Tuesday, 25 December 2018

प्रश्न - *आध्यात्म और भौतिक को साधने का सरल उपाय क्या है?*गरुण पुराण का मृतक भोज सम्बन्धी क्या महत्व है?किसी कर्म के सार्थकता या सिद्धी में क्या अन्तर होता है?

प्रश्न - *आध्यात्म और भौतिक को साधने का सरल उपाय क्या है?*

उत्तर - आत्मीय बहन आपके तीनो प्रश्नों का उत्तर इसी पोस्ट में दे रही हूँ।

*आध्यात्म और भौतिक को साधने का सरल उपाय* - संसार की नश्वरता और आत्मा के अमरत्व का हमेशा भान रखना। हम इस संसार मे एक निश्चित अवधि के लिए आये है और हमें वापस भी जाना है। दुनियाँ के रंगमंच में अभिनय करते वक़्त अभिनय बेहतर करना है लेकिन स्वयं को एक अभिनेता समझना है, उस रोल के  चरित्र को स्वयं नहीं समझना है। जिस प्रकार रंगमंच पर सीन कोई भी चल रहा हो, निर्देशक देख रहा होता है और कैमरा रिकॉर्ड कर रहा होता है। उसी तरह हम जिस भी कार्य को कर रहे हैं ईश्वर देख रहा है और कर्म के कैमरे में रिकॉर्ड हो रहा है। ईश्वरीय निर्देशन में उनके निमित्त बनकर साक्षी भाव से जीना है और सांसारिक कार्य करने हैं, जो कुछ करें प्रभु को अर्पित करते चले।

तन संसार को और मन भगवान को समर्पित करके जीवन को साक्षी भाव से होशपूर्वक जीना ही जीवन को सार्थक बनाता है। स्वस्थ शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्धक सन्तुलित आहार लें और योग-व्यायाम करें। स्वच्छ और स्वस्थ मन के लिए अच्छी पुस्तको स्वाध्याय करें और ध्यान करें। आत्मा के लिए ईश्वरीय उपासना से आत्मकल्याण और लोकसेवा से ईश्वरीय आराधना करें।

प्रश्न -  *गरुण पुराण का मृतक भोज सम्बन्धी क्या महत्व है? Please explain.*

उत्तर - *तपस्वी और लोकसेवी ब्राह्मण जो अपरिग्रही होते हैं। ऐसे लोग जिनके तप भण्डार अकूत भरे होते हैं*। इनके द्वारा जप प्रार्थना और यज्ञादि करवाने के बाद गृह में इन्हें भोजन कराने से मृतक आत्मा को शांति मिलती है और पुण्यलाभ मिलता है। इसे ऐसे समझें कि अमेरिका में इंडियन करेंसी नहीं चलती, ठीक इसी तरह सांसारिक मुद्रा मृत्यु के बाद नहीं चलती। अब इंडियन रुपये को एक्सचेंज करवाना हो तो किसी वैलिड फॉरेक्स एक्सचेंज ऑफिस में जाओगे, सहमत हो कि नहीं? इसी तरह तपस्वी जिसके पास पुण्य संग्रह हो और तप की एक अंश शक्ति जो मृतक को दे सके उसे ही मृतक भोज कराने का फ़ायदा है, सहमत हो.. तो मृतक भोज में उन लोगों को खिलाने का क्या फ़ायदा जो तपशक्ति विहीन है.. रिश्तेदार और स्वजातीय लोगों को मृतक भोज पैसे की बर्बादी ही हुई न...सहमत हो कि नहीं... *जो स्वयं तप का कंगाल है उसका दिया खोखला आशीर्वाद भला मृतक को क्या फ़ल देगा, ऐसा ही होगा मानो खा-पीकर गिफ्ट में ख़ाली लिफ़ाफ़ा कोई दे गया*? पुराणों में लिखे विधान सही हैं, क्योंकि उस वक्त *सभी तीन समय की ब्रह्म गायत्री संध्या, दो नवरात्र में 24 हज़ार गायत्री के अनुष्ठान और वर्ष में एक चंद्रायण व्रत के साथ सवा लाख गायत्री का जप अनुष्ठान करते थे। दैनिक यज्ञ करते थे, लोककल्याण में निःश्वार्थ लगे रहते थे। तप की पूंजी से लबालब भरे होते थे, इनके आशीर्वाद तप बल और ब्रह्म गायत्री बल युक्त होते थे*। इसलिए फलीभूत होते थे। यदि इतना तप करने वाले रिश्ते नातेदार, स्वजयीय या ब्राह्मण मिले उन्हें अवश्य मृतक भोज करवाये, अन्यथा पैसे मृतक भोज में बर्बाद न करें।

प्रश्न - *किसी कर्म के सार्थकता या सिद्धी में क्या अन्तर होता है?*

उत्तर - प्रत्येक कर्म का कर्म फ़ल होता है, वो अच्छा या बुरा दोनों होता है। तप कर्म करते हुए श्रेष्ठ तपस्वी आत्मज्ञानी बनना भी सिद्धि है, और चोरी करते हुए कुशल चोर बन जाना भी सिद्धि है। तप सार्थक/अच्छा कर्म है, और चोरी निर्रथक/पाप कर्म है।

कर्म का प्रकार सार्थकता है, अर्थात यदि आप किसी गरीब बालक को शिक्षा दान किये। यह हुआ कर्म की सार्थकता। यदि आप सेवा की भावना लेकर डॉक्टर की पढ़ाई कर रहे है, तो यह एक सार्थक कर्म हुआ। आत्मकल्याण हेतु नित्य उपासना-साधना-आराधना कर रहे है तो यह सार्थक कर्म हुआ। इत्यादि...यह रास्ता है।

सिद्धि अर्थात उस कार्य में कुशल हो जाना। पूर्णता प्राप्त कर लेना। वो गरीब बालक यदि पढ़लिख के योग्य बन गया तो वो आपके कर्म की सिद्धि है। यदि आप पढ़लिख कर कुशल डॉक्टर बन गए तो यह  कर्म की सिद्धि हुई। यदि नित्य उपासना जप-ध्यान से समाधि लग गयी और आत्मज्ञान मिल गया तो यह कर्म की सिद्धि हुई। इत्यादि...यह मंजिल है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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