प्रश्न - *अपना तेजोवलय(औरा एवं आत्मबल कैसे बढ़ाएं?*
उत्तर - आत्मीय भाई, जिस प्रकार धनी बनने के लिए पहला हमें उपार्जन/कमाई बढ़ाना होता है और दूसरा अनावश्यक ख़र्च/धन का ह्रास नियंत्रित करना होता है। ठीक इसी तरह तेजोवलय एवं आत्मबल के लिए उपासना-साधना द्वारा प्राणऊर्जा कमानी होगी और आवश्यक प्राणऊर्जा का ह्रास(ख़र्च) रोकने के लिए चित्त वृत्तियों को नियंत्रण में करना होगा।
अध्यात्म विज्ञान के अनुसार जिस व्यक्ति में जीवनी शक्ति, जिस अनुपात में घटती जाती है, वह उतना ही दीन−दुर्बल बनता जाता है। सबसे अधिक रोग−शोक ऐसे ही लोगों को सताते हैं। उत्तेजना और उन्माद इन्हीं में सर्वाधिक देखे जाते हैं। शरीर बाहर से फूला दीख पड़ने पर भी उस विद्युत का अभाव होता है, जिसे ‘जीवट’ कहा गया है। ऐसी दशा में उससे न तो कोई कहने लायक काम बन पड़ता है, न किसी में पूर्ण सफलता मिल पाती है। यदा−कदा मिलती भी है, तो वह ऐसी अधूरी और अधकचरी होती है, जिससे असंतोष ही बढ़ता है। आत्मबल और मनोबल इस कदर घट जाते हैं, कि कोई श्रेष्ठ कार्य करने का साहस नहीं जुट पाता और कर्ता निरन्तर पतनोन्मुख बनता जाता है।
👉🏼 *तेजोवलय एवं आत्मबल बढ़ाने हेतु प्राणऊर्जा कमाने के दो तरीके हैं*−
👉🏼 *उपासना और साधना*।
उपासना के दौरान गायत्री जप और उगते हुए सूर्य के ध्यान के माध्यम से हम सविता इष्ट से प्राण−ऊर्जा ग्रहण−धारण करने की प्रबल भावना करते हैं। हममें प्राण ऊर्जा प्रवेश करने लगती है। हम प्राणवान बनने लगते हैं।
👉🏼और साधना के माध्यम से उन तत्वों को नष्ट−भ्रष्ट करना, जो प्राण−संचय में विघ्न−उपस्थित करते और उसके भण्डार को निरन्तर खाली करते रहते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि ऐसे ही अवाँछनीय तत्व हैं, जो हमारे शरीर चुम्बकत्व को−जीवनी शक्ति को लगातार घटाते रहते हैं। हम साधना(योग- प्राणायाम, स्वाध्याय, सत्संग, भजन, समर्पण, आत्मशोधन) के माध्यम से हम प्राण ऊर्जा के संचय हेतु अपनी योग्यता-पात्रता बढ़ाते हैं।
यदि इस प्राणऊर्जा को बढ़ाया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि हमारी शारीरिक−मानसिक स्वस्थता न बढ़ सके हम अक्षुण्ण स्वास्थ्य न प्राप्त कर सकें। तेजोवलय और आत्मबल से स्वयं को परिपूर्ण बना सकते हैं।
*तेजोवलय एवं आत्मबल के ह्रास(घटने) को रोकने के दो तरीके हैं*- 👉🏼 *पहला चित्तवृत्तियों को रोकना और दूसरा श्रेष्ठ चिंतन करना*|
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यदि मनुष्य अपने मन में उठने वाली अनेक प्रकार की कामनाओं और वासनाओं को रोक लेता है और उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं अपनी इच्छा से उस तरह कर सकता है जिस प्रकार सारथी रथ में जुते हुए घोड़ों को तो वह निश्चय ही अपनी शक्तियों का ऊर्ध्वगामी विकास करके परमात्मा की उपलब्धि कर सकता है।
*अर्जुन जैसा महारथी कृष्ण भगवान से कहता है, भगवान! यह मन बड़ा चंचल है॥ मस्तिष्क को मथ डालता है, यह बहुत दृढ़ और शक्तिशाली है। इसलिये इसको वश में करना वायु की तरह बहुत कठिन है। तब भगवान कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य से मन पर नियंत्रण संभव है।*
👉🏼 *मन को नियंत्रित करने की मनोवैज्ञानिक अभ्यास की सर्वोपयोगी दो विधियाँ है*
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पहला अभ्यास सर्वप्रथम किसी समतल और कोलाहल रहित शांत स्थान में कोई वस्त्र बिछाकर सीधे चित्त लेट जाना चाहिये। ध्यान रहे दोनोँ पैर सीधे मिलाकर रखे जाय। साथ ही दोनों हाथ सीने के ऊपर हों। इसके पश्चात शरीर को निश्चेष्ट एवं बिलकुल शिथिल छोड़ दिया जाय और प्रगाढ़ भावना की जाय कि मानो प्राण शरीर में से निकलकर प्रकाश के एक गोले की तरह हवा में स्थिर हो गया है और शरीर मृत अवस्था में बेकार पड़ा है। अब यही बात प्रत्येक अंग अवयव के बारे में ध्यान पूर्वक सोची जाय कि कल तक यही आंखें अच्छी अच्छी वस्तुयें देखने का हठ करती थी। अब आज क्यों नहीं देखती और यह मुख जो बढ़िया बढ़िया स्वादिष्ट वस्तुयें खाने को माँगता था, कैसा बेकार पड़ा है।
नाक, आँख, मुंह, कंठ, छाती, हाथ, पैर सहित उन सभी अंगों को बार बार ध्यान पूर्वक देखा जाय जिनमें कफ, थूक, माँस-मज्जा मल-मूत्र के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं रह गया है। यथार्थ वस्तु जो कि आत्म चेतना थी वह तो अभी भी मेरे ही साथ है क्या मैंने इस शरीर के लिये ही अपने इस प्रकाश शरीर को आत्मा को भुला दिया था? क्या अब तक इसी शरीर के लिये जो पाप कर रहा था, वह उचित था? आदि ऐसे अनेक प्रश्न मन में उठाये जा सकते जिससे साँसारिक भाव नष्ट हो और मन यह मानने को विवश हो जाय कि हम अब तक भूल में थे। वस्तुतः मनुष्य का यथार्थ जीवन शरीर नहीं आत्मा है।
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दूसरा अभ्यास इसमें किसी शांत एकान्त स्थान में कुश आदि का कोई पवित्र आसन बिछाकर ध्यान मुद्रा में बैठना पड़ता है। आसन सदैव समतल स्थान पर बिछाया जाता है। ऊंचा नीचा होने पर शरीर को कष्ट होगा और ध्यान नहीं जमेगा। ध्यान मुद्रा का आरंभ शरीर, सिर एवं ग्रीवा को सीधा रखकर अध खुले नेत्रों से नासिका के अगले भाग को देखने से होता है। दृष्टि और मन कहीं दूसरी ओर न जाय इस ओर विशेष ध्यान रखना पड़ता है यदि जाता है तो उसे बार-बार अपने मूल अभ्यास की याद दिलाकर एकाग्र किया जाता है।
जब मन शांत हो जाय तब भावनापूर्वक ध्यान किया जाय कि मैं प्रकाश के एक कण तारा या जुगनूँ की तरह हूँ और नीले आकाश में घूम रहा हूं। सूर्य की तरह का इससे भी हजारों गुना बड़ा और तेज चमक वाला एक प्रकाश पिण्ड आकाश में दिखाई दे रहा है। उसी की प्रकाश किरणें फूटकर निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त हो रही है। हजारों सूर्य उसके आस पास चक्कर काट रहे है। मैं जो अभी तक एक लघु प्रकाश कण के रूप में अशक्त अज्ञानग्रस्त और सीमाबद्ध पड़ा था अब धीरे धीरे उस परम प्रकाश पुँज में हवन हो रहा है। अब मैं रह ही नहीं गया या तो करोड़ों अरबों किलोमीटर के विस्तार वाला गहरा नीला आकाश है या फिर वही दिव्य प्रकाश जिसमें घुलकर मैं अपने आप को सर्वव्यापी सर्वदर्शी सर्वज्ञ और सर्व समर्थ अनुभव कर रहा है।
🙏🏻यह दोनों ही अभ्यास चित्तवृत्तियों को रोकने और वैराग्य तथा ईश्वर प्राप्ति की कामना को बढ़ाने में बहुत ही सहायक सिद्ध हो सकते है। भावप्रवणता की गहराई में प्रवेश करने पर थोड़े दिनों के अभ्यास से ही उसके प्रतिफल सामने आने लगते है। अपनी सुविधानुसार कोई भी व्यक्ति इन साधनाओं का अभ्यास कर सकता है और अध्यात्म साधना की दिशा में वाँछित प्रगति कर सकता है।
व्रत उपवास सङ्कल्प बल बढाते है, औऱ संकल्पबल आत्मबल में वृद्धि करता है।
गायत्री मन्त्रलेखन भी प्राणऊर्जा उपार्जन और मन को नियंत्रण करने में सहायक है।
👉🏼 यदि घर में मन को उपासना-साधना में अभ्यस्त करने और चित्त वृत्तियों को नियंत्रित करने में असुविधा हो रही हो तो गायत्री के दिव्य तीर्थ में 9 दिन का सत्र कर लें। मन अभ्यस्त हो जायेगा और घर पर फिंर साधना होने लग जायेगी।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, जिस प्रकार धनी बनने के लिए पहला हमें उपार्जन/कमाई बढ़ाना होता है और दूसरा अनावश्यक ख़र्च/धन का ह्रास नियंत्रित करना होता है। ठीक इसी तरह तेजोवलय एवं आत्मबल के लिए उपासना-साधना द्वारा प्राणऊर्जा कमानी होगी और आवश्यक प्राणऊर्जा का ह्रास(ख़र्च) रोकने के लिए चित्त वृत्तियों को नियंत्रण में करना होगा।
अध्यात्म विज्ञान के अनुसार जिस व्यक्ति में जीवनी शक्ति, जिस अनुपात में घटती जाती है, वह उतना ही दीन−दुर्बल बनता जाता है। सबसे अधिक रोग−शोक ऐसे ही लोगों को सताते हैं। उत्तेजना और उन्माद इन्हीं में सर्वाधिक देखे जाते हैं। शरीर बाहर से फूला दीख पड़ने पर भी उस विद्युत का अभाव होता है, जिसे ‘जीवट’ कहा गया है। ऐसी दशा में उससे न तो कोई कहने लायक काम बन पड़ता है, न किसी में पूर्ण सफलता मिल पाती है। यदा−कदा मिलती भी है, तो वह ऐसी अधूरी और अधकचरी होती है, जिससे असंतोष ही बढ़ता है। आत्मबल और मनोबल इस कदर घट जाते हैं, कि कोई श्रेष्ठ कार्य करने का साहस नहीं जुट पाता और कर्ता निरन्तर पतनोन्मुख बनता जाता है।
👉🏼 *तेजोवलय एवं आत्मबल बढ़ाने हेतु प्राणऊर्जा कमाने के दो तरीके हैं*−
👉🏼 *उपासना और साधना*।
उपासना के दौरान गायत्री जप और उगते हुए सूर्य के ध्यान के माध्यम से हम सविता इष्ट से प्राण−ऊर्जा ग्रहण−धारण करने की प्रबल भावना करते हैं। हममें प्राण ऊर्जा प्रवेश करने लगती है। हम प्राणवान बनने लगते हैं।
👉🏼और साधना के माध्यम से उन तत्वों को नष्ट−भ्रष्ट करना, जो प्राण−संचय में विघ्न−उपस्थित करते और उसके भण्डार को निरन्तर खाली करते रहते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि ऐसे ही अवाँछनीय तत्व हैं, जो हमारे शरीर चुम्बकत्व को−जीवनी शक्ति को लगातार घटाते रहते हैं। हम साधना(योग- प्राणायाम, स्वाध्याय, सत्संग, भजन, समर्पण, आत्मशोधन) के माध्यम से हम प्राण ऊर्जा के संचय हेतु अपनी योग्यता-पात्रता बढ़ाते हैं।
यदि इस प्राणऊर्जा को बढ़ाया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि हमारी शारीरिक−मानसिक स्वस्थता न बढ़ सके हम अक्षुण्ण स्वास्थ्य न प्राप्त कर सकें। तेजोवलय और आत्मबल से स्वयं को परिपूर्ण बना सकते हैं।
*तेजोवलय एवं आत्मबल के ह्रास(घटने) को रोकने के दो तरीके हैं*- 👉🏼 *पहला चित्तवृत्तियों को रोकना और दूसरा श्रेष्ठ चिंतन करना*|
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यदि मनुष्य अपने मन में उठने वाली अनेक प्रकार की कामनाओं और वासनाओं को रोक लेता है और उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं अपनी इच्छा से उस तरह कर सकता है जिस प्रकार सारथी रथ में जुते हुए घोड़ों को तो वह निश्चय ही अपनी शक्तियों का ऊर्ध्वगामी विकास करके परमात्मा की उपलब्धि कर सकता है।
*अर्जुन जैसा महारथी कृष्ण भगवान से कहता है, भगवान! यह मन बड़ा चंचल है॥ मस्तिष्क को मथ डालता है, यह बहुत दृढ़ और शक्तिशाली है। इसलिये इसको वश में करना वायु की तरह बहुत कठिन है। तब भगवान कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य से मन पर नियंत्रण संभव है।*
👉🏼 *मन को नियंत्रित करने की मनोवैज्ञानिक अभ्यास की सर्वोपयोगी दो विधियाँ है*
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पहला अभ्यास सर्वप्रथम किसी समतल और कोलाहल रहित शांत स्थान में कोई वस्त्र बिछाकर सीधे चित्त लेट जाना चाहिये। ध्यान रहे दोनोँ पैर सीधे मिलाकर रखे जाय। साथ ही दोनों हाथ सीने के ऊपर हों। इसके पश्चात शरीर को निश्चेष्ट एवं बिलकुल शिथिल छोड़ दिया जाय और प्रगाढ़ भावना की जाय कि मानो प्राण शरीर में से निकलकर प्रकाश के एक गोले की तरह हवा में स्थिर हो गया है और शरीर मृत अवस्था में बेकार पड़ा है। अब यही बात प्रत्येक अंग अवयव के बारे में ध्यान पूर्वक सोची जाय कि कल तक यही आंखें अच्छी अच्छी वस्तुयें देखने का हठ करती थी। अब आज क्यों नहीं देखती और यह मुख जो बढ़िया बढ़िया स्वादिष्ट वस्तुयें खाने को माँगता था, कैसा बेकार पड़ा है।
नाक, आँख, मुंह, कंठ, छाती, हाथ, पैर सहित उन सभी अंगों को बार बार ध्यान पूर्वक देखा जाय जिनमें कफ, थूक, माँस-मज्जा मल-मूत्र के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं रह गया है। यथार्थ वस्तु जो कि आत्म चेतना थी वह तो अभी भी मेरे ही साथ है क्या मैंने इस शरीर के लिये ही अपने इस प्रकाश शरीर को आत्मा को भुला दिया था? क्या अब तक इसी शरीर के लिये जो पाप कर रहा था, वह उचित था? आदि ऐसे अनेक प्रश्न मन में उठाये जा सकते जिससे साँसारिक भाव नष्ट हो और मन यह मानने को विवश हो जाय कि हम अब तक भूल में थे। वस्तुतः मनुष्य का यथार्थ जीवन शरीर नहीं आत्मा है।
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दूसरा अभ्यास इसमें किसी शांत एकान्त स्थान में कुश आदि का कोई पवित्र आसन बिछाकर ध्यान मुद्रा में बैठना पड़ता है। आसन सदैव समतल स्थान पर बिछाया जाता है। ऊंचा नीचा होने पर शरीर को कष्ट होगा और ध्यान नहीं जमेगा। ध्यान मुद्रा का आरंभ शरीर, सिर एवं ग्रीवा को सीधा रखकर अध खुले नेत्रों से नासिका के अगले भाग को देखने से होता है। दृष्टि और मन कहीं दूसरी ओर न जाय इस ओर विशेष ध्यान रखना पड़ता है यदि जाता है तो उसे बार-बार अपने मूल अभ्यास की याद दिलाकर एकाग्र किया जाता है।
जब मन शांत हो जाय तब भावनापूर्वक ध्यान किया जाय कि मैं प्रकाश के एक कण तारा या जुगनूँ की तरह हूँ और नीले आकाश में घूम रहा हूं। सूर्य की तरह का इससे भी हजारों गुना बड़ा और तेज चमक वाला एक प्रकाश पिण्ड आकाश में दिखाई दे रहा है। उसी की प्रकाश किरणें फूटकर निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त हो रही है। हजारों सूर्य उसके आस पास चक्कर काट रहे है। मैं जो अभी तक एक लघु प्रकाश कण के रूप में अशक्त अज्ञानग्रस्त और सीमाबद्ध पड़ा था अब धीरे धीरे उस परम प्रकाश पुँज में हवन हो रहा है। अब मैं रह ही नहीं गया या तो करोड़ों अरबों किलोमीटर के विस्तार वाला गहरा नीला आकाश है या फिर वही दिव्य प्रकाश जिसमें घुलकर मैं अपने आप को सर्वव्यापी सर्वदर्शी सर्वज्ञ और सर्व समर्थ अनुभव कर रहा है।
🙏🏻यह दोनों ही अभ्यास चित्तवृत्तियों को रोकने और वैराग्य तथा ईश्वर प्राप्ति की कामना को बढ़ाने में बहुत ही सहायक सिद्ध हो सकते है। भावप्रवणता की गहराई में प्रवेश करने पर थोड़े दिनों के अभ्यास से ही उसके प्रतिफल सामने आने लगते है। अपनी सुविधानुसार कोई भी व्यक्ति इन साधनाओं का अभ्यास कर सकता है और अध्यात्म साधना की दिशा में वाँछित प्रगति कर सकता है।
व्रत उपवास सङ्कल्प बल बढाते है, औऱ संकल्पबल आत्मबल में वृद्धि करता है।
गायत्री मन्त्रलेखन भी प्राणऊर्जा उपार्जन और मन को नियंत्रण करने में सहायक है।
👉🏼 यदि घर में मन को उपासना-साधना में अभ्यस्त करने और चित्त वृत्तियों को नियंत्रित करने में असुविधा हो रही हो तो गायत्री के दिव्य तीर्थ में 9 दिन का सत्र कर लें। मन अभ्यस्त हो जायेगा और घर पर फिंर साधना होने लग जायेगी।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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