Sunday, 9 December 2018

प्रश्न - *दी, क्या दुसरों को दुख देकर क्या हमारी उपासना-साधना सफल हो सकती है?*

प्रश्न - *दी, क्या दुसरों को दुख देकर क्या हमारी उपासना-साधना सफल हो सकती है?*

उत्तर - आत्मीय बहन, राक्षसी प्रवृत्ति के साथ की गई उपासना-तप राक्षसों की भी फलीभूत हुई लेकिन अन्त उसका दुखदाई ही रहा।

साधना तो आत्मपरिष्कार के बिना सफल हो ही नहीं सकती, क्योंकि साधना स्वयं की  होती है। राक्षसराज रावण की शिव उपासना सिद्ध हुई थी, लेकिन शिव साधना नहीं। उसने स्वयं को शिव जैसा परोपकारी और उदार देवता नहीं बनाया। स्वयं में देवत्व नहीं जगाया। इसलिए शिव साधना विफल हुई और अंत मे उसकी दुर्गति हुई।

उपासना यदि किसी सकाम उद्देश्य से स्वयं में बदलाव किए हुए बिना की, तो वह एक तरह से मजदूरी हुई, मजदूरी की कीमत उस तपस्या का फल/वरदान मिल गया। रिश्ता ख़त्म।

उपासना के साथ साधना और आराधना अर्थात भगवान के साथ जीवन भर की साझेदारी, भगवान का उत्तराधिकारी बनना। उनका सहयोगी बनना। उनकी सन्तान बनना। उनके जैसा बनना। यह रिश्ता जन्मजन्मांतर का होता है अटूट होता है। मन और हृदय में आनन्द उल्लास सुकून और शांति बनी रहती है।

अतः कोई सास या बहु यदि एक तरफ बहु या सास को तड़फा कर दुःख दे रही और दूसरी तरफ उपासना कर रही है, तो क्षणिक सफलता जरूर मिले लेकिन अंत दुखदायी होगा।  इसी तरह पति या पत्नी अपने जीवन साथी को एक तरफ दुःख दे रहे है और दूसरी तरह उपासना कर रहे है तो क्षणिक सफलता जरूर मिलती दिखे लेकिन अंत दुखदायी ही होगा।

मनुष्य में देवत्व जगे बिना देवताओं के साथ साझेदारी सम्भव नहीं है। परमात्मा प्रेम स्वरूप है, स्वयं में सुधार और आत्मियता का विस्तार ही उसकी पूजा है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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