प्रश्न - *दी, हमारी लव मैरिज है, फ़िर भी झगड़े बहुत होते हैं। समझ नहीं आता क्या करूँ, लड़ना दोनों नहीं चाहते फिर भी लड़ते रहते हैं, शादी से पहले और अब में व्यवहार क्यों बदल गया समझ नहीं आ रहा। ये हम दोनों का प्रश्न है, हम दोनों का मार्गदर्शन करें।*
उत्तर - मेरे आत्मीय *** बहन और *** भाई, झगड़े के उपचार से पहले झगड़े की जड़ समझते हैं।
शादी से पहले तुम कुछ समय के लिए मिलते थे, उद्देश्य क्लियर था क्यों मिलने आये हो और टाइम फिक्स था, थोड़ा था। लंबे इंतजार के बाद किसी भी तरह एक दूसरे को पाने की लालसा थी। एक दूसरे को प्रेम के रंगीन चश्में से देखते थे, केवल एक दूसरे की अच्छाई देख रहे थे।
शादी के बाद, एक दूसरे को मिल गए हो। उद्देश्य पूरा हो गया, अब इंतज़ार मिलने के लिए नहीं करना पड़ता, और नया कोई गोल/लक्ष्य अभी बना नहीं है। अब हक़ीक़त के चश्मे से एक दूसरे की अच्छाई के साथ बुराई भी दिख रही है। पूरा समय एक दूसरे के साथ हो, तो कुछ भी छिपा नहीं।
*अब एक उदाहरण से समझो*:- रोज़ एक ट्रेन से तुम सफ़र करते थे जिस बोगी में तुम थे उसमें दो चेयर थी। दूसरी चेयर हमेशा ख़ाली होती थी, जिसमे तुम लैपटॉप बैग, मोबाइल पर्स, मैगजीन और कोट रख देते थे। तुम उतरते अपने प्रेमी से मिलते और लौट जाते, इसी तरह वो भी दूसरी गाड़ी से लौट जाता जहां उसकी बगल की सीट भी खाली थी। उससे कहते काश तुम भी मुझे ज्वाइन कर लो सफर में बड़ा आनन्द आएगा, अकेला बोर हो जाता हूँ। कुछ महीनों बाद वो तैयार हो गया, तुम्हारे बगल की सीट में बैठ गया। तुमने अपने सामान सारे गोद में रख लिए और उसने अपने सारे सामन गोद में रख लिए। बातें मीठी मीठी की, बोरियत मिट गई। लेकिन कुछ देर बाद पुरानी आदत ने तुम्हे परेशान किया कि काश सीट खाली होती और समान तुम रख पाते फैल के चौड़ा हो के सो पाते। ऐसा नहीं कि तुम अपने सहयात्री से प्रेम नहीं करते लेकिन तुम पुरानी आजादी और ऐशो आराम चाहते हो। खाली वाली सीट पहले भी तुम्हारी नहीं थी और अब भी नहीं है। तुम ने बिना मूल्य दिए उस चेयर का उपयोग कर रहे थे क्योंकि रिज़र्वेशन किया यात्री आया नहीं था। अब यह बगल वाली सीट का सहयात्री तुम्हारी मर्जी यानि लव मैरिज वाला हो या अरेंज मैरिज। यह समान रखने वाली असुविधा तो होगी ही। अब कोई यह चाहे कि सामने वाला उसका सामान भी उठा कर बैठे तो भी ज्यादती है। आनंदमय जीवन के सफर हेतु एक दूजे की मदद करना होगा, थोड़ा एडजस्ट करना होगा। जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार करना होगा।
तुम दोनों की परवरिश दो अलग अलग घर में हुई है, तो विचार, आदतें, मान्यतायें और चीज़ों को देखने और करने का तरीका भिन्न भिन्न होगा ही। अर्थात तुम दोनों के मेमोरी कार्ड में अलग अलग गाने (सँस्कार) भरे हैं जब भी प्ले(बोलोगे या कुछ करोगे) तो वही बजेगा। अब तुम चाहते हो मेरे अंदर वाला गाना(सँस्कार) दूसरे के अंदर बजे(दिखे), जो कि संभव ही नहीं है। अतः जो जैसा है उसे वैसा स्वीकारो।
बैठकर समझदारों की तरह एक दूसरे को समझने और समझाने की कोशिश करोगे तो झगड़ा होगा ही नहीं। इस संसार में परफेक्ट कोई नहीं है, आधी ग्लास भरी है और आधी ग्लास खाली है। जब जब ख़ाली भाग पर ध्यान केंद्रित करोगे नित्य लड़ोगे। जैसे ही भरे भाग पर ध्यान केंद्रित करोगे प्रशन्न रहोगे।
*प्रेम से गोद मे लिया 10 किलो का बच्चा माता-पिता को भार नहीं लगता, लेक़िन बिना प्रेम के 10 किलो का अन्य सामान भार लगता है। प्रेम बरक़रार रखोगे तो विवाह का यह बन्धन और एडजस्टमेंट भार नहीं लगेगा। प्रेम के अभाव में यही भार स्वरूप हो जाएगा।*
*जो लोग लिव इन रिलेशनशिप की डिमांड करते है और विवाह से बचते है वो वास्तव में प्रेम नहीं करते, केवल शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम तलाशते है।*
अब एक नया समझदारी का चश्मा आंख में लगाओ, इसे लगा के जब भी एक दूसरे को देखो तो आत्मियता से देखो, और भगवान से प्रार्थना करो कि हम दोनों को सद्बुद्धि मिले। हम दोनों मित्रवत रहें, हम दोनों स्वस्थ रहें, हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करें, हम दोनों एक दूसरे का सम्मान करें, एक दूसरे को समझें।
*नोट:-* दुनियाँ में जितनी भी प्रेम कहानियां लैला-मजनू की तरह फेमस हैं, सब के सब अविवाहित ही थे। विवाह हो जाता और घर गृहस्थी बस जाती तो उनका प्रेम भी अमर न हो पाता। कुछ देर मिलने में और हमेशा गृहस्थी में साथ रहने में फर्क होता है। प्रेम के लिए जुनून काफ़ी है, और गृहस्थी के लिए असीमित धैर्य और समझदारी चाहिए।
गायत्री मंत्र जप, ध्यान और स्वाध्याय को करने से समझदारी विकसित होती है।
कुछ युगऋषि की पुस्तक पढ़ो और उनके सूत्र अपनाओ:-
1- गृहस्थ एक तपोवन
2- मित्रता बढ़ाने की कला
3- भाव सम्वेदना की गंगोत्री
4- दृष्टिकोण ठीक रखें
5- जीवन जीने की कला
6- प्रबन्धव्यवस्था एक विभूति एक कौशल
7- व्यवस्था बुद्धि की गरिमा
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - मेरे आत्मीय *** बहन और *** भाई, झगड़े के उपचार से पहले झगड़े की जड़ समझते हैं।
शादी से पहले तुम कुछ समय के लिए मिलते थे, उद्देश्य क्लियर था क्यों मिलने आये हो और टाइम फिक्स था, थोड़ा था। लंबे इंतजार के बाद किसी भी तरह एक दूसरे को पाने की लालसा थी। एक दूसरे को प्रेम के रंगीन चश्में से देखते थे, केवल एक दूसरे की अच्छाई देख रहे थे।
शादी के बाद, एक दूसरे को मिल गए हो। उद्देश्य पूरा हो गया, अब इंतज़ार मिलने के लिए नहीं करना पड़ता, और नया कोई गोल/लक्ष्य अभी बना नहीं है। अब हक़ीक़त के चश्मे से एक दूसरे की अच्छाई के साथ बुराई भी दिख रही है। पूरा समय एक दूसरे के साथ हो, तो कुछ भी छिपा नहीं।
*अब एक उदाहरण से समझो*:- रोज़ एक ट्रेन से तुम सफ़र करते थे जिस बोगी में तुम थे उसमें दो चेयर थी। दूसरी चेयर हमेशा ख़ाली होती थी, जिसमे तुम लैपटॉप बैग, मोबाइल पर्स, मैगजीन और कोट रख देते थे। तुम उतरते अपने प्रेमी से मिलते और लौट जाते, इसी तरह वो भी दूसरी गाड़ी से लौट जाता जहां उसकी बगल की सीट भी खाली थी। उससे कहते काश तुम भी मुझे ज्वाइन कर लो सफर में बड़ा आनन्द आएगा, अकेला बोर हो जाता हूँ। कुछ महीनों बाद वो तैयार हो गया, तुम्हारे बगल की सीट में बैठ गया। तुमने अपने सामान सारे गोद में रख लिए और उसने अपने सारे सामन गोद में रख लिए। बातें मीठी मीठी की, बोरियत मिट गई। लेकिन कुछ देर बाद पुरानी आदत ने तुम्हे परेशान किया कि काश सीट खाली होती और समान तुम रख पाते फैल के चौड़ा हो के सो पाते। ऐसा नहीं कि तुम अपने सहयात्री से प्रेम नहीं करते लेकिन तुम पुरानी आजादी और ऐशो आराम चाहते हो। खाली वाली सीट पहले भी तुम्हारी नहीं थी और अब भी नहीं है। तुम ने बिना मूल्य दिए उस चेयर का उपयोग कर रहे थे क्योंकि रिज़र्वेशन किया यात्री आया नहीं था। अब यह बगल वाली सीट का सहयात्री तुम्हारी मर्जी यानि लव मैरिज वाला हो या अरेंज मैरिज। यह समान रखने वाली असुविधा तो होगी ही। अब कोई यह चाहे कि सामने वाला उसका सामान भी उठा कर बैठे तो भी ज्यादती है। आनंदमय जीवन के सफर हेतु एक दूजे की मदद करना होगा, थोड़ा एडजस्ट करना होगा। जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार करना होगा।
तुम दोनों की परवरिश दो अलग अलग घर में हुई है, तो विचार, आदतें, मान्यतायें और चीज़ों को देखने और करने का तरीका भिन्न भिन्न होगा ही। अर्थात तुम दोनों के मेमोरी कार्ड में अलग अलग गाने (सँस्कार) भरे हैं जब भी प्ले(बोलोगे या कुछ करोगे) तो वही बजेगा। अब तुम चाहते हो मेरे अंदर वाला गाना(सँस्कार) दूसरे के अंदर बजे(दिखे), जो कि संभव ही नहीं है। अतः जो जैसा है उसे वैसा स्वीकारो।
बैठकर समझदारों की तरह एक दूसरे को समझने और समझाने की कोशिश करोगे तो झगड़ा होगा ही नहीं। इस संसार में परफेक्ट कोई नहीं है, आधी ग्लास भरी है और आधी ग्लास खाली है। जब जब ख़ाली भाग पर ध्यान केंद्रित करोगे नित्य लड़ोगे। जैसे ही भरे भाग पर ध्यान केंद्रित करोगे प्रशन्न रहोगे।
*प्रेम से गोद मे लिया 10 किलो का बच्चा माता-पिता को भार नहीं लगता, लेक़िन बिना प्रेम के 10 किलो का अन्य सामान भार लगता है। प्रेम बरक़रार रखोगे तो विवाह का यह बन्धन और एडजस्टमेंट भार नहीं लगेगा। प्रेम के अभाव में यही भार स्वरूप हो जाएगा।*
*जो लोग लिव इन रिलेशनशिप की डिमांड करते है और विवाह से बचते है वो वास्तव में प्रेम नहीं करते, केवल शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम तलाशते है।*
अब एक नया समझदारी का चश्मा आंख में लगाओ, इसे लगा के जब भी एक दूसरे को देखो तो आत्मियता से देखो, और भगवान से प्रार्थना करो कि हम दोनों को सद्बुद्धि मिले। हम दोनों मित्रवत रहें, हम दोनों स्वस्थ रहें, हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करें, हम दोनों एक दूसरे का सम्मान करें, एक दूसरे को समझें।
*नोट:-* दुनियाँ में जितनी भी प्रेम कहानियां लैला-मजनू की तरह फेमस हैं, सब के सब अविवाहित ही थे। विवाह हो जाता और घर गृहस्थी बस जाती तो उनका प्रेम भी अमर न हो पाता। कुछ देर मिलने में और हमेशा गृहस्थी में साथ रहने में फर्क होता है। प्रेम के लिए जुनून काफ़ी है, और गृहस्थी के लिए असीमित धैर्य और समझदारी चाहिए।
गायत्री मंत्र जप, ध्यान और स्वाध्याय को करने से समझदारी विकसित होती है।
कुछ युगऋषि की पुस्तक पढ़ो और उनके सूत्र अपनाओ:-
1- गृहस्थ एक तपोवन
2- मित्रता बढ़ाने की कला
3- भाव सम्वेदना की गंगोत्री
4- दृष्टिकोण ठीक रखें
5- जीवन जीने की कला
6- प्रबन्धव्यवस्था एक विभूति एक कौशल
7- व्यवस्था बुद्धि की गरिमा
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
विवाह पूर्व और पश्चात केवल मात्र जो परिवर्तन हुआ है वो इतना सा है कि पहले समर्पण भाव था,अस्तित्व की शून्यता थी,स्वयं के अस्तित्व को शून्य कर अपने साथी के अस्तित्व में स्वयं को समाहित करने की चाह थी।यही अस्तित्व की शून्यता ईश्वरीय आनंद की मोक्ष की एक झलक होती है।इसी आनंद में विकारों के होते हुए भी निर्विकार भाव का जन्म होता है उसी से जीवन मे कुछ भी कर गुजरने की शक्ति प्राप्त होती है।समर्पण का भाव ही वास्तविक आनंद को देने वाला है।
ReplyDeleteविवाह पश्चात यही समर्पण,अस्तित्व की शून्यता विपरीत हो जाती है,पहले स्वयं को शून्य कर साथी में स्थित होने का भाव था वो अब साथी के शून्य हो स्वयं में स्थित होने के भाव मे बदल जाता है।सांसारिक क्रियाकलाप संस्कृति में आवश्यक विधानों से ओतप्रोत यह विवाह जीवन अब माया जनित संसार का भाग बन जाता है जो कभी अस्तित्व की हीनता के कारण माया से परे प्रेम आनंदित हुआ करता था।अतः वास्तविकता में अब भी स्वयं का लोप कर के साथी के अस्तित्व में समाहित होकर जीवन जीने की चाह जाग्रत करो तो यह जीवन फिर स्थायी आनंद में बदल जायेगा।
संसार नश्वर है यह जान कर इसके सभी मोहपाशो से विमुक्त हो कर साक्षी भाव से इसे जियो।नर नारी जब विवाह संस्कार से पति पत्नी रूप में आते है तो यह शिव और शक्ति का ही रूप होता है,अपने अंदर शिव और अपनी संगनी में शिवा को जाग्रत करो।
सपत्नीक रूप से सप्तचक्र जाग्रति हेतु ध्यान करो आपका जीवन अमृत है समझ जाओगे।
जय महाकाल।