प्रश्न- *दी, मौन साधना क्या है? इससे मिलने वाले लाभ बताइये?*
उत्तर - आत्मीय भाई, *मौन शक्तिसंचय का एक अनूठा तरीका है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न बनाती है। मौन केवल आंतरिक दृष्टि से ही व्यक्ति को शक्ति संपन्न नहीं बनाता बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी यह शक्ति के अपव्यव को रोकता है।*
*वार्तालाप में मात्र जिव्हा ही गतिशील नहीं रहती। मुख के भीतरी और बाहरी अवयव भी क्रियाशील रहते हैं। मस्तिष्क क्षेत्र के अनेक घटकों को उत्तेजित, सक्रिय बनाये रहना पड़ता है। यह अस्थिरता आवश्यक होती है। वक्तृता स्नायु संस्थान को झकझोर देती है। तनाव उत्पन्न करती है और पाचन तंत्र को अस्त व्यस्त करने से लेकर रक्ताभिषरण तक को प्रभावित करती है। वाचालों को अक्सर रक्तचाप की शिकायत रहने लगती है।* उत्तेजनाजन्य तनाव से दाह और अनिद्रा जैसे विकार उठ खड़े होते हैं।
मौन के अभ्यास से वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना का यत्किंचित् प्रयास भी हर किस के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है, भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो?
जिन्हें अवसर और अवकाश है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है। इसीलिए परमपूज्य गुरूदेव ने *अंत:ऊर्जा जागरण साधना* के लिए *मौन साधना अनिवार्य* कर दिया।
*चार प्रकार की वाणियाँ होती है- बैखरी, मध्यमा, परा और पश्यन्ती।*
1- *जिव्हा से उच्चरित होने वाली वाणी को “वैखरी” कहते हैं*। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है।
2- *"मध्यमान" में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है*
3- *"परा" अन्तःकरण से भव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है।* उसे प्रसन्नता, खिन्नता, उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक के विचार दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उसका सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
4- *"पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है*। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा, चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत के विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कह सकते हैं। इसी के माध्यम से देवतत्वों की पूरा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान-प्रदान होता है।
🙏🏻👉🏼 *अस्तित्व की हर वो चीज जिसको पांचों इंद्रियों से महसूस किया जा सके वह दरअसल ध्वनि की एक गूंज है। हर चीज जिसे देखा, सुना, सूंघा जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके या जिसे स्पर्श किया जा सके, ध्वनि या नाद का एक खेल है। मनुष्य का शरीर और मन भी एक प्रतिध्वनी या कंपन ही है।* लेकिन शरीर और मन अपने आप में सब कुछ नहीं हैं, वे तो बस एक बड़ी संभावना की ऊपरी परत भर हैं, वे एक दरवाजे की तरह हैं। बहुत से लोग ऊपरी परत के नीचे नहीं देखते, वे दरवाजे की चौखट पर बैठकर पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं। लेकिन दरवाजा अंदर जाने के लिए होता है। इस दरवाजे के आगे जो चीज है, उसका अनुभव करने के लिए चुप रहने का अभ्यास ही मौन कहलाता है स।
अंग्रेजी शब्द ‘साइलेंस’ बहुत कुछ नहीं बता पाता है। संस्कृत में ‘मौन’ और ‘नि:शब्द’ दो महत्वपूर्ण शब्द हैं। मौन का अर्थ आम भाषा में चुप रहना होता है-यानी आप कुछ बोलते नहीं हैं। ‘नि:शब्द’ का मतलब है जहां शब्द या ध्वनि नहीं है - शरीर, मन और सारी सृष्टि के परे। ध्वनि के परे का मतलब ध्वनि की गैरमौजूदगी नहीं, बल्कि ध्वनि से आगे जाना है।
*अंतरतम में मौन ही है यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पूरा अस्तित्व ही ऊर्जा की एक प्रतिध्वनि या कंपन है*, इंसान हर कंपन को ध्वनि के रूप में महसूस कर पाता है। सृष्टि के हर रूप के साथ एक खास ध्वनि जुड़ी होती है। ध्वनियों के इसी जटिल संगम को ही हम सृष्टि के रूप में महसूस कर रहे हैं। सभी ध्वनियों का आधार ‘नि:शब्द’ है। सृष्टि के किसी अंश का सृष्टि के स्रोत में रूपांतरित होने की कोशिश ही मौन है। अनुभव और अस्तित्व की इस निर्गुण, आयामहीन और सीमाहीन अवस्था को पाना ही योग है। नि:शब्द का मतलब है: शून्यता।
*ध्वनि सतह पर होती है, मौन अंतरतम में होता है। अंतरतम में ध्वनि बिल्कुल नहीं होती है।*
ध्वनि सतह पर होती है, मौन अंतरतम में होता है। अंतरतम में ध्वनि बिल्कुल नहीं होती है। ध्वनि की अनुपस्थिति का मतलब कंपन और गूंज, जीवन और मृत्यु, यानी पूरी सृष्टि की अनुपस्थिति। अनुभव में सृष्टि के अनुपस्थित होने का मतलब है – सृष्टि के स्रोत की व्यापक मौजूदगी की ओर बढ़ना। इसलिए, ऐसा स्थान जो सृष्टि के परे हो, ऐसा आयाम जो जीवन और मृत्यु के परे हो, मौन या नि:शब्द कहलाता है। इंसान इसे कर नहीं सकता, इसे सिर्फ हुआ जा सकता है।
*मौन का अभ्यास करने और मौन होने में अंतर है। अगर आप किसी चीज का अभ्यास कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप वह नहीं हैं। अगर आप पूरी जागरूकता के साथ मौन में प्रवेश करने की चेष्टा करते हैं तो आपके मौन होने की संभावना बनती है।*
कालचक्र से परे जाने का एक अवसर है मौन होकर ध्यानस्थ होना। यह मौन बाहर ही नहीं भीतर भी होना चाहिए। चारों वाणियो को विश्राम दो, भीतर की ध्वनि के साक्षी बनो। अंतर्नाद से जुडो। तब मौन घटेगा।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, *मौन शक्तिसंचय का एक अनूठा तरीका है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न बनाती है। मौन केवल आंतरिक दृष्टि से ही व्यक्ति को शक्ति संपन्न नहीं बनाता बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी यह शक्ति के अपव्यव को रोकता है।*
*वार्तालाप में मात्र जिव्हा ही गतिशील नहीं रहती। मुख के भीतरी और बाहरी अवयव भी क्रियाशील रहते हैं। मस्तिष्क क्षेत्र के अनेक घटकों को उत्तेजित, सक्रिय बनाये रहना पड़ता है। यह अस्थिरता आवश्यक होती है। वक्तृता स्नायु संस्थान को झकझोर देती है। तनाव उत्पन्न करती है और पाचन तंत्र को अस्त व्यस्त करने से लेकर रक्ताभिषरण तक को प्रभावित करती है। वाचालों को अक्सर रक्तचाप की शिकायत रहने लगती है।* उत्तेजनाजन्य तनाव से दाह और अनिद्रा जैसे विकार उठ खड़े होते हैं।
मौन के अभ्यास से वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना का यत्किंचित् प्रयास भी हर किस के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है, भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो?
जिन्हें अवसर और अवकाश है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है। इसीलिए परमपूज्य गुरूदेव ने *अंत:ऊर्जा जागरण साधना* के लिए *मौन साधना अनिवार्य* कर दिया।
*चार प्रकार की वाणियाँ होती है- बैखरी, मध्यमा, परा और पश्यन्ती।*
1- *जिव्हा से उच्चरित होने वाली वाणी को “वैखरी” कहते हैं*। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है।
2- *"मध्यमान" में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है*
3- *"परा" अन्तःकरण से भव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है।* उसे प्रसन्नता, खिन्नता, उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक के विचार दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उसका सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।
4- *"पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है*। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा, चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत के विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कह सकते हैं। इसी के माध्यम से देवतत्वों की पूरा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान-प्रदान होता है।
🙏🏻👉🏼 *अस्तित्व की हर वो चीज जिसको पांचों इंद्रियों से महसूस किया जा सके वह दरअसल ध्वनि की एक गूंज है। हर चीज जिसे देखा, सुना, सूंघा जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके या जिसे स्पर्श किया जा सके, ध्वनि या नाद का एक खेल है। मनुष्य का शरीर और मन भी एक प्रतिध्वनी या कंपन ही है।* लेकिन शरीर और मन अपने आप में सब कुछ नहीं हैं, वे तो बस एक बड़ी संभावना की ऊपरी परत भर हैं, वे एक दरवाजे की तरह हैं। बहुत से लोग ऊपरी परत के नीचे नहीं देखते, वे दरवाजे की चौखट पर बैठकर पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं। लेकिन दरवाजा अंदर जाने के लिए होता है। इस दरवाजे के आगे जो चीज है, उसका अनुभव करने के लिए चुप रहने का अभ्यास ही मौन कहलाता है स।
अंग्रेजी शब्द ‘साइलेंस’ बहुत कुछ नहीं बता पाता है। संस्कृत में ‘मौन’ और ‘नि:शब्द’ दो महत्वपूर्ण शब्द हैं। मौन का अर्थ आम भाषा में चुप रहना होता है-यानी आप कुछ बोलते नहीं हैं। ‘नि:शब्द’ का मतलब है जहां शब्द या ध्वनि नहीं है - शरीर, मन और सारी सृष्टि के परे। ध्वनि के परे का मतलब ध्वनि की गैरमौजूदगी नहीं, बल्कि ध्वनि से आगे जाना है।
*अंतरतम में मौन ही है यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पूरा अस्तित्व ही ऊर्जा की एक प्रतिध्वनि या कंपन है*, इंसान हर कंपन को ध्वनि के रूप में महसूस कर पाता है। सृष्टि के हर रूप के साथ एक खास ध्वनि जुड़ी होती है। ध्वनियों के इसी जटिल संगम को ही हम सृष्टि के रूप में महसूस कर रहे हैं। सभी ध्वनियों का आधार ‘नि:शब्द’ है। सृष्टि के किसी अंश का सृष्टि के स्रोत में रूपांतरित होने की कोशिश ही मौन है। अनुभव और अस्तित्व की इस निर्गुण, आयामहीन और सीमाहीन अवस्था को पाना ही योग है। नि:शब्द का मतलब है: शून्यता।
*ध्वनि सतह पर होती है, मौन अंतरतम में होता है। अंतरतम में ध्वनि बिल्कुल नहीं होती है।*
ध्वनि सतह पर होती है, मौन अंतरतम में होता है। अंतरतम में ध्वनि बिल्कुल नहीं होती है। ध्वनि की अनुपस्थिति का मतलब कंपन और गूंज, जीवन और मृत्यु, यानी पूरी सृष्टि की अनुपस्थिति। अनुभव में सृष्टि के अनुपस्थित होने का मतलब है – सृष्टि के स्रोत की व्यापक मौजूदगी की ओर बढ़ना। इसलिए, ऐसा स्थान जो सृष्टि के परे हो, ऐसा आयाम जो जीवन और मृत्यु के परे हो, मौन या नि:शब्द कहलाता है। इंसान इसे कर नहीं सकता, इसे सिर्फ हुआ जा सकता है।
*मौन का अभ्यास करने और मौन होने में अंतर है। अगर आप किसी चीज का अभ्यास कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप वह नहीं हैं। अगर आप पूरी जागरूकता के साथ मौन में प्रवेश करने की चेष्टा करते हैं तो आपके मौन होने की संभावना बनती है।*
कालचक्र से परे जाने का एक अवसर है मौन होकर ध्यानस्थ होना। यह मौन बाहर ही नहीं भीतर भी होना चाहिए। चारों वाणियो को विश्राम दो, भीतर की ध्वनि के साक्षी बनो। अंतर्नाद से जुडो। तब मौन घटेगा।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
Kitne din karna hai
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