*अयाचक प्रेम तृप्ति देता है, निष्काम भक्ति मुक्ति देता है, कर्ता भाव का त्याग नूतन दृष्टि देता है।*
भगवान जब भी जन लेता है, उनके साथ उनकी लीला सहचरी जन्म लेती है। इसी क्रम में श्रीराधा रानी का भी जन्म हुआ।
अयाचक और निष्काम- *बिना किसी अपेक्षा और चाहना के कोई कार्य करना।*
राधारानी का प्रेम निष्काम भक्ति की पराकाष्ठा और अयाचक प्रेम था। उन्हें श्रीकृष्ण की पटरानी का पद नहीं मिला, पूरी उम्र श्रीकृष्ण ने उन्हें कोई सुख सुविधा नहीं दी। युवावस्था में वृंदावन और वरसाना भी छोड़ दिया। मोबाइल इंटरनेट इत्यादि था नहीं तो मोबाइल कॉलिंग और वीडियो कॉलिंग की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। केवल संदेशवाहक से कुशलक्षेम पता चलती थी। फिर भी प्रेम की पराकाष्ठा यह थी कि श्रीकृष्ण के हृदय में केवल श्रीराधा जी और श्रीराधाजी के हृदय में श्रीकृष्ण जी ही बसते थे।
सारी रानियां इससे व्यथित थीं, एक दिन एक मेला लगा था जहाँ श्रीराधा रानी भी आई थी। सभी रानियां उनसे मिलने जाने को उत्सुक थी। जल्दबाज़ी में श्रीकृष्ण को गर्म दूध दे दिया। जब राधा जी से मिलने गयी तो उनके श्रीचरणों में फफोले पड़े थे। सबने जब कारण पूँछा तो उन्होंने कहा, क्या श्रीकृष्ण जी ज्यादा गर्म दूध दे आयी। उनके हृदय में मैं बसती हूँ उसी की गर्मी से फफोले पड़ गए। सभी शर्मिंदा हो के घर वापस आईं।
अब सबके मन में शक हुआ कि कृष्ण जी को सबसे ज्यादा कौन चाहता है? प्रभु अंतर्यामी लीला रच दी अत्यंत बीमार होने की। नारद जी ने उपाय बताया जो श्रीकृष्ण से निष्काम भक्ति और अयाचक प्रेम करता है, वो अपने चरणों की रज दे दे, कृष्ण स्वस्थ हो जाएंगे।
सभी रानियों ने जब यह सन्देश सुना तो सकपका गईं, कि त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण को हम तुच्छ अपने चरण रज देंगे तो घोर नर्क में पड़ेंगे, कोई न कोई चाह तो सबके भीतर थी। कोई दे न सका, फिर नारद जी श्रीराधा के पास सन्देश लेकर पहुंचे। उन्होंने बिना एक पल देर लगाए चरणरज दे दी और बोलीं मुझे मेरे प्रियतम से बदले में कुछ नहीं चाहिए। यदि यह चरणरज उन्हें स्वास्थ्य दे और इसके लिए मुझे रौरव नर्क में रहना पड़े तो मुझे स्वीकार्य है। पहले श्रीराधा जी की चरणरज स्वयं माथे से लगाई फिर श्रीकृष्ण के माथे पर लगाई और वह स्वस्थ हुए।
क्या हम अपने सद्गुरु से अयाचक प्रेम और निष्काम भक्ति करते है? क्या उनके लिए सम्मान पाने की चाह त्याग के जीवित नर्क सह सकते है?
जीवित नर्क अर्थात - गुरुकार्य के लिए धन और समय खर्च करने पर घरवालों से अपमान मिलना, तिरस्कार और नारकीय यातना सहना, परिवार का विरोध झेलना। लोगों द्वारा आपके कार्य का क्रेडिट खा जाना, आपको नीचा दिखाना। यज्ञ और युगसाहित्य के प्रचार प्रसार के वक्त लोगो का आपको उल्टा सीधा कुछ बोलना। आपके मुंह पर गेट बंद कर देना और आपकी जीवनोपयोगी बातों और साहित्य को न सुनना। इतना सारा कार्य करने पर भी आपके ही साथियों द्वारा आपकी उपेक्षा करना। कोई पद प्रतिष्ठा न मिलना।
स्वयं से पूंछे, ये सब गुरुप्रेम में हम सह सकते है क्या?
बोलो श्रीराधा रानी की जय!
बोलो श्रीकृष्ण भगवान की जय!
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
भगवान जब भी जन लेता है, उनके साथ उनकी लीला सहचरी जन्म लेती है। इसी क्रम में श्रीराधा रानी का भी जन्म हुआ।
अयाचक और निष्काम- *बिना किसी अपेक्षा और चाहना के कोई कार्य करना।*
राधारानी का प्रेम निष्काम भक्ति की पराकाष्ठा और अयाचक प्रेम था। उन्हें श्रीकृष्ण की पटरानी का पद नहीं मिला, पूरी उम्र श्रीकृष्ण ने उन्हें कोई सुख सुविधा नहीं दी। युवावस्था में वृंदावन और वरसाना भी छोड़ दिया। मोबाइल इंटरनेट इत्यादि था नहीं तो मोबाइल कॉलिंग और वीडियो कॉलिंग की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। केवल संदेशवाहक से कुशलक्षेम पता चलती थी। फिर भी प्रेम की पराकाष्ठा यह थी कि श्रीकृष्ण के हृदय में केवल श्रीराधा जी और श्रीराधाजी के हृदय में श्रीकृष्ण जी ही बसते थे।
सारी रानियां इससे व्यथित थीं, एक दिन एक मेला लगा था जहाँ श्रीराधा रानी भी आई थी। सभी रानियां उनसे मिलने जाने को उत्सुक थी। जल्दबाज़ी में श्रीकृष्ण को गर्म दूध दे दिया। जब राधा जी से मिलने गयी तो उनके श्रीचरणों में फफोले पड़े थे। सबने जब कारण पूँछा तो उन्होंने कहा, क्या श्रीकृष्ण जी ज्यादा गर्म दूध दे आयी। उनके हृदय में मैं बसती हूँ उसी की गर्मी से फफोले पड़ गए। सभी शर्मिंदा हो के घर वापस आईं।
अब सबके मन में शक हुआ कि कृष्ण जी को सबसे ज्यादा कौन चाहता है? प्रभु अंतर्यामी लीला रच दी अत्यंत बीमार होने की। नारद जी ने उपाय बताया जो श्रीकृष्ण से निष्काम भक्ति और अयाचक प्रेम करता है, वो अपने चरणों की रज दे दे, कृष्ण स्वस्थ हो जाएंगे।
सभी रानियों ने जब यह सन्देश सुना तो सकपका गईं, कि त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण को हम तुच्छ अपने चरण रज देंगे तो घोर नर्क में पड़ेंगे, कोई न कोई चाह तो सबके भीतर थी। कोई दे न सका, फिर नारद जी श्रीराधा के पास सन्देश लेकर पहुंचे। उन्होंने बिना एक पल देर लगाए चरणरज दे दी और बोलीं मुझे मेरे प्रियतम से बदले में कुछ नहीं चाहिए। यदि यह चरणरज उन्हें स्वास्थ्य दे और इसके लिए मुझे रौरव नर्क में रहना पड़े तो मुझे स्वीकार्य है। पहले श्रीराधा जी की चरणरज स्वयं माथे से लगाई फिर श्रीकृष्ण के माथे पर लगाई और वह स्वस्थ हुए।
क्या हम अपने सद्गुरु से अयाचक प्रेम और निष्काम भक्ति करते है? क्या उनके लिए सम्मान पाने की चाह त्याग के जीवित नर्क सह सकते है?
जीवित नर्क अर्थात - गुरुकार्य के लिए धन और समय खर्च करने पर घरवालों से अपमान मिलना, तिरस्कार और नारकीय यातना सहना, परिवार का विरोध झेलना। लोगों द्वारा आपके कार्य का क्रेडिट खा जाना, आपको नीचा दिखाना। यज्ञ और युगसाहित्य के प्रचार प्रसार के वक्त लोगो का आपको उल्टा सीधा कुछ बोलना। आपके मुंह पर गेट बंद कर देना और आपकी जीवनोपयोगी बातों और साहित्य को न सुनना। इतना सारा कार्य करने पर भी आपके ही साथियों द्वारा आपकी उपेक्षा करना। कोई पद प्रतिष्ठा न मिलना।
स्वयं से पूंछे, ये सब गुरुप्रेम में हम सह सकते है क्या?
बोलो श्रीराधा रानी की जय!
बोलो श्रीकृष्ण भगवान की जय!
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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