*Anger Management - Lord Ram(क्रोध जैसे आवेग का प्रबंधन गुण सीखें श्रीराम से)*
मनुष्य और भगवान में क्या अंतर है? मनुष्य सुख पाने की तलाश में जीता है, जो रिश्ते, वस्तुएं, सम्बन्ध और जगह सुख नहीं देते वो उनका त्याग कर देता है। जबकि भगवान सुख देने और भला करने की तलाश में होते है, इसके लिए भले ही उन्हें कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े, परवाह नहीं करते।
समझने योग्य हुए कि पढ़ाई के लिए वशिष्ठ के आश्रम भेज दिए गए जहां राज्य सुख था ही नहीं, लौट कर राज्य सुख एन्जॉय करना शुरू ही किया था कि विश्वामित्र उन्हें राजा दशरथ से मांग कर ले गए ताड़का इत्यादि राक्षसों के उत्पात से ऋषियों को बचाने के लिए, अगेन यहां भी राज्य सुख नहीं था जंगलों की भटकन थी। वहां से जानकी जी से विवाह करके घर लौटे तो उनके राज्याभिषेक की घोषणा हुई। राज्य सुख और आराम एन्जॉय करना ठीक से शुरू भी नहीं किया और आज राजा बनने की बात और दूसरे दिन सुबह बुलाकर 14 वर्ष बनवास घोषित कर दिया गया, इस बार तो राजसी कपड़े भी उतरवा लिए गए और वचन भी लिया गया कि 14 वर्ष राज्यों में प्रवेश नहीं कर सकते। माता-पिता की खुशी के लिए बिना कोई प्रश्न किये चल दिये वन को...गुस्सा भी तो प्रदर्शित कर सकते थे, बोल सकते थे मेरे साथ अन्याय क्यूँ? राज्य नहीं दिया कोई बात नहीं लेकिन महल में तो रहने दो...
यदि सोचो, माता-पिता तुमसे वादा करें कि कल तुम्हारे नाम ज़मीन जायजाद की वसीयत लिख देंगे। लेकिन दूसरे दिन जब तुम वसीयत पाने की ख़ुशी में मग्न हो उनके समक्ष पहुंचो और वो तुम्हे कहें निकल जाओ घर से, जेब मे जो पैसे है वो भी यही रख जाओ, कोई कपड़े और सामान यहां से नहीं ले जा सकते। तब आपका क्या रिएक्शन होगा...😡😡😡😡😡 गुस्से में बौखला कर क्या से क्या न बोल दोगे.. पहला वाक्य ही यह होगा कि तुमलोग मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, फिर...😷😷😷😷।
रावण श्रीसीता जी का हरण कर ले गया, सुग्रीव और बालि दोनों ही राम भक्त थे। बालि तो रावण को हरा चुका था, यदि राम मदद मांगते तो चुटकी में वो पुनः रावण को हरा कर सीता जी को ले आता। लेकिन राम ने अन्यायी की मदद नहीं ली, बल्कि सुग्रीव जो डरा सहमा था उसे साथ लिया। राम ने किसी भी अन्य राजाओं से मदद नहीं ली, बल्कि उन रीछ वानरों की सेना बनाई जो कि राक्षसों के भोजन थे। रावण वध के बाद वह राज्य विभीषण को सौंप दिया। श्रीसीता जी सहित श्रीराम अयोध्या आये। अभी सेटल होकर राज्य सुख ले ही रहे थे, कि धोबी प्रकरण और दुश्मनों के षड्यंत्र ने राज्य अस्थिर कर दिया और विद्रोह के स्वर मुखर हो गए। चाहते तो गुस्से में उन सभी को पकड़कर फाँसी में लटका देते, लेकिन इससे हिन्दू-मुस्लिम जैसा दंगा भड़क उठता और निर्दोष जनता भी मारी जाती। श्रीसीता जो कि गर्भवती थीं, पिता बनने के आनन्द में थे, उन्हें लाखो लोगों की प्राणरक्षा/आतंकवाद/दंगा रोकने के लिए श्रीसीता जी का त्याग करना पड़ा। मर्यादापुरुषोत्तम की पत्नी श्रीसीता जी यह सब समझती थी। जनता को सम्हालने हेतु और षड्यंत्र को नष्ट करने हेतु वक्त चाहिए था, अगेन स्वयं के सुख की परवाह न करते हुए प्रजा के सुख के लिए अपना सुख त्याग दिया।
दूसरा विवाह भी नहीं किया, अपने पुत्रों के जन्म में भी मौजूद नहीं रहे, क्योंकि श्रीसीता जी वनवासी का जीवन व्यतीत कर भूमि शयन कर कंद मूल फल का आहार लें रही थीं, इसलिए पतिव्रत का पालन करते हुए महल में रहते हुए भी श्रीराम ने राज्य सुख का त्याग कर दिया और तपस्वी जीवन अपना लिया।
पूरे जीवन में अनेकों युद्ध किये जीवन के उतार चढ़ाव देखे, लेकिन मर्यादा नहीं छोड़ी, कभी अहंकार नहीं किया, कभी क्रोध नहीं किया, कभी लोभ लालच नहीं किया, दुसरो को सुख देने के लिए स्वयं कष्ट उठाये। अंततः राम राज्य स्थापित करने में सफलता पाई और स्त्रियों के सम्मान की पुनर्स्थापना हेतु माता सीता जी ने स्वयं को बलिदान कर दिया।
देश और समाज के लिए और अपने परिवार के लिए क्या हम अपनी सुख सुविधा का कुछ अंश भी त्याग सकते है? क्या बिना क्रोध किये ठंडे दिमाग़ से एक महीना भी गुजार सकते है? स्वयं विचार करें...
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
मनुष्य और भगवान में क्या अंतर है? मनुष्य सुख पाने की तलाश में जीता है, जो रिश्ते, वस्तुएं, सम्बन्ध और जगह सुख नहीं देते वो उनका त्याग कर देता है। जबकि भगवान सुख देने और भला करने की तलाश में होते है, इसके लिए भले ही उन्हें कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े, परवाह नहीं करते।
समझने योग्य हुए कि पढ़ाई के लिए वशिष्ठ के आश्रम भेज दिए गए जहां राज्य सुख था ही नहीं, लौट कर राज्य सुख एन्जॉय करना शुरू ही किया था कि विश्वामित्र उन्हें राजा दशरथ से मांग कर ले गए ताड़का इत्यादि राक्षसों के उत्पात से ऋषियों को बचाने के लिए, अगेन यहां भी राज्य सुख नहीं था जंगलों की भटकन थी। वहां से जानकी जी से विवाह करके घर लौटे तो उनके राज्याभिषेक की घोषणा हुई। राज्य सुख और आराम एन्जॉय करना ठीक से शुरू भी नहीं किया और आज राजा बनने की बात और दूसरे दिन सुबह बुलाकर 14 वर्ष बनवास घोषित कर दिया गया, इस बार तो राजसी कपड़े भी उतरवा लिए गए और वचन भी लिया गया कि 14 वर्ष राज्यों में प्रवेश नहीं कर सकते। माता-पिता की खुशी के लिए बिना कोई प्रश्न किये चल दिये वन को...गुस्सा भी तो प्रदर्शित कर सकते थे, बोल सकते थे मेरे साथ अन्याय क्यूँ? राज्य नहीं दिया कोई बात नहीं लेकिन महल में तो रहने दो...
यदि सोचो, माता-पिता तुमसे वादा करें कि कल तुम्हारे नाम ज़मीन जायजाद की वसीयत लिख देंगे। लेकिन दूसरे दिन जब तुम वसीयत पाने की ख़ुशी में मग्न हो उनके समक्ष पहुंचो और वो तुम्हे कहें निकल जाओ घर से, जेब मे जो पैसे है वो भी यही रख जाओ, कोई कपड़े और सामान यहां से नहीं ले जा सकते। तब आपका क्या रिएक्शन होगा...😡😡😡😡😡 गुस्से में बौखला कर क्या से क्या न बोल दोगे.. पहला वाक्य ही यह होगा कि तुमलोग मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, फिर...😷😷😷😷।
रावण श्रीसीता जी का हरण कर ले गया, सुग्रीव और बालि दोनों ही राम भक्त थे। बालि तो रावण को हरा चुका था, यदि राम मदद मांगते तो चुटकी में वो पुनः रावण को हरा कर सीता जी को ले आता। लेकिन राम ने अन्यायी की मदद नहीं ली, बल्कि सुग्रीव जो डरा सहमा था उसे साथ लिया। राम ने किसी भी अन्य राजाओं से मदद नहीं ली, बल्कि उन रीछ वानरों की सेना बनाई जो कि राक्षसों के भोजन थे। रावण वध के बाद वह राज्य विभीषण को सौंप दिया। श्रीसीता जी सहित श्रीराम अयोध्या आये। अभी सेटल होकर राज्य सुख ले ही रहे थे, कि धोबी प्रकरण और दुश्मनों के षड्यंत्र ने राज्य अस्थिर कर दिया और विद्रोह के स्वर मुखर हो गए। चाहते तो गुस्से में उन सभी को पकड़कर फाँसी में लटका देते, लेकिन इससे हिन्दू-मुस्लिम जैसा दंगा भड़क उठता और निर्दोष जनता भी मारी जाती। श्रीसीता जो कि गर्भवती थीं, पिता बनने के आनन्द में थे, उन्हें लाखो लोगों की प्राणरक्षा/आतंकवाद/दंगा रोकने के लिए श्रीसीता जी का त्याग करना पड़ा। मर्यादापुरुषोत्तम की पत्नी श्रीसीता जी यह सब समझती थी। जनता को सम्हालने हेतु और षड्यंत्र को नष्ट करने हेतु वक्त चाहिए था, अगेन स्वयं के सुख की परवाह न करते हुए प्रजा के सुख के लिए अपना सुख त्याग दिया।
दूसरा विवाह भी नहीं किया, अपने पुत्रों के जन्म में भी मौजूद नहीं रहे, क्योंकि श्रीसीता जी वनवासी का जीवन व्यतीत कर भूमि शयन कर कंद मूल फल का आहार लें रही थीं, इसलिए पतिव्रत का पालन करते हुए महल में रहते हुए भी श्रीराम ने राज्य सुख का त्याग कर दिया और तपस्वी जीवन अपना लिया।
पूरे जीवन में अनेकों युद्ध किये जीवन के उतार चढ़ाव देखे, लेकिन मर्यादा नहीं छोड़ी, कभी अहंकार नहीं किया, कभी क्रोध नहीं किया, कभी लोभ लालच नहीं किया, दुसरो को सुख देने के लिए स्वयं कष्ट उठाये। अंततः राम राज्य स्थापित करने में सफलता पाई और स्त्रियों के सम्मान की पुनर्स्थापना हेतु माता सीता जी ने स्वयं को बलिदान कर दिया।
देश और समाज के लिए और अपने परिवार के लिए क्या हम अपनी सुख सुविधा का कुछ अंश भी त्याग सकते है? क्या बिना क्रोध किये ठंडे दिमाग़ से एक महीना भी गुजार सकते है? स्वयं विचार करें...
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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