प्रश्न - *अध्यात्म में प्रयुक्त मुख्य शब्द कौन कौन से हैं? कृपया उन प्रयुक्त शब्दों की संक्षिप्त परिभाषा दे दीजिए।*
उत्तर- आत्मीय बहन, वैसे तो अध्यात्म में कई शब्द प्रचलित हैं, हम मुख्य निम्नलिखित शब्दो को आपकी सुविधा के लिए परिभाषित कर रहे हैं:-
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*उपासना*- उपासना परमात्मा की प्राप्ति का साधनविशेष उपक्रम। 'उपासना' का शब्दार्थ है - 'अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)'। ईश्वर के प्रति समर्पण और
ईश्वरीय गुणों को धारण करना, और इसके लिए नित्य जप एवं ध्यान करना। उपासना ईश्वर की होती है।
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*साधना* - का शाब्दिक अर्थ है, 'किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला अभ्यास कार्य'। किन्तु वस्तुतः यह एक आध्यात्मिक अभ्यास शारिरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। धार्मिक और आध्यात्मिक ईश्वरीय अनुशासन में चलने हेतु स्वयं को साध लेना, तपा लेना, योग्य बनाना जैसे कि योग , स्वाध्याय, उपवास और तपस्या के करने को साधना कहते हैं। अनुरुद्ध प्रगति के लिए स्वयं को साधने का उपक्रम प्रतिदिन करना चाहिए। साधना स्वयं की होती है।
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*आराधना* - देवताओं जैसा कार्य करना। समाज सेवा एवं लोककल्याण करना। क़ण कण में परमात्मा की उपस्थिति का अहसास करते हुए उसकी सेवा में जुटना। भाव संवेदना जगाना और आत्मियता विस्तार करना। युग पीड़ा एवं पतन निवारण में जुटना, युगनिर्माण में अहम भूमिका निभाना ही आराधना है। आराधना करने हेतु समयदान, प्रतिभादान एवं अंशदान संभव है।
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*आत्मबोध* का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। Self realization. स्वयं के अस्तित्व को समझने के लिए और स्वयं को व्यवस्थित बनाने के लिए आत्मबोध साधना की जाती है।आत्म-बोध का अर्थ है अपने उद्गम, स्वरूप, उत्तरदायित्व एवं लक्ष्य को समझना, तद्नुरूप दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण करना।
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*तत्वबोध* तत्त्व बोध का अर्थ है शरीर उसके उपयोग एवं अन्त के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति से परिचित होना। साँसारिक पदार्थों एवं सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए सम्बन्धों में घुसी हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना तथा इनके सम्बन्ध में बरती जाने वाली नीति का नये सिरे से मूल्यांकन आत्म-बोध ओर उसके काम आने वाले पदार्थों एवं प्राणियों के साथ उचित तालमेल बिठाने को तत्त्वबोध कहते हैं।
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*अनुष्ठान* - किसी विशेष उद्देश्य हेतु नियमपूर्वक निश्चित अवधि में निश्चित विधिविधान अनुसार की जाने वाली साधना। मंन्त्र का जप जब लाख से कम होता है तो वो अनुष्ठान की श्रेणी में गिना जाता है।
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*पुरश्चरण* - किसी कार्य की सिद्धि के लिए पहले से ही उपाय सोचना और फिंर उसका अनुष्ठान करना। किसी काम की पहले से की जानेवाली तैयारी। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियम और विधान पूर्वक कुछ निश्चित समय तक किया जानेवाला आध्यात्मिक चरणवद्ध उपक्रम।
"पुरश्चरण" के पांच अंग होते हैं-
१. जप २. हवन ३. तर्पण ४. मार्जन ५. ब्राह्मण भोज
किसी भी मन्त्र का पुरश्चरण उस मन्त्र की वर्ण संख्या को लक्षगुणित कर जपने पर पूर्ण माना जाता है, मंन्त्र का जप जब लाख संख्या से अधिक होगा तब ही वह पुरश्चरण की श्रेणी में आता है। "पुरश्चरण" में जप संख्या निर्धारित मन्त्र के अक्षरों की संख्या पर निर्भर करती है|
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*मंन्त्र* - मन को चयनित तंत्र(विधिव्यवस्था) में लाने का नाम मंन्त्र है। जैसा मंन्त्र हम इष्ट आराध्य का जपते हैं, उस देवता के गुणों को मन धारण करता है और तन्मयता एवं तद्रूपता स्थापित करता है। मंन्त्र एक ऐसी ध्वनि का संग्रह है तो लयबद्ध, क्रमबद्ध होती है जिसे जपने से वृत्ताकार ऊर्जा तरंग उतपन्न होती है। जो मंन्त्र में जपे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ब्रह्माण्ड से शक्ति को आकर्षित करती है और साधक में उस शक्तिधारा को आरोपित करती है।
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*मंन्त्र सिद्धि* - मंन्त्र में वर्ण की कुल संख्या में लाख का गुणा कीजिये। उतनी संख्या के मंन्त्र का पुरश्चरण उस मंत्र की सिद्धि में सहायक होगा। उदाहरण- गायत्री मंत्र में मुख्य 24 वर्ण है, अतः कम से कम 24 लाख मंन्त्र जप पर ही इसकी सिद्धि होगी। गुरूकृपा से मंन्त्र कभी भी सिद्ध हो सकता है।
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*मंन्त्र जप* - मनोमय कोश की स्थिति, शुद्धि एवं एकाग्रता के लिए जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। मंन्त्र में प्राण गुरु दीक्षा से मिलता है। गुरु धारण अनिवार्य है। शास्त्रानुसार यदि उचित स्थान, उचित समय, उचित संख्या व उचित रीति से मंत्र जाप किया जाता है, तब ही मंन्त्र जप फ़लित होता है।
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*मंन्त्र जप गुरूदेव की आवाज के साथ साथ* - सद्गुरु की आवाज़ के साथ सद्गुरु का ध्यान करते हुए गुरु चेतना के साथ तन्मयता व तादात्म्य बनाकर जप करने से मंन्त्र जप हज़ार गुना फल देता है।
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*मंन्त्र जप माताजी की आवाज के साथ साथ* - सद्गुरु की अर्धांगिनी माताजी होती हैं, गुरुदेव के ही समक्ष होती हैं। माताजी की आवाज़ के साथ माताजी का ध्यान करते हुए माताजी की चेतना के साथ तन्मयता व तादात्म्य बनाकर जप करने से भी मंन्त्र का जप हज़ार गुना ही फल देता है।
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*ध्यान(Meditation)* -ध्यान हिन्दू धर्म, भारत की प्राचीन शैली और विद्या के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है। ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, ईश्वर प्रणिधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना, मानसिक शक्तियों पर काबू पाना, चित्त शुद्धि जैसे कई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ध्यान किया जाता है। Where attention goes energy flows, जिस भी धारणा में ध्यान को एकाग्र करेंगे वही सिद्ध होने लगेगा। अभीष्ट पूर्ति में सहायक है।
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*पंचकोश साधना(Panchkosh Sadhana:)* -
योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं, ये ऐसे ख़ज़ाने हैं जिन्हें साध लेने पर मनुष्य आध्यात्मिक विभूतियों से भर जाता है। इन्हें साधने की प्रक्रिया को पंचकोश साधना कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
ये पाँच कोश हैं -
*अन्नमय कोश* - अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क।
*प्राणमय कोश* - प्राणों से बना।
*मनोमय कोश* - मन से बना।
*विज्ञानमय कोश* - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना।
*आनंदमय कोश* - आनन्दानुभूति से बना।
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*ज्योति अवधारण साधना* - यह अन्तः त्राटक का एक दूसरा प्रकार है। मष्तिष्क की खिड़की आंखे होती हैं, मष्तिष्क तक प्रकाश पहुंचे और वो जागृत व एक्टिवेट हो इसके लिए यह ध्यान होता है। साधक इसमें स्वयं को ज्योतिमय अनुभव करता है और परमात्मा की ज्योति से मिलन का अनुभव करता है। कुसंस्कारो का दहन एवं सुसंस्कारों का उन्नयन इस साधना से होता है। यह दीपयज्ञ का मानसिक स्वरूप है, जिसमें युगशक्ति की महाज्योति में अपनी भावना-विचारणा-साधना आदि आहुति/होम करके अनेक गुना बढ़ा रहे हैं।
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*नाद योग साधना* - अध्यात्म और विज्ञान दोनों मानता है कि यह सृष्टि ध्वनि का कम्पन मात्र से उतपन्न हुई है। ऊर्जा का स्वरूप ध्वनि है। पदार्थ को ऊर्जा में और ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है। नाद का शाब्दिक अर्थ है -१. शब्द, ध्वनि, आवाज।
संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। संगीतदर्पण में लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है। अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। अँतस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। नादयोग सुनते सुनते अन्तःस्थ नादरुपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।
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*स्वाध्याय* - स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- 'स्वयं का अध्ययन करना'। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक 'नियम' है। स्वाध्याय का अर्थ 'स्वयं अध्ययन करना' तथा स्वयं के अध्ययन में मदद के लिए वेद एवं अन्य अच्छे सद्ग्रन्थों का पाठ करना भी है।
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*यज्ञ* - यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं- १- देवपूजा(श्रेष्ठता को धारण करना), २-दान(आत्म कल्याण एवं लोककल्याण हेतु सत्कर्म), ३-संगतिकरण(संगठन में शक्ति, अच्छी सोच व भली नियत के लोगों का सामूहिक प्रयास)। मंन्त्र में दबे शक्ति श्रोतों से औषधियों के कारण जागृत करके प्रकृति को पोषण देना और सूक्ष्म संशोधन करने की प्रक्रिया है, मानव मात्र का कल्याण करने, मनुष्य के समस्त रोगों के उपचार और प्रकृति का उपचार करने में यज्ञ समर्थ है। यज्ञ से देवशक्तियों को पुष्ट किया जाता है और प्राण पर्जन्य की वर्षा होती है। यज्ञ से अभीष्ट पूर्ति संभव है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर- आत्मीय बहन, वैसे तो अध्यात्म में कई शब्द प्रचलित हैं, हम मुख्य निम्नलिखित शब्दो को आपकी सुविधा के लिए परिभाषित कर रहे हैं:-
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*उपासना*- उपासना परमात्मा की प्राप्ति का साधनविशेष उपक्रम। 'उपासना' का शब्दार्थ है - 'अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)'। ईश्वर के प्रति समर्पण और
ईश्वरीय गुणों को धारण करना, और इसके लिए नित्य जप एवं ध्यान करना। उपासना ईश्वर की होती है।
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*साधना* - का शाब्दिक अर्थ है, 'किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला अभ्यास कार्य'। किन्तु वस्तुतः यह एक आध्यात्मिक अभ्यास शारिरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। धार्मिक और आध्यात्मिक ईश्वरीय अनुशासन में चलने हेतु स्वयं को साध लेना, तपा लेना, योग्य बनाना जैसे कि योग , स्वाध्याय, उपवास और तपस्या के करने को साधना कहते हैं। अनुरुद्ध प्रगति के लिए स्वयं को साधने का उपक्रम प्रतिदिन करना चाहिए। साधना स्वयं की होती है।
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*आराधना* - देवताओं जैसा कार्य करना। समाज सेवा एवं लोककल्याण करना। क़ण कण में परमात्मा की उपस्थिति का अहसास करते हुए उसकी सेवा में जुटना। भाव संवेदना जगाना और आत्मियता विस्तार करना। युग पीड़ा एवं पतन निवारण में जुटना, युगनिर्माण में अहम भूमिका निभाना ही आराधना है। आराधना करने हेतु समयदान, प्रतिभादान एवं अंशदान संभव है।
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*आत्मबोध* का शाब्दिक अर्थ है, 'स्वयं को जानना'। Self realization. स्वयं के अस्तित्व को समझने के लिए और स्वयं को व्यवस्थित बनाने के लिए आत्मबोध साधना की जाती है।आत्म-बोध का अर्थ है अपने उद्गम, स्वरूप, उत्तरदायित्व एवं लक्ष्य को समझना, तद्नुरूप दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण करना।
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*तत्वबोध* तत्त्व बोध का अर्थ है शरीर उसके उपयोग एवं अन्त के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति से परिचित होना। साँसारिक पदार्थों एवं सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए सम्बन्धों में घुसी हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना तथा इनके सम्बन्ध में बरती जाने वाली नीति का नये सिरे से मूल्यांकन आत्म-बोध ओर उसके काम आने वाले पदार्थों एवं प्राणियों के साथ उचित तालमेल बिठाने को तत्त्वबोध कहते हैं।
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*अनुष्ठान* - किसी विशेष उद्देश्य हेतु नियमपूर्वक निश्चित अवधि में निश्चित विधिविधान अनुसार की जाने वाली साधना। मंन्त्र का जप जब लाख से कम होता है तो वो अनुष्ठान की श्रेणी में गिना जाता है।
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*पुरश्चरण* - किसी कार्य की सिद्धि के लिए पहले से ही उपाय सोचना और फिंर उसका अनुष्ठान करना। किसी काम की पहले से की जानेवाली तैयारी। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियम और विधान पूर्वक कुछ निश्चित समय तक किया जानेवाला आध्यात्मिक चरणवद्ध उपक्रम।
"पुरश्चरण" के पांच अंग होते हैं-
१. जप २. हवन ३. तर्पण ४. मार्जन ५. ब्राह्मण भोज
किसी भी मन्त्र का पुरश्चरण उस मन्त्र की वर्ण संख्या को लक्षगुणित कर जपने पर पूर्ण माना जाता है, मंन्त्र का जप जब लाख संख्या से अधिक होगा तब ही वह पुरश्चरण की श्रेणी में आता है। "पुरश्चरण" में जप संख्या निर्धारित मन्त्र के अक्षरों की संख्या पर निर्भर करती है|
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*मंन्त्र* - मन को चयनित तंत्र(विधिव्यवस्था) में लाने का नाम मंन्त्र है। जैसा मंन्त्र हम इष्ट आराध्य का जपते हैं, उस देवता के गुणों को मन धारण करता है और तन्मयता एवं तद्रूपता स्थापित करता है। मंन्त्र एक ऐसी ध्वनि का संग्रह है तो लयबद्ध, क्रमबद्ध होती है जिसे जपने से वृत्ताकार ऊर्जा तरंग उतपन्न होती है। जो मंन्त्र में जपे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ब्रह्माण्ड से शक्ति को आकर्षित करती है और साधक में उस शक्तिधारा को आरोपित करती है।
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*मंन्त्र सिद्धि* - मंन्त्र में वर्ण की कुल संख्या में लाख का गुणा कीजिये। उतनी संख्या के मंन्त्र का पुरश्चरण उस मंत्र की सिद्धि में सहायक होगा। उदाहरण- गायत्री मंत्र में मुख्य 24 वर्ण है, अतः कम से कम 24 लाख मंन्त्र जप पर ही इसकी सिद्धि होगी। गुरूकृपा से मंन्त्र कभी भी सिद्ध हो सकता है।
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*मंन्त्र जप* - मनोमय कोश की स्थिति, शुद्धि एवं एकाग्रता के लिए जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। मंन्त्र में प्राण गुरु दीक्षा से मिलता है। गुरु धारण अनिवार्य है। शास्त्रानुसार यदि उचित स्थान, उचित समय, उचित संख्या व उचित रीति से मंत्र जाप किया जाता है, तब ही मंन्त्र जप फ़लित होता है।
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*मंन्त्र जप गुरूदेव की आवाज के साथ साथ* - सद्गुरु की आवाज़ के साथ सद्गुरु का ध्यान करते हुए गुरु चेतना के साथ तन्मयता व तादात्म्य बनाकर जप करने से मंन्त्र जप हज़ार गुना फल देता है।
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*मंन्त्र जप माताजी की आवाज के साथ साथ* - सद्गुरु की अर्धांगिनी माताजी होती हैं, गुरुदेव के ही समक्ष होती हैं। माताजी की आवाज़ के साथ माताजी का ध्यान करते हुए माताजी की चेतना के साथ तन्मयता व तादात्म्य बनाकर जप करने से भी मंन्त्र का जप हज़ार गुना ही फल देता है।
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*ध्यान(Meditation)* -ध्यान हिन्दू धर्म, भारत की प्राचीन शैली और विद्या के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है। ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, ईश्वर प्रणिधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना, मानसिक शक्तियों पर काबू पाना, चित्त शुद्धि जैसे कई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ध्यान किया जाता है। Where attention goes energy flows, जिस भी धारणा में ध्यान को एकाग्र करेंगे वही सिद्ध होने लगेगा। अभीष्ट पूर्ति में सहायक है।
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*पंचकोश साधना(Panchkosh Sadhana:)* -
योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं, ये ऐसे ख़ज़ाने हैं जिन्हें साध लेने पर मनुष्य आध्यात्मिक विभूतियों से भर जाता है। इन्हें साधने की प्रक्रिया को पंचकोश साधना कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
ये पाँच कोश हैं -
*अन्नमय कोश* - अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क।
*प्राणमय कोश* - प्राणों से बना।
*मनोमय कोश* - मन से बना।
*विज्ञानमय कोश* - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना।
*आनंदमय कोश* - आनन्दानुभूति से बना।
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*ज्योति अवधारण साधना* - यह अन्तः त्राटक का एक दूसरा प्रकार है। मष्तिष्क की खिड़की आंखे होती हैं, मष्तिष्क तक प्रकाश पहुंचे और वो जागृत व एक्टिवेट हो इसके लिए यह ध्यान होता है। साधक इसमें स्वयं को ज्योतिमय अनुभव करता है और परमात्मा की ज्योति से मिलन का अनुभव करता है। कुसंस्कारो का दहन एवं सुसंस्कारों का उन्नयन इस साधना से होता है। यह दीपयज्ञ का मानसिक स्वरूप है, जिसमें युगशक्ति की महाज्योति में अपनी भावना-विचारणा-साधना आदि आहुति/होम करके अनेक गुना बढ़ा रहे हैं।
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*नाद योग साधना* - अध्यात्म और विज्ञान दोनों मानता है कि यह सृष्टि ध्वनि का कम्पन मात्र से उतपन्न हुई है। ऊर्जा का स्वरूप ध्वनि है। पदार्थ को ऊर्जा में और ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है। नाद का शाब्दिक अर्थ है -१. शब्द, ध्वनि, आवाज।
संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। संगीतदर्पण में लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है। अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। अँतस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। नादयोग सुनते सुनते अन्तःस्थ नादरुपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।
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*स्वाध्याय* - स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- 'स्वयं का अध्ययन करना'। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक 'नियम' है। स्वाध्याय का अर्थ 'स्वयं अध्ययन करना' तथा स्वयं के अध्ययन में मदद के लिए वेद एवं अन्य अच्छे सद्ग्रन्थों का पाठ करना भी है।
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*यज्ञ* - यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं- १- देवपूजा(श्रेष्ठता को धारण करना), २-दान(आत्म कल्याण एवं लोककल्याण हेतु सत्कर्म), ३-संगतिकरण(संगठन में शक्ति, अच्छी सोच व भली नियत के लोगों का सामूहिक प्रयास)। मंन्त्र में दबे शक्ति श्रोतों से औषधियों के कारण जागृत करके प्रकृति को पोषण देना और सूक्ष्म संशोधन करने की प्रक्रिया है, मानव मात्र का कल्याण करने, मनुष्य के समस्त रोगों के उपचार और प्रकृति का उपचार करने में यज्ञ समर्थ है। यज्ञ से देवशक्तियों को पुष्ट किया जाता है और प्राण पर्जन्य की वर्षा होती है। यज्ञ से अभीष्ट पूर्ति संभव है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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