2 सितम्बर को पूज्य पिताजी की मृत्यु पश्चात उनकी इच्छानुसार उन्हें हरिद्वार अंत्येष्टि के लिए परसों लाये थे, गुरुकृपा से शान्तिकुंज गेट पर नम्बर 2 पर आदरणीय विरेश्वर उपाध्याय बाबूजी, आदरणीय गौड़ बाबूजी, आदरणीय जयराम मोटलानी भाई साहब व नीलम दी, आदरणीय रेखा पटवा दी व अन्य आदरणीय शान्तिकुंज के भाई बहनों ने श्रद्धांजलि दी व समाधि के पुष्प भी पिताजी को मिले। यह उनका पुण्य प्रताप ही था कि उन्हें गुरुदेव के परम प्रिय शिष्यों के हाथ से श्रद्धांजलि मिली।
उसके बाद खड़खड़ी, हरिद्वार में अंत्येष्टि हुई। प्रथम बार श्मसान गयी, विरक्ति व वैराग्य की अनुभूति हुई। एक साथ कई लाशों का जलना, पिताजी की अंत्येष्टि की क्रिया व आज तक का अस्थि विसर्जन क्रम आई ओपनर था। राखों का गंगा जल में प्रवाहित होकर उसमे मिलने का क्रम हृदय में वैराग्य जगाने वाला था।
श्मसान के नाम से ही पहले बचपन मे डर लगता था। वहाँ दो दिन गई कोई भय नहीं लगा, अपितु यह लगा इससे उत्तम जगह तो ध्यान के लिए कोई है ही नहीं जहां संसार का भटकाव नदारद है। सर्वोत्तम परमात्मा के स्मरण की जगह है श्मशान।
मुझे जो अनुभूति हुई, वो शायद सबको होती होगी। लेकिन कुछ दिन बीत जाने पर सब भूल जाते होंगे पुनः संसार की माया श्मसान के उपजे आत्मज्ञान को ढक लेती होगी। मेरे अंदर यह आत्मज्ञान कितने दिन ठहरेगा पता नहीं। इसलिए इसे लिख रही हूँ।
सुबह राख फूल में अद्भुत एक हड्डी का स्ट्रुक्चर देखा जिसे श्मसान के पण्डित *आत्माराम* शब्द से सम्बोधित कर रहे थे, जो मानव आकृति की बैठी प्रतिमा जैसी लग रही थी। उन लोगो का कहना था इसके भीतर आत्मा का निवास होता है।
आज समझ आया कि आत्म ज्ञान का सर्वोत्तम स्थान श्मसान है, इसलिए शिव श्मशान में ही साधना करते है और भष्म प्रतीक रूप में धारण करते हैं।
पूज्य पिता की अंत्येष्टि से अस्थि विसर्जन क्रम में मुझे पिता की जगह मैं स्वयं को महसूस कर रही थी। ऐसा लग रहा था मानो सबकुछ मेरे साथ घट रहा हो और मैं उसे दर्शक की भांति देख रही हूँ।
यहां दृश्य भी मैं, दृष्टा भी मैं, कृत्य भी मैं व कर्ता भी मैं, सब कुछ बाहर भीतर एक हो गया था। समय मानो एक फ़िल्म की तरह मुझपर ही घट रहा था।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उसके बाद खड़खड़ी, हरिद्वार में अंत्येष्टि हुई। प्रथम बार श्मसान गयी, विरक्ति व वैराग्य की अनुभूति हुई। एक साथ कई लाशों का जलना, पिताजी की अंत्येष्टि की क्रिया व आज तक का अस्थि विसर्जन क्रम आई ओपनर था। राखों का गंगा जल में प्रवाहित होकर उसमे मिलने का क्रम हृदय में वैराग्य जगाने वाला था।
श्मसान के नाम से ही पहले बचपन मे डर लगता था। वहाँ दो दिन गई कोई भय नहीं लगा, अपितु यह लगा इससे उत्तम जगह तो ध्यान के लिए कोई है ही नहीं जहां संसार का भटकाव नदारद है। सर्वोत्तम परमात्मा के स्मरण की जगह है श्मशान।
मुझे जो अनुभूति हुई, वो शायद सबको होती होगी। लेकिन कुछ दिन बीत जाने पर सब भूल जाते होंगे पुनः संसार की माया श्मसान के उपजे आत्मज्ञान को ढक लेती होगी। मेरे अंदर यह आत्मज्ञान कितने दिन ठहरेगा पता नहीं। इसलिए इसे लिख रही हूँ।
सुबह राख फूल में अद्भुत एक हड्डी का स्ट्रुक्चर देखा जिसे श्मसान के पण्डित *आत्माराम* शब्द से सम्बोधित कर रहे थे, जो मानव आकृति की बैठी प्रतिमा जैसी लग रही थी। उन लोगो का कहना था इसके भीतर आत्मा का निवास होता है।
आज समझ आया कि आत्म ज्ञान का सर्वोत्तम स्थान श्मसान है, इसलिए शिव श्मशान में ही साधना करते है और भष्म प्रतीक रूप में धारण करते हैं।
पूज्य पिता की अंत्येष्टि से अस्थि विसर्जन क्रम में मुझे पिता की जगह मैं स्वयं को महसूस कर रही थी। ऐसा लग रहा था मानो सबकुछ मेरे साथ घट रहा हो और मैं उसे दर्शक की भांति देख रही हूँ।
यहां दृश्य भी मैं, दृष्टा भी मैं, कृत्य भी मैं व कर्ता भी मैं, सब कुछ बाहर भीतर एक हो गया था। समय मानो एक फ़िल्म की तरह मुझपर ही घट रहा था।
🙏🏻श्वेता, DIYA
No comments:
Post a Comment