया? शिष्यत्व छोड़ लोग नेता बन गए....सेवा छोड़कर सम्मान प्राप्ति के मेवा में जुट गए.*

एक ऋषि ने तपस्या की, ज्ञान प्राप्त किया। ग्राम जाकर ज्ञान को बांटा तो कई शिष्य बन गए। उन्होंने जनपीड़ा निवारण हेतु कई प्रयास किये, जिसके कारण ग्राम के ग्राम समृद्ध होते चले गए। शरीरगत रोगों के उपचार के लिए आयुर्वेद और यज्ञचिकित्सा बताई, मनोगत रोगों के उपचार हेतु अच्छे विचार दिए, रिश्तों में सुधार हेतु बिना शर्त प्रेम एक दूसरे से करना सिखाया, और भगवत कृपा प्राप्ति हेतु निर्मल भक्ति सिखाई। कई हज़ार शिष्य उनके बने, और उनसे प्रेरणा लेकर जनसेवा में लग गए। सबकुछ अच्छा चल रहा था।

लोगों ने गुरुजी से कहा समस्त दूर गांव के लोगो को यहां लाना संभव नहीं है, अतः अपना एक मठ हमारे यहां भी खोल दीजिये। गुरूदेव दया के साग़र थे। अतः उन्होंने दूर दूर गांवों में शिष्य भेज दिए लोकल लोगों ने जमीन इत्यादि की व्यवस्था कर दी। सब व्यवस्थित चल रहा था, गुरुदेव ने कहा बच्चो अब तुम लोग सब सम्हाल सकने में सक्षम हो। अब मैं हिमालय पुनः तपलीन होने जा रहा हूँ।

कुछ वर्ष बाद जब गुरूदेव आये, तो उनसे मिलने समस्त शिष्य पहुंचे। लेकिन अधिकतर खिन्न और अप्रश्नन थे और एक दूसरे की शिकायत लेकर आये थे। अमुक फला मठ में अहंकारी बनकर मनमानी कर रहा है, उसे हटाओ इत्यादि इत्यादि। सबके अंदर शिकायतों का भण्डार था। गुरूदेव व्यथित हो रो पड़े। बोले बिना शर्त प्रेम और निःश्वार्थ जन सेवा के लिए मठ बनाया था। पीड़ा पतन निवारण के लिए मठ बनाया था। जब तुम स्वयं ही झगड़ रहे हो तो तुम्हारी बातों का जन समुदाय पर कोई असर नहीं हो रहा होगा। जो शिष्य ख़ुद एक उद्देश्य, एक लक्ष्य के लिए, गुरु आदेश पर सँगठित नहीं रह सकते, ऐसे लोगों के मुँह से परिवार निर्माण, रिश्तों में प्रेम और भगवत भक्ति की बात क्या शोभा देगी?

मुझे मेरे कार्य के लिए प्रभु सेवक और प्रभु के दास चाहिए। मठाधीश नही चाहिए। अच्छा होगा तुम लोग मठ अपने क्षेत्रों के बन्द कर दो, क्योंकि जो ज्ञान तुम्हारे आचरण में ही नहीं उतरा उसे बांटकर कोई फ़ायदा नहीं। दुबारा अपनी शक्ल मुझे मत दिखाना, मुझे कोई मठ नहीं खोलना और न चलाना है।

शिष्य बनकर सेवा कार्य के लिए पद प्रतिष्ठा की जरूरत नहीं पड़ती। हां नेता और मठाधीश बनने के लिए लिए जरूर पद प्रतिष्ठा चाहिए।

गुरु श्राप से ये शिष्य जीवनभर अशांत और व्यथित रहे, मरने के बाद पुनः संसार के आवागमन और नारकीय यातना को भोगते रहे।

कुछ शिष्य मौन अपनी प्रतीक्षा में थे, गुरूदेव ने उनसे पूँछा तुम्हे किसी से शिकायत नहीं। उन्होंने गुरुदेव से कहा, प्रभु हम तो यह जानने आये है कि आगे हमारे लिए आपका क्या निर्देश है, हम अपनी योग्यता पात्रता कैसे बढ़ाएं। इस बार आप क्या ब्रह्मज्ञान लेकर आये हैं? हमें परमज्ञान देकर अनुग्रहित करें। गुरुदेव प्रशन्न हुए और इन शिष्यों को ब्रह्मज्ञान देकर और मुक्ति का मार्ग बतलाकर चले गए। जाओ अपने अपने मठों को विस्तार दो। ध्यान रखो गुरु की प्रथम पहचान गुरु का शिष्य ही होता है।

 मेरी तपस्या और ज्ञान के सच्चे उत्तराधिकारी तुम हो मेरे बच्चो। ढेर सारे गुरु के आशीर्वाद से शिष्य कृतकृत्य हो गए। जीवन भर परमानन्द में जन सेवा की और मरने के बाद ये शिष्य ब्रह्मलीन हुए और बैकुंठ गए।

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जिस प्रकार गंदे शीशे पर सूर्य की रोशनी नही ठहरती, ठीक उसी प्रकार गंदे मन वालों पर ईश्वर और सद्गुरु के आशीर्वाद का प्रकाश नही पड़ सकता है ।
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🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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