प्रश्न - *पाप का गुरु कौन है? अर्थात पाप का जन्मदाता या आदिस्रोत कौन है?*
उत्तर - आत्मीय भाई,
*भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं:-*
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।
*भावार्थ* - *काम(इच्छाएँ, वासना, कुछ पाने की चाह) क्रोध और लोभ* ये अहंकार व पाप की जड़ है, आदिस्रोत है। ये आत्मनाश के त्रिविध नरक द्वार हैं? इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।
*तुलसीदास जी कहते है:-*
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान | तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||
*भावार्थ* - तुलसीदास जी ने दया - भावसम्वेदना को धर्म की जड़ अर्थात आदिस्रोत बताया है, और अहंकार को पाप की जड़-आदिस्रोत बताया है।
दो कहानी के माध्यम से इसे प्रेक्टीकली समझते हैं:-
1- मेरी माताजी मालती तिवारी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, उनका मानना था भूखे को भोजन कराने से ज्यादा पुण्य मिलता है। मन्दिर में पंडितों को दान-दक्षिणा की जगह वो गरीबो को भोजन देने को वरीयता देती थीं। अतः प्रत्येक सप्ताह वो अन्न दान भिखारी को करती थीं। एक भिखारी को प्रत्येक सोमवार वो अन्न दान में एक किलो चावल, दाल, सब्जी वगैरह दान करती थीं। ऐसा क्रम कई महीनों तक चला। एक बार पिताजी शहर से बाहर थे और घर मे दाल खत्म हो गयी थी। अतः उस दिन उस भिखारी को केवल चावल व सब्जी दान में दी। वो भिखारी क्रोध से भर उठा और मम्मी से दाल के लिए लड़ने लगा। बात यहाँ तक पहुंच गई कि वो गाली गलौज पर उतर आया। फिंर नौकरों की मदद से उसे भगाया गया। उस भिखारी ने स्वयं क्रोध करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली, एक घर जो उसे प्रत्येक सप्ताह दान देता था वो बन्द हो गया।
इस घटना में उस भिखारी के पाप का मूल यह था कि वो लोभ से भरा हुआ आता था। उसे यह अहंकार था कि उसके कारण मेरी माताजी पुण्य कमा रही हैं। उसकी दुआ व श्राप दोनों असरकारक होंगे। नित्य दान पाने से वह स्वयं को पण्डित से कम नहीं समझ रहा था।
2- एक बार एक विद्वान पण्डित से किसी ने पूँछा *पाप का गुरु* कौन है अर्थात पाप का आदिस्रोत क्या है? समझाइए। वो बता न सके तो जगह जगह अन्य पंडितों से पूँछा। तब किसी ने उन पण्डित को बताया इस नगर की प्रधान वैश्या बहुत ज्ञानी है, उससे पूँछिए। पण्डित ने वैश्या के पास जाकर प्रश्न किया, वैश्या ने कहा इसका उत्तर तीन महीने में दूंगी। उनके ठहरने का प्रबन्ध बाहर कुछ दूरी पर कर दिया। वैश्या रोज उस पण्डित के पास जाती, सत्संग करती और उनसे ज्ञान सुनती। दक्षिणा में कुछ चांदी के सिक्के देती, साथ ही उनके ज्ञान व वैराग्य की ढेर सारी प्रसंशा वो और उसके बंदे करते थे। उन्हें सबसे बेस्ट ज्ञानी बताते। इससे पण्डित जी को महानता का अहंकार होता चला गया । यह क्रम एक से दो महीने चला। एक दिन वैश्या ने कहा यदि आप अनुमति दें तो हम नहाधोकर पवित्रता के साथ आपका भोजन बना लाया करेंगे और दक्षिणा में 5 स्वर्ण मुद्राएं देंगे। पण्डित जी स्वपाकी थे, लेक़िन स्वर्णमुद्रा के लोभ में आकर उसका भोजन खाना स्वीकार कर लिया। रोज स्वादिष्ट भोजन व नित्य 5 स्वर्ण मुद्राएं पण्डित जी को मिलने लगी।
एक दिन वैश्या ने पण्डित जी के सामने से भोजन की थाली यह कहते हुए खींच ली, कि पण्डित जी लगता है मेरे भोजन से आपका तेज नष्ट हो रहा है, अब आपके ज्ञान में वो बात नहीं रही, अतः भोजन व दक्षिणा हम दोनों बन्द कर रहे हैं। पण्डित जी आग बबूला हो गए, और वैश्या को अपशब्द बोलने लगे गए और हाथ तक उठा दिया। तभी वैश्या ने उन्हें संयत स्वर व गम्भीर वाणी में टोकते हुए बोला - अपनी वाणी को विराम दीजिये पण्डित जी, आप ही मेरे पास पाप का गुरु(मूल आदिस्रोत) जानने आये थे। इसलिए इसका प्रैक्टिकल ज्ञान करवाने के लिए यह सब मैंने किया।
आपके लोभ ने आपकी इच्छाओं को बलवती किया, हमारी प्रसंशा ने आपके अहंकार को पुष्ट किया। आज आपके लोभ और अहंकार ने आपकी सद्बुद्धि का हरण कर लिया और क्रोध को जन्म दिया। और आपको पाप करने के लिए प्रेरित कर दिया।
आप यहां क्या लेकर आये थे? और क्यों आये थे? आप मुझे ज्ञानी मानकर मेरे ज्ञान से स्वयं की जिज्ञासा का समाधान लेने आये थे। अपनी नित्य प्राप्त होती प्रसंशा ने आपने स्वयं को सर्वज्ञानी मानकर अहंकार कर लिया। मेरे दिए भोजन व दक्षिणा को दान न समझकर लोभियों की तरह उसे अपना अधिकार व हक समझ लिया। यही पाप का मूल है। पण्डित जी वैश्या के चरणों मे गिर गए और क्षमा मांगते हुए वहां से चले गए।
पण्डित जी शर्मिंदा तो थे, लेकिन उन्हें जीवन के सत्य ज्ञान की प्राप्ति का ज्ञान भी हो गया था। पाप की जड़ - लोभ, मोह व अहंकार और उससे उतपन्न क्रोध, और क्रोध से होते पाप के रहस्य बारे में जान चुके थे।
उम्मीद है आपको भी यह क्लियर हो गया होगा।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई,
*भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं:-*
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।
*भावार्थ* - *काम(इच्छाएँ, वासना, कुछ पाने की चाह) क्रोध और लोभ* ये अहंकार व पाप की जड़ है, आदिस्रोत है। ये आत्मनाश के त्रिविध नरक द्वार हैं? इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।
*तुलसीदास जी कहते है:-*
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान | तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||
*भावार्थ* - तुलसीदास जी ने दया - भावसम्वेदना को धर्म की जड़ अर्थात आदिस्रोत बताया है, और अहंकार को पाप की जड़-आदिस्रोत बताया है।
दो कहानी के माध्यम से इसे प्रेक्टीकली समझते हैं:-
1- मेरी माताजी मालती तिवारी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, उनका मानना था भूखे को भोजन कराने से ज्यादा पुण्य मिलता है। मन्दिर में पंडितों को दान-दक्षिणा की जगह वो गरीबो को भोजन देने को वरीयता देती थीं। अतः प्रत्येक सप्ताह वो अन्न दान भिखारी को करती थीं। एक भिखारी को प्रत्येक सोमवार वो अन्न दान में एक किलो चावल, दाल, सब्जी वगैरह दान करती थीं। ऐसा क्रम कई महीनों तक चला। एक बार पिताजी शहर से बाहर थे और घर मे दाल खत्म हो गयी थी। अतः उस दिन उस भिखारी को केवल चावल व सब्जी दान में दी। वो भिखारी क्रोध से भर उठा और मम्मी से दाल के लिए लड़ने लगा। बात यहाँ तक पहुंच गई कि वो गाली गलौज पर उतर आया। फिंर नौकरों की मदद से उसे भगाया गया। उस भिखारी ने स्वयं क्रोध करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली, एक घर जो उसे प्रत्येक सप्ताह दान देता था वो बन्द हो गया।
इस घटना में उस भिखारी के पाप का मूल यह था कि वो लोभ से भरा हुआ आता था। उसे यह अहंकार था कि उसके कारण मेरी माताजी पुण्य कमा रही हैं। उसकी दुआ व श्राप दोनों असरकारक होंगे। नित्य दान पाने से वह स्वयं को पण्डित से कम नहीं समझ रहा था।
2- एक बार एक विद्वान पण्डित से किसी ने पूँछा *पाप का गुरु* कौन है अर्थात पाप का आदिस्रोत क्या है? समझाइए। वो बता न सके तो जगह जगह अन्य पंडितों से पूँछा। तब किसी ने उन पण्डित को बताया इस नगर की प्रधान वैश्या बहुत ज्ञानी है, उससे पूँछिए। पण्डित ने वैश्या के पास जाकर प्रश्न किया, वैश्या ने कहा इसका उत्तर तीन महीने में दूंगी। उनके ठहरने का प्रबन्ध बाहर कुछ दूरी पर कर दिया। वैश्या रोज उस पण्डित के पास जाती, सत्संग करती और उनसे ज्ञान सुनती। दक्षिणा में कुछ चांदी के सिक्के देती, साथ ही उनके ज्ञान व वैराग्य की ढेर सारी प्रसंशा वो और उसके बंदे करते थे। उन्हें सबसे बेस्ट ज्ञानी बताते। इससे पण्डित जी को महानता का अहंकार होता चला गया । यह क्रम एक से दो महीने चला। एक दिन वैश्या ने कहा यदि आप अनुमति दें तो हम नहाधोकर पवित्रता के साथ आपका भोजन बना लाया करेंगे और दक्षिणा में 5 स्वर्ण मुद्राएं देंगे। पण्डित जी स्वपाकी थे, लेक़िन स्वर्णमुद्रा के लोभ में आकर उसका भोजन खाना स्वीकार कर लिया। रोज स्वादिष्ट भोजन व नित्य 5 स्वर्ण मुद्राएं पण्डित जी को मिलने लगी।
एक दिन वैश्या ने पण्डित जी के सामने से भोजन की थाली यह कहते हुए खींच ली, कि पण्डित जी लगता है मेरे भोजन से आपका तेज नष्ट हो रहा है, अब आपके ज्ञान में वो बात नहीं रही, अतः भोजन व दक्षिणा हम दोनों बन्द कर रहे हैं। पण्डित जी आग बबूला हो गए, और वैश्या को अपशब्द बोलने लगे गए और हाथ तक उठा दिया। तभी वैश्या ने उन्हें संयत स्वर व गम्भीर वाणी में टोकते हुए बोला - अपनी वाणी को विराम दीजिये पण्डित जी, आप ही मेरे पास पाप का गुरु(मूल आदिस्रोत) जानने आये थे। इसलिए इसका प्रैक्टिकल ज्ञान करवाने के लिए यह सब मैंने किया।
आपके लोभ ने आपकी इच्छाओं को बलवती किया, हमारी प्रसंशा ने आपके अहंकार को पुष्ट किया। आज आपके लोभ और अहंकार ने आपकी सद्बुद्धि का हरण कर लिया और क्रोध को जन्म दिया। और आपको पाप करने के लिए प्रेरित कर दिया।
आप यहां क्या लेकर आये थे? और क्यों आये थे? आप मुझे ज्ञानी मानकर मेरे ज्ञान से स्वयं की जिज्ञासा का समाधान लेने आये थे। अपनी नित्य प्राप्त होती प्रसंशा ने आपने स्वयं को सर्वज्ञानी मानकर अहंकार कर लिया। मेरे दिए भोजन व दक्षिणा को दान न समझकर लोभियों की तरह उसे अपना अधिकार व हक समझ लिया। यही पाप का मूल है। पण्डित जी वैश्या के चरणों मे गिर गए और क्षमा मांगते हुए वहां से चले गए।
पण्डित जी शर्मिंदा तो थे, लेकिन उन्हें जीवन के सत्य ज्ञान की प्राप्ति का ज्ञान भी हो गया था। पाप की जड़ - लोभ, मोह व अहंकार और उससे उतपन्न क्रोध, और क्रोध से होते पाप के रहस्य बारे में जान चुके थे।
उम्मीद है आपको भी यह क्लियर हो गया होगा।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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