कविता - *पाश्चात्य की रेगिस्तानी मरीचिका में खोओ ना*
भारतीय संस्कृति की खूबसूरत वादियां छोड़कर,
पाश्चात्य के बंजर में जाओ ना,
गृहस्थ जीवन के सुमधुर अनुभवों को छोड़कर,
पाश्चात्य की रेगिस्तानी मरीचिका में खोओ ना।
सुकून की रोटी घर की छोड़कर,
कई दिनों की बासी ब्रेड खाओ ना,
घर की लक्ष्मी को ठुकराकर,
वैश्या के चरणों मे सुख ढूढो ना।
दूध छाछ मख्खन घर का छोड़कर,
पेप्सी कोला का जहर पियो ना,
यज्ञीय परम्परा घर की छोड़कर,
नशे व व्यसन के दलदल में फँसो ना।
लौट आओ पुनः भारतीय संस्कृति में,
रिश्तों की अहमियत पुनः समझ लो ना,
करवा चौथ के चाँद से कर वादा,
जीवन में चाँद सी शीतलता ला दो ना।
🙏🏻श्वेता, DIYA
भारतीय संस्कृति की खूबसूरत वादियां छोड़कर,
पाश्चात्य के बंजर में जाओ ना,
गृहस्थ जीवन के सुमधुर अनुभवों को छोड़कर,
पाश्चात्य की रेगिस्तानी मरीचिका में खोओ ना।
सुकून की रोटी घर की छोड़कर,
कई दिनों की बासी ब्रेड खाओ ना,
घर की लक्ष्मी को ठुकराकर,
वैश्या के चरणों मे सुख ढूढो ना।
दूध छाछ मख्खन घर का छोड़कर,
पेप्सी कोला का जहर पियो ना,
यज्ञीय परम्परा घर की छोड़कर,
नशे व व्यसन के दलदल में फँसो ना।
लौट आओ पुनः भारतीय संस्कृति में,
रिश्तों की अहमियत पुनः समझ लो ना,
करवा चौथ के चाँद से कर वादा,
जीवन में चाँद सी शीतलता ला दो ना।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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