प्रश्न - *दी, आत्मा, जीवात्मा, प्राण, शरीर, पंचकोश में क्या अंतर है? या यह किस प्रकार एक दूसरे से जुड़े हैं?*
उत्तर- आत्मीय भाई, यह अत्यंत गूढ़ विषय है, जो एक पोस्ट में व्याख्या कर पाना असंभव है। फ़िर भी साधारण आम जनता के समझने योग्य इसकी व्याख्या कर रहे हैं:-
*आत्मा* - सतचित आनन्द स्वरूप, अजन्मा है अर्थात न जन्म लेता है न ही इसकी मृत्यु होती है। विचार व भावनाओं से अलिप्त होता है। परमात्मा का यही मूल अंश होता है। कर्मबन्धन में यह नहीं बंधता।
*जीवात्मा* - जब प्रकृति आत्मा के संयोजन से सृष्टि करने का विचार करती है। तब आत्मा को आकाशतत्व व अन्तःकरण के साथ संयोजन करती है। अन्तःकरण - मन बुद्धि चित्त अहंकार का चतुष्टय है। इसमें ही समस्त संस्कार सुरक्षित रहते है। यह आत्मा को सूक्ष्मशरीर में धारण करता है। तब यह जीवात्मा कहलाता है, यह ही जन्म व मृत्यु के चक्कर में चलता है। यह ही दोबारा पुनर्जन्म में पुरानी स्मृतियो और आदतों को सुरक्षित संस्कार के रूप में रखता है। प्रारब्धानुसार यही जन्म लेता है। यह कर्मबन्धन में बन्धता है, यह कर्मफल भोगता है। जो लोग प्रेतात्मा या किसी ऋषिआत्मा का दर्शन करते है वो वस्तुतः उसकी जीवात्मा के दर्शन करते हैं।
*प्राण* - आत्मा यदि सूर्य है तो उसकी किरणे-ऊर्जा प्राण है। प्राण को पांच मुख्य प्राण -प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान तथा पांच उप प्राण -नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त एवं धनंजय में विभाजित किया जा सकता हैं। ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग हिस्सों में रह कर उसको चलाते रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य की ऊर्जा से प्रकृति का पोषण, संरक्षण व संचालन होता है, वैसे ही प्राण ऊर्जा से शरीर का पोषण, संरक्षण व संचालन होता है। शरीर की मृत्यु के समय जीवात्मा आत्मा को लेकर निकलती है, आत्मा के अस्त के साथ उसकी ऊर्जा प्राण भी निकल जाता है।
*शरीर* - यह पंच तत्वों - आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि से मिलकर बना होता है। जब गर्भ में पिता के शुक्राणु व माता के अण्डाणु का संयोजन होता है। तब यह शरीर तैयार होता है, जीवात्मा का प्रवेश इस शरीर में तब होता है जब यह शरीर मानव आकृति में बदल जाता है और शरीर के मुख्य कार्य श्वांस व धड़कन को विद्युत/ऊर्जा आत्मा की उपस्थिति में उसकी ऊर्जा प्राण देता है, यह प्राण ऊर्जा ही शरीर की समस्त पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय व मन को क्रियाशील कर देता है। जीवात्मा का अन्तः करण भी क्रियाशील होने लगता है। इसीलिए गर्भ संस्कार के माध्यम से इस अल्फा अवस्था में पुराने संस्कारो को नए शुभसँस्कारो में बदलने का उपक्रम अपनाया जाता है।
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योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
*ये पाँच कोश हैं* -
*अन्नमय कोश* - अन्न तथा भोजन से निर्मित। स्थूल शरीर और मस्तिष्क।
*प्राणमय कोश* - प्राणों से बना, अर्थात आत्मा से निकलने वाली ऊर्जा का खज़ाना।
*मनोमय कोश* - मन से बना, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊर्जा स्रोत की समझ व इसके ऊपर पूर्ण नियन्त्रण की शक्ति।
*विज्ञानमय कोश* - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना। जीवात्मा की शक्तियों के ख़ज़ाने से जुड़ना। वि + ज्ञान अर्थात विशेष ज्ञान सृष्टि के निर्माण व जीवात्मा की कार्य विधियों का।
*आनंदमय कोश* - आनन्दानुभूति से बना। जीवात्मा से भी परे जो आत्मा है, जो उस परमात्मा का मूल अंश है उसे जानना। आत्मज्ञान होना और आत्मा के मूल स्रोत परमात्मा को जानना। क्योंकि आत्मा अलिप्त, अजन्मा है और सत चित आनन्द स्वरूप है। अतः सत्य में चित्त स्थिर होते ही आनन्द भी स्थिर हो जाता है।
🙏🏻 योगी पँच कोशो में अधिकार करता हुआ, व जीवात्मा के संस्कारों औऱ कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है। जीवात्मा से आत्मा को मुक्त कर मोक्ष प्राप्त करता है। यह अत्यंत कठिन मार्ग है, जिसे योगी तय करता है।
*मोक्ष मूलं गुरूकृपा* - यही कार्य सदगुरु कृपा से सहज मिल जाता है, सदगुरु जीवात्मा को अपनी कृपा से संस्कार व कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है। शिष्य को मोक्ष दे देता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
ज्यादा जानकारी के लिए पढ़े:-
📖📚 *गायत्री की पँचकोशिय साधना एवं उपलब्धियां*
📚📖 *गायत्री महाविज्ञान*
उत्तर- आत्मीय भाई, यह अत्यंत गूढ़ विषय है, जो एक पोस्ट में व्याख्या कर पाना असंभव है। फ़िर भी साधारण आम जनता के समझने योग्य इसकी व्याख्या कर रहे हैं:-
*आत्मा* - सतचित आनन्द स्वरूप, अजन्मा है अर्थात न जन्म लेता है न ही इसकी मृत्यु होती है। विचार व भावनाओं से अलिप्त होता है। परमात्मा का यही मूल अंश होता है। कर्मबन्धन में यह नहीं बंधता।
*जीवात्मा* - जब प्रकृति आत्मा के संयोजन से सृष्टि करने का विचार करती है। तब आत्मा को आकाशतत्व व अन्तःकरण के साथ संयोजन करती है। अन्तःकरण - मन बुद्धि चित्त अहंकार का चतुष्टय है। इसमें ही समस्त संस्कार सुरक्षित रहते है। यह आत्मा को सूक्ष्मशरीर में धारण करता है। तब यह जीवात्मा कहलाता है, यह ही जन्म व मृत्यु के चक्कर में चलता है। यह ही दोबारा पुनर्जन्म में पुरानी स्मृतियो और आदतों को सुरक्षित संस्कार के रूप में रखता है। प्रारब्धानुसार यही जन्म लेता है। यह कर्मबन्धन में बन्धता है, यह कर्मफल भोगता है। जो लोग प्रेतात्मा या किसी ऋषिआत्मा का दर्शन करते है वो वस्तुतः उसकी जीवात्मा के दर्शन करते हैं।
*प्राण* - आत्मा यदि सूर्य है तो उसकी किरणे-ऊर्जा प्राण है। प्राण को पांच मुख्य प्राण -प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान तथा पांच उप प्राण -नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त एवं धनंजय में विभाजित किया जा सकता हैं। ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग हिस्सों में रह कर उसको चलाते रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य की ऊर्जा से प्रकृति का पोषण, संरक्षण व संचालन होता है, वैसे ही प्राण ऊर्जा से शरीर का पोषण, संरक्षण व संचालन होता है। शरीर की मृत्यु के समय जीवात्मा आत्मा को लेकर निकलती है, आत्मा के अस्त के साथ उसकी ऊर्जा प्राण भी निकल जाता है।
*शरीर* - यह पंच तत्वों - आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि से मिलकर बना होता है। जब गर्भ में पिता के शुक्राणु व माता के अण्डाणु का संयोजन होता है। तब यह शरीर तैयार होता है, जीवात्मा का प्रवेश इस शरीर में तब होता है जब यह शरीर मानव आकृति में बदल जाता है और शरीर के मुख्य कार्य श्वांस व धड़कन को विद्युत/ऊर्जा आत्मा की उपस्थिति में उसकी ऊर्जा प्राण देता है, यह प्राण ऊर्जा ही शरीर की समस्त पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय व मन को क्रियाशील कर देता है। जीवात्मा का अन्तः करण भी क्रियाशील होने लगता है। इसीलिए गर्भ संस्कार के माध्यम से इस अल्फा अवस्था में पुराने संस्कारो को नए शुभसँस्कारो में बदलने का उपक्रम अपनाया जाता है।
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योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
*ये पाँच कोश हैं* -
*अन्नमय कोश* - अन्न तथा भोजन से निर्मित। स्थूल शरीर और मस्तिष्क।
*प्राणमय कोश* - प्राणों से बना, अर्थात आत्मा से निकलने वाली ऊर्जा का खज़ाना।
*मनोमय कोश* - मन से बना, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊर्जा स्रोत की समझ व इसके ऊपर पूर्ण नियन्त्रण की शक्ति।
*विज्ञानमय कोश* - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना। जीवात्मा की शक्तियों के ख़ज़ाने से जुड़ना। वि + ज्ञान अर्थात विशेष ज्ञान सृष्टि के निर्माण व जीवात्मा की कार्य विधियों का।
*आनंदमय कोश* - आनन्दानुभूति से बना। जीवात्मा से भी परे जो आत्मा है, जो उस परमात्मा का मूल अंश है उसे जानना। आत्मज्ञान होना और आत्मा के मूल स्रोत परमात्मा को जानना। क्योंकि आत्मा अलिप्त, अजन्मा है और सत चित आनन्द स्वरूप है। अतः सत्य में चित्त स्थिर होते ही आनन्द भी स्थिर हो जाता है।
🙏🏻 योगी पँच कोशो में अधिकार करता हुआ, व जीवात्मा के संस्कारों औऱ कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है। जीवात्मा से आत्मा को मुक्त कर मोक्ष प्राप्त करता है। यह अत्यंत कठिन मार्ग है, जिसे योगी तय करता है।
*मोक्ष मूलं गुरूकृपा* - यही कार्य सदगुरु कृपा से सहज मिल जाता है, सदगुरु जीवात्मा को अपनी कृपा से संस्कार व कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है। शिष्य को मोक्ष दे देता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
ज्यादा जानकारी के लिए पढ़े:-
📖📚 *गायत्री की पँचकोशिय साधना एवं उपलब्धियां*
📚📖 *गायत्री महाविज्ञान*
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