Sunday 21 July 2019

प्रश्न - *संसार में और गृहस्थ जीवन में रहकर विदेह योगी जनक कैसे बनें?

प्रश्न - *संसार में और गृहस्थ जीवन में रहकर विदेह योगी जनक कैसे बनें?ऐसा कैसे हो कि रिश्तेदार लोगों के कड़वे वचन सुनकर भी हम पर असर न हो? ऑफिस की कड़वाहट को हम इग्नोर कर सकें, मन आनन्द से भरा रहे।*

उत्तर - आत्मीय बहन,

जब तक स्वयं को शरीर से जुड़ी पहचान मानोगे दुःखी व संतप्त रहोगे। जब स्वयं की आत्मा के अस्तित्व व पहचान से जुड़ोगे तब आनन्द में रहोगे। कीचड़ में कमल की तरह खिलोगे। जन्म से पहलर भी तुम थी, जब गर्भ में थी तब भी तुम थी, जब तक नामकरण नहीं हुआ तब भी तुम्हारा अस्तित्व था। फ़िर नाम से जुड़ी पहचान से झूठी पहचान से लगाव क्यों?
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*कहानी* - अष्टावक्र जी जब जनक जी के विद्वानों से भरी समाज में पहुंचे तो लोग उनका मज़ाक उड़ाकर कर हंसने लगे।

प्रतिउत्तर में अष्टावक्र जी हंसते हुए बोले लगता है क़ि मैं ग़लत सभा में आ गया, यह तो चर्मकार(चमार जो मृत जीव के चमड़े का व्यवसाय करते हैं) की सभा है। जो ज्ञान के आकाश को न देखकर बाह्य चर्म पर दृष्टि रखते हैं। बाह्य रूप को मैं समझ रहे हैं।🤣🤣🤣

जनक जी ने माफ़ी मांगी, और सम्मान से बिठाया। और सभी के समक्ष योगीराज जनक ने आत्मज्ञान प्राप्त करने की ईच्छा प्रकट की। 🙏🏻

अष्टावक्र ने कहा आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए तुम्हे मुझे गुरु रूप में स्वीकार करना पड़ेगा।  लेकिन तुम मुझे गुरु दीक्षा में क्या दोगे?🤔

जनक ने कहा- मेरा साम्राज्य, धन सम्पदा और यह शरीर जो चाहे सो ले लेवें।

अष्टावक्र ने कहा - जो तेरा नहीं है और अस्थायी है दूसरों का दिया हुआ है, साम्राज्य प्रजा का है और शरीर माता-पिता का दिया हुआ। देना चाहता है कुछ मुझे तो अपना मन दे दे। पूर्ण रूप से मुझमें ध्यानस्थ हो आत्मज्ञान सुनो।

फ़िर अष्टावक्र जी ने कहा, सत्य की ख़ोज के दो उपाय हैं।
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*उदाहरण* - कई रंग की बॉल में से यदि पीले रंग की बॉल छांटना है। तो पहला तरीका सभी प्रकार की बालों में से पीले रंग की बाल छाँट लो। या सभी अन्य रंग की बालों को हटाते जाओ जो बचेगा वही पीले रंग की बॉल होगी।

इसी तरह या तो असत्य में सत्य ढूंढ लो, या असत्य को हटाते चलो और जो बचेगा वो सत्य होगा।

आत्मा रुपी बूँद परमात्मा रुपी समुद्र का ही हिस्सा है। इन दोनों के मिलन में यह शरीर, धन-साम्राज्य और गृहस्थ की जिम्मेदारी बाधक नहीं हैं। आत्मा से परमात्मा के मिलन में चित्त-अन्तःकरण-मन की अशुद्धि और अज्ञानता बाधक है। जो हम नहीं हो हम सोचते हो हम वही है। हमने शरीर, शरीर के नाम को, शरीर की पद प्रतिष्ठा को अपनी पहचान मान रखा है।

सास या जिठानी या देवरानी की कड़वी बातें इसलिए दुःख दे रही हैं कि तुम स्वयं को उनकी बहू या जिठानी देवरानी या किसी की पत्नी की पहचान से जोड़े हुए हो। मृत्यु उन सबकी आएगी, साथ ही तुम्हारी भी आएगी। कुछ क्षण के लिए संसार के रंगमंच पर अभिनय चल रहा है। जो अस्थायी और नश्वर है। फिंर इन सबकी बातों की परवाह क्यों? इन्हें इग्नोर क्यों नहीं कर सकते? इन्हें समय परिस्थिति अनुसार केवल हैंडल करना सीखना है।
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कहानी- *एक बार संत तुकाराम से शिष्य ने पूँछा, कि जीवन कैसे जियें। वो बोले तुमने पूंछने में बहोत देर कर दी। 7 दिन में तो तुम मर जाओगे जाओ इन सात दिनों को बेहतर जियो, मृत्यु जानकर वह अपने उत्तरदायित्व को पूरा किया। अहंकार तिरोहित हो गया। सबसे प्रेम व्यवहार किया। वह शिष्य अंतिम सातवें दिन प्रणाम करने व विदा लेने तुकाराम के पास आया। संत मुस्कुराए और बोले, कैसे जिया सात दिन? तुकाराम ने कहा बेटे मृत्यु कभी भी किसी की भी आ सकती है। कोई अमर नहीं है यहां। जब मृत्यु को याद रखोगे तो शरीर के मोह में नहीं बंधोगे। बस्तुतः यही जीवन जीने की कला है। यह प्रैक्टिकल में स्वरूप में सिखाने के लिए तुम्हें यह 7 दिन की मृत्यु का झूठ बोला।*

मरने के बाद सुई तक नहीं ले जा सकते? फ़िर किस सम्पत्ति के लिए इनसे उलझें? स्वयं के निर्माण के लिए जुटे, जो कर सकते हैं अपने व परिवार के लिए कर लें। जो न हो सका इग्नोर करें। हमारी थाली की रोटी पर ध्यान केंद्रित करके खाएं, दूसरे की थाली देखने का क्या लाभ?
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*उदाहरण* - मेरी शरीरगत पहचान - मेरा नाम श्वेता चक्रवर्ती, किसी की बेटी किसी की पत्नी और किसी की माँ, किसी कम्पनी की एम्प्लाई और पद सब कुछ शरीरगत पहचान है। अध्यात्म में शरीर की पहचान का कोई अस्तित्व नहीं, शरीर जिस एनर्जी से जीवित है उस आत्मतत्व की पहचान ही सबकुछ है। मेरी मृत्यु के बाद लोग कहेंगे, श्वेता चक्रवर्ती की मृत्यु हो गयी। शरीर जला देंगे। लेक़िन जिस आत्मतत्व का अस्तित्व सदा सर्वदा के लिए है, उसका नामकरण *श्वेता चक्रवर्ती* एक झूठ नहीं तो और क्या है? शरीर से जुड़ी पहचान और रिश्ते तो चिता में जल जाएंगे? फिर न मैं किसी की बेटी रहूंगी न किसी की माता और न किसी की सम्बन्धी और न ही कोई एम्प्लॉयी। मुझे किसने क्या कहा क्या फर्क पड़ता है?

जिस दिन हम चित्त की अशुद्धि त्याग के, मन निर्मल करके, शरीरगत मोहबन्धनो के अज्ञानता को त्याग के और स्वयं को आत्म स्वरूप अनुभव कर लेते हैं। उस क्षण पर्दा हट जाता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। समस्त जग आत्मभूतेषु अनुभव होता है। जो यह अनुभूति करने लगता है कि मैं परमात्म तत्व समुद्र की एक बूँद मैं हूँ, वही समुद्र की बूँद मुझे जड़ चेतन सर्वत्र प्रतीत होती है, दिखती है। उसे फ़िर न कोई अपना दिखता है और न ही कोई पराया। सब में परमतत्व देखते और अनुभव करते हुए हम योगी की तरह जी सकते हैं, शरीर के होते हुए भी विदेह जनक की तरह अनुभव कर सकते है। परमानन्द में रम सकते हैं।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाईन इण्डिया यूथ एसोसिएशन

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