प्रश्न - *श्वेता बेटे, "मैं क्या हूँ?" पुस्तक पढ़ी, लेक़िन क्या तुम मुझे पुनः इसे समझाओगे बेटा? "मैं", "अहम" और "आत्मा" को कृपया परिभाषित करो।*
उत्तर- आत्मीय बाबूजी चरण स्पर्श,
*मैं क्या हूँ?* यह साधना से अनुभूति करने का विधान है, इसलिए परम्पपूज्य गुरुदेव ने इस पुस्तक की शुरुआत में ही कहा है इसे साधना मार्ग से ही अनुभूत किया जा सकता है कि "मैं क्या हूँ?", यह पुस्तक केवल मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगी लेकिन अनुभूति तो साधना से ही आएगी।
हम में से 90% लोग सिद्धांत रूप में थ्योरिटिकल यह स्वीकारते हैं, कि हम आत्मा हैं शरीर नहीं हैं, अतः आत्म तुष्टीकरण के लिए हमें सदा प्रयासरत रहना चाहिये। किंतु व्यवहारिक रूप में प्रेक्टीकली आचरण से यह स्वीकारते हैं कि हम शरीर हैं और इसी के तुष्टीकरण के लिए जीना है।
कारण यह है कि *मैं क्या हूँ?* को मात्र शब्दो से परिभाषित करके नहीं समझा या समझाया जा सकता है। लेकिन फिर भी एक छोटा सा प्रयास कर रही हूँ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
चलिए थोड़ा ध्यान में कल्पना करते हुए एक सफ़र करते हैं और समुद्र के किनारे चलते हैं। यह समुद्र जो दिख रहा है यह परमात्मा का प्रतीक है, अब यह देखिये कुछ रँग बिरंगी व विभिन्न आकार की कई सारी बोतल मेरे पास है। हमने सबमें जल भर दिया। अब बताइये क्या बोतल के रूप रँग आकार से समुद्र के जल की प्रॉपर्टी व गुण बदलेगा? नहीं न..
अब नेत्र बन्द कर भाव करिये कि जितने भी मनुष्य, जलचर, नभचर प्राणी हैं व विभिन्न रूप रँग व आकार की चलती फिरती बोतल हैं, लेकिन उनके भीतर जो प्राणतत्व भरा है, वह तो उसी परमात्मा का अंश है। उसी परमात्मा रूपी समुद्र का जल है।
"मैं" अर्थात जो चेतन है, प्राण तत्व है जिसके कारण हम जीवित हैं। उसे हमने अनुभूत तो किया ही नहीं। शरीर जो कि नित्य में अनुभूति जन्य है, इसलिये वही शरीर *मैं* की पहचान बन जाता है। फिर शरीर को जन्म देने वाले माता पिता, परिवार, कुल, जाति इत्यादि *मैं* की पहचान बन जाती है। जब जॉब व्यवसाय करते है तो उसमें इतना रम जाते है कि पद-प्रतिष्ठा व कम्पनी हमारे *मैं* की पहचान बन जाती है। जब जो झूठी पहचान हमने *मैं* की खड़ी करी यदि वो दूसरे कुछ लोगों के *मैं* से बड़ी हुई तो वह मेरा *मैं* बदलकर अहंकार में *मैं ये हूँ मैं वो हूँ, मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ* ऐसा कहते कहते वह *अहं* में परिवर्तित हो जाता है।
*मैं* की सही पहचान *आत्मा* से जुड़ने की जगह भटकाव में आकर शरीर, संसार, भोग विलास में ही खो जाती है। *आत्मा* की तुष्टि नहीं हुई तो वह कचोटती रहती है। अब हम मनुष्यों ने यह विस्मृत कर दिया *मैं आत्मा हूँ* को और *मैं शरीर हूँ* को व्यवहारिक रूप में मान्यता देकर तुष्टिकरण कर रहे है, मगर हम सब भीतर से अशांत उद्विग्न क्यों है? यह हमें समझ ही नहीं आ रहा। क्योंकि आत्मा को जो भुलाए बैठे हैं।
जैसे ध्यान के शुरुआत में हमने विभिन्न रँग व आकार की बोतल में चेतन जल को भरा। सभी बोतल यह भूल गयी कि उनमें भरा जल समुद्र की पहचान से जुड़ा है। उनका *मैं* - *मैं समुद्र का जल हूँ* होना चाहिए। मगर वो जल कह रहे हैं *मैं* - *मैं नीली बोतल के अमुक आकार का जल हूँ* और दूसरे अन्य भी अपने अपने रूप रँग आकार को *मैं* की पहचान बता रहे हैं।
यह भ्रम हटेगा तब जब या तो बोतल फूट जाए और जल जल से मिल जाये। या जल का स्वाद चखा जाय या सभी बोतल के जल को लैब टेस्ट किया जाय और सिद्ध किया जाय कि सभी बोतल अपना अहंकार त्याग दो सबके भीतर एक जैसा जल समुद्र का भरा है।
हमारे पास केवल एक रास्ता है - आत्मा का रसास्वादन या आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना। जब स्वयं को जान जाएंगे तो अभी लोगों के भीतर की आत्मा को भी जान जाएंगे क्योंकि सभी के अंदर एक ही प्राणतत्व है। फ़िर द्वेष, ईर्ष्या सब समाप्त हो जाएगी। आत्मा के आनंद में खो जाएंगे।
आत्मा को जानने के दो मार्ग है -
1- *मैं क्या हूँ* - मैं उस परमात्मा का अंश आत्मा हूँ
2- *मैं क्या नहीं हूँ* - मैं न नश्वर शरीर हूँ और न हीं मैं मन,बुद्धि, चित्त व अहंकार हूँ। जो शेष बचता है वही मैं हूँ।
दोनो मार्ग की मंजिल एक ही है, आत्मज्ञान व स्वयं की असली पहचान - *मैं क्या हूँ?*
उपासना-साधना-आराधना वस्तुतः हमें यही अंत मे समझाती है कि मैं वस्तुतः हूँ कौन? कहाँ से आया हूँ? और कहाँ जाऊँगा? मेरी उत्तपत्ति का आदि श्रोत कौन है?
जब हमको ज्ञान होता है कि अरे हम तो अनन्त यात्रा में है, रिश्तेदार-मित्र-सम्बन्धी-शत्रु-प्रतिद्वंद्वी यह सब समसामयिक हैं। यह सब भी यात्रा में हैं। सबके जन्म अर्थात जीवन ट्रेन में चढ़ते समय ही मृत्यु अर्थात उतरने के स्टेशन की टिकट दे दी गयी है। हम इन यात्रियों से मोह करें या घृणा फर्क नहीं पड़ता, इन्हें हमें व इन्हें हमें छोड़कर जाना ही पड़ेगा। बस यदि प्रेम से रहेंगे तो सफ़र आनन्ददायक होगा।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻 आइये ध्यान में परमात्मा रूपी जल में अपनी बोतल का जल मिला दें, शरीर को भुला और आत्म भाव जगा दें। जल में जल मिल गया। थोड़ी देर पहले आप *अमुक बाबूजी* और *मैं श्वेता हूँ* यह पहचान थी। अब *मैं* की पहचान *मैं ही समुद्र हूँ* बन गयी। अब आप भी *समुद्र* हैं और *मैं भी समुद्र हूँ*। *मैं भी आत्मा हूँ* और समस्त जीव *आत्मा है* । *सब वस्तुतः एक ही हैं* । यही *सो$हम* है बाबूजी *मैं वही हूँ*। यही (१) प्रज्ञानं ब्रह्म ( २) अहं ब्रह्मास्मि (३) तत्त्वमसि ( ४) अयात्मा ब्रह्म इत्यादि अनुभूति है। इसे नित्य साधना करके अनुभूत किया जा सकता है। केवल पढ़कर या शब्दो से यह अनुभूति सम्भव नहीं। गूंगे का गुड़ खाने जैसा रसास्वादन है बाबूजी, चखे बिना स्वाद समझ न आएगा। अनुभूति किये बिना *मैं क्या हूँ* हृदयंगम नहीं होगा।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर- आत्मीय बाबूजी चरण स्पर्श,
*मैं क्या हूँ?* यह साधना से अनुभूति करने का विधान है, इसलिए परम्पपूज्य गुरुदेव ने इस पुस्तक की शुरुआत में ही कहा है इसे साधना मार्ग से ही अनुभूत किया जा सकता है कि "मैं क्या हूँ?", यह पुस्तक केवल मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगी लेकिन अनुभूति तो साधना से ही आएगी।
हम में से 90% लोग सिद्धांत रूप में थ्योरिटिकल यह स्वीकारते हैं, कि हम आत्मा हैं शरीर नहीं हैं, अतः आत्म तुष्टीकरण के लिए हमें सदा प्रयासरत रहना चाहिये। किंतु व्यवहारिक रूप में प्रेक्टीकली आचरण से यह स्वीकारते हैं कि हम शरीर हैं और इसी के तुष्टीकरण के लिए जीना है।
कारण यह है कि *मैं क्या हूँ?* को मात्र शब्दो से परिभाषित करके नहीं समझा या समझाया जा सकता है। लेकिन फिर भी एक छोटा सा प्रयास कर रही हूँ।
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चलिए थोड़ा ध्यान में कल्पना करते हुए एक सफ़र करते हैं और समुद्र के किनारे चलते हैं। यह समुद्र जो दिख रहा है यह परमात्मा का प्रतीक है, अब यह देखिये कुछ रँग बिरंगी व विभिन्न आकार की कई सारी बोतल मेरे पास है। हमने सबमें जल भर दिया। अब बताइये क्या बोतल के रूप रँग आकार से समुद्र के जल की प्रॉपर्टी व गुण बदलेगा? नहीं न..
अब नेत्र बन्द कर भाव करिये कि जितने भी मनुष्य, जलचर, नभचर प्राणी हैं व विभिन्न रूप रँग व आकार की चलती फिरती बोतल हैं, लेकिन उनके भीतर जो प्राणतत्व भरा है, वह तो उसी परमात्मा का अंश है। उसी परमात्मा रूपी समुद्र का जल है।
"मैं" अर्थात जो चेतन है, प्राण तत्व है जिसके कारण हम जीवित हैं। उसे हमने अनुभूत तो किया ही नहीं। शरीर जो कि नित्य में अनुभूति जन्य है, इसलिये वही शरीर *मैं* की पहचान बन जाता है। फिर शरीर को जन्म देने वाले माता पिता, परिवार, कुल, जाति इत्यादि *मैं* की पहचान बन जाती है। जब जॉब व्यवसाय करते है तो उसमें इतना रम जाते है कि पद-प्रतिष्ठा व कम्पनी हमारे *मैं* की पहचान बन जाती है। जब जो झूठी पहचान हमने *मैं* की खड़ी करी यदि वो दूसरे कुछ लोगों के *मैं* से बड़ी हुई तो वह मेरा *मैं* बदलकर अहंकार में *मैं ये हूँ मैं वो हूँ, मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ* ऐसा कहते कहते वह *अहं* में परिवर्तित हो जाता है।
*मैं* की सही पहचान *आत्मा* से जुड़ने की जगह भटकाव में आकर शरीर, संसार, भोग विलास में ही खो जाती है। *आत्मा* की तुष्टि नहीं हुई तो वह कचोटती रहती है। अब हम मनुष्यों ने यह विस्मृत कर दिया *मैं आत्मा हूँ* को और *मैं शरीर हूँ* को व्यवहारिक रूप में मान्यता देकर तुष्टिकरण कर रहे है, मगर हम सब भीतर से अशांत उद्विग्न क्यों है? यह हमें समझ ही नहीं आ रहा। क्योंकि आत्मा को जो भुलाए बैठे हैं।
जैसे ध्यान के शुरुआत में हमने विभिन्न रँग व आकार की बोतल में चेतन जल को भरा। सभी बोतल यह भूल गयी कि उनमें भरा जल समुद्र की पहचान से जुड़ा है। उनका *मैं* - *मैं समुद्र का जल हूँ* होना चाहिए। मगर वो जल कह रहे हैं *मैं* - *मैं नीली बोतल के अमुक आकार का जल हूँ* और दूसरे अन्य भी अपने अपने रूप रँग आकार को *मैं* की पहचान बता रहे हैं।
यह भ्रम हटेगा तब जब या तो बोतल फूट जाए और जल जल से मिल जाये। या जल का स्वाद चखा जाय या सभी बोतल के जल को लैब टेस्ट किया जाय और सिद्ध किया जाय कि सभी बोतल अपना अहंकार त्याग दो सबके भीतर एक जैसा जल समुद्र का भरा है।
हमारे पास केवल एक रास्ता है - आत्मा का रसास्वादन या आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना। जब स्वयं को जान जाएंगे तो अभी लोगों के भीतर की आत्मा को भी जान जाएंगे क्योंकि सभी के अंदर एक ही प्राणतत्व है। फ़िर द्वेष, ईर्ष्या सब समाप्त हो जाएगी। आत्मा के आनंद में खो जाएंगे।
आत्मा को जानने के दो मार्ग है -
1- *मैं क्या हूँ* - मैं उस परमात्मा का अंश आत्मा हूँ
2- *मैं क्या नहीं हूँ* - मैं न नश्वर शरीर हूँ और न हीं मैं मन,बुद्धि, चित्त व अहंकार हूँ। जो शेष बचता है वही मैं हूँ।
दोनो मार्ग की मंजिल एक ही है, आत्मज्ञान व स्वयं की असली पहचान - *मैं क्या हूँ?*
उपासना-साधना-आराधना वस्तुतः हमें यही अंत मे समझाती है कि मैं वस्तुतः हूँ कौन? कहाँ से आया हूँ? और कहाँ जाऊँगा? मेरी उत्तपत्ति का आदि श्रोत कौन है?
जब हमको ज्ञान होता है कि अरे हम तो अनन्त यात्रा में है, रिश्तेदार-मित्र-सम्बन्धी-शत्रु-प्रतिद्वंद्वी यह सब समसामयिक हैं। यह सब भी यात्रा में हैं। सबके जन्म अर्थात जीवन ट्रेन में चढ़ते समय ही मृत्यु अर्थात उतरने के स्टेशन की टिकट दे दी गयी है। हम इन यात्रियों से मोह करें या घृणा फर्क नहीं पड़ता, इन्हें हमें व इन्हें हमें छोड़कर जाना ही पड़ेगा। बस यदि प्रेम से रहेंगे तो सफ़र आनन्ददायक होगा।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻 आइये ध्यान में परमात्मा रूपी जल में अपनी बोतल का जल मिला दें, शरीर को भुला और आत्म भाव जगा दें। जल में जल मिल गया। थोड़ी देर पहले आप *अमुक बाबूजी* और *मैं श्वेता हूँ* यह पहचान थी। अब *मैं* की पहचान *मैं ही समुद्र हूँ* बन गयी। अब आप भी *समुद्र* हैं और *मैं भी समुद्र हूँ*। *मैं भी आत्मा हूँ* और समस्त जीव *आत्मा है* । *सब वस्तुतः एक ही हैं* । यही *सो$हम* है बाबूजी *मैं वही हूँ*। यही (१) प्रज्ञानं ब्रह्म ( २) अहं ब्रह्मास्मि (३) तत्त्वमसि ( ४) अयात्मा ब्रह्म इत्यादि अनुभूति है। इसे नित्य साधना करके अनुभूत किया जा सकता है। केवल पढ़कर या शब्दो से यह अनुभूति सम्भव नहीं। गूंगे का गुड़ खाने जैसा रसास्वादन है बाबूजी, चखे बिना स्वाद समझ न आएगा। अनुभूति किये बिना *मैं क्या हूँ* हृदयंगम नहीं होगा।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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