Thursday, 5 September 2019

कविता- *हे मेरे मन! जगत को छोड़, जगदीश में रम*

कविता- *हे मेरे मन! जगत को छोड़, जगदीश में रम*

हे मेरे मन, मान मेरे गुरु की सीख,
जगत को छोड़, जगदीश में रम,
भगवान से कुछ मत माँग,
भगवान से उन्हीं की भक्ति ले माँग।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम...

हे मेरे मन,
संसार की माया के प्रपंच को समझ,
तू इन पँच तत्वों की पंचायत में मत उलझ,
तू है यात्री, किराए की सराय है शरीर,
मौत के बुलाने पर छोड़ना पड़ेगा ये शरीर।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम....

तेरी सराय शरीर,
कैसे बना है,
इसे ले तू जान,
तू शरीर नहीं आत्मा है यह पहचान,
हड्डियों के ढाँचे को,
मांसपेशियों की रस्सी से बांध रखा है,
करोड़ो जीवाणुओं को,
शरीर का चयापचय सौंप रखा है,
जरूरी उपकरणों युक्त शरीर को,
चमड़ी की चद्दर से ढक रखा है,
मल मूत्र रक्त गन्दगी का ढेर,
इस चमड़ी के अंदर छुपा रखा है,
यही सराय तुझे,
शरीर रूप में रहने को मिला है।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम....

अंतिम गन्तव्य सदा स्मरण रख के,
यात्रा का आनन्द यात्री बनकर ले ले,
न किसी के आने पर सुखी हो,
न किसी के जाने पर दुःखी हो,
न अहंता के बंधन में बंध,
न ममता के बन्धन में बंध,
तू मुक्त निर्लिप्त होकर,
यह जीवन की यात्रा कर।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम..

यह संसार का है मेला,
यहां आना और जाना है अकेला,
न यहां कुछ लेकर आये थे,
न कुछ यहां से लेकर जा सकोगे,
कर्मफ़ल के सिद्धांत के अनुसार,
जीवन-मरण के चक्र में घूमोगे।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम...

शरीर से जुड़े रिश्ते,
मात्र श्मसान तक निभेंगे,
प्राण निकलते ही,
शरीर का अंग अंग,
चिता में धू धू कर जलेंगे,
चिता की एक मुट्ठी राख भी,
कोई अपने पास न रखेगा,
गंगा में सब प्रवाहित कर,
हमसे मुक्ति लेगा।

हे मेरे मन, जगत को छोड़, जगदीश में रम...


🙏🏻श्वेता, DIYA

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