प्रश्न - *दीदी जी सादर प्रणाम, एक उलझन को सुलझाने की कृपा करेंगे।वह यह कि हमारे यहां नारियों को मासिक धर्म के समय में पांच दिनों तक भोजन प्रसाद बनाने के लिए मना किया जाता है,क्या यह सही है। गुरुदेव का निर्देश नहीं पढ़ पाया हूं।*
उत्तर- प्राचीन समय में केवल मनुष्यों के लिए भोजन नहीं बनता था, वस्तुतः वह भगवान का भोग लगता था। भोजन बनने के बाद बलिवैश्व यज्ञ चूल्हे की अग्नि में ही हो जाता था। एकल परिवार नहीं थे कि जिनमें भोजन मात्र दो या तीन लोगों के लिए बने व गैस भी नहीं कि खड़े खड़े बन जाये। भोजन सँयुक्त परिवार के 20 से 25 लोगों के लिए बनता था व आटा से लेकर मसालों तक सबकुछ पीसना कूटना कष्ट साध्य प्रक्रिया थी।
अतः स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आराम रजोदर्शन/मासिक धर्म मे चाहिए, साथ ही रजोदर्शन में पकाए भोजन की यज्ञाहुति न दे सकने के कारण स्त्रियों को भोजन पकाने की प्रक्रिया से दूर रखा जाता था।
आधुनिक समय में हाइजीन की उत्तम व्यवस्था है, उत्तम स्वास्थ्य हो तो नहाधोकर स्वच्छता से आसान प्रक्रिया से भोजन पकाने की व तीन से पांच सदस्य के लिए बनाया जा सकता है। गैस, मिक्सी सबकुछ तो है, अतः अत्यधिक शारीरिक श्रम नहीं है। बस 5 दिनों तक जो बलिवैश्व यज्ञ करते हैं वो पके भोजन से बलिवैश्व यज्ञ न करें।
घर का जो सदस्य पति या सास उन दिनों में भगवान का पूजन कर रहा है वह हवन सामग्री में गुड़, घी, काला तिल, जौ या साबुत चावल मिलाकर यज्ञ कर लें।
अब यह तो आप समझ ही गए होंगे कि स्त्रियों को मात्र अशुद्धि के लिए किचन या पूजन गृह में जाने के लिए नहीं रोका जाता था, वस्तुतः उन दिनों उन पर कठोर श्रम का दबाव न पड़े व अधिक विश्राम मिल सके इस हेतु उन्हें आराम दिया जाता था। नस-नाड़ियों में कोमलता बढ़ जाने से उन दिनों अधिक कड़ी मेहनत न करने की व्यवस्था स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए बनी है। नाक की घ्राण शक्तिं कमज़ोर होती है और पूरा शरीर उस वक्त कमज़ोरी झेलता है। पहले आटा चक्की नहीं थी अतः रसोई में भोजन का अर्थ होता था चक्की पीसना और धान कूटना, तब चूल्हे में लकड़ी काटकर भोजन पकाना। अत्यधिक श्रम साध्य होता था भोजन पकाना, अतः विश्राम हेतु भोजन पकाना मना था।
आध्यात्मिक शक्ति को धारण करने के लिए नसों और उपत्यिकाओं का एक्टिव होना अनिवार्य है। कमर सीधी रखना उपासना के दौरान अनिवार्य है। प्राण शक्ति/ ऊर्जा को धारण करने हेतु रजोदर्शन/अशौच के समय शरीर सक्षम नहीं होता। उपासना गृह प्राणऊर्जा को संग्रहित रखता है और सूक्ष्म प्राण ऊर्जा संग्रहित रखता है। अतः दुर्घटना से बचाव हेतु उपासना गृह में जाना और उपासना करना वर्जित है।
स्त्री को यदि मात्र इस कारण अशुद्ध माना जाय कि उनका मेंटिनेंस पीरियड आता है, तो उस मेंटिनेंस के रक्तमांस से बने बच्चे - पुरुष भला किस तरह पवित्र हो सकते हैं? अतः स्त्री प्रकृति की तरह नई सृष्टि को जन्मदेने की क्षमता धारण करने हेतु चन्द्र कलाओं, सूर्य की कलाओं और प्रकृति की कलाओं से 5 दिन तक जुड़कर स्वयं के मेंटेनेंस दौर से गुजरती है। इस दौरान किसी भी कारण से कोई व्यवधान किसी को उतपन्न नहीं करना चाहिए। स्त्री को पर्याप्त विश्राम देना चाहिए।
इन प्रचलनों को जहां माना जाता है वहां कारण को समझते हुए भी प्रतिबन्ध किस सीमा तक रहें इस पर विचार करना चाहिये। रुग्ण व्यक्ति प्रायः स्नान आदि के सामान्य नियमों का निर्वाह नहीं कर पाते और ज्वर, दस्त, खांसी आदि के कारण उनकी शारीरिक स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक मलीनता रहती है। रोगी परिचर्या के नियमों से अवगत व्यक्ति जानते हैं कि रोगी की सेवा करने वालों या सम्पर्क में आने वालों को सतर्कता, स्वेच्छा के नियमों का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। रोगी को भी दौड़-धूप से बचने और विश्राम करने की सुविधा दी जाती है। उसे कोई चाहे तो छूतछात भी कह सकते हैं। ऐसी ही स्थिति रजोदर्शन के दिनों में समझी जानी चाहिए और उसकी सावधानी बरतनी चाहिए।
तिल को ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं है। कारण और निवारण का बुद्धिसंगत ताल-मेल विवेकपूर्वक बिठाने में ही औचित्य है। शरीर के कतिपय अंग द्रवमल विसर्जन करते रहते हैं। पसीना, मूत्र, नाक, आंख आदि के छिद्रों से निकलने वाले द्रव भी प्रायः उसी स्तर के हैं जैसा कि ऋतुस्राव। चोट लगने पर भी रक्त निकलता रहता है। फोड़े फूटने आदि से भी प्रायः वैसी ही स्थिति होती है। इन अवसरों पर स्वच्छता के आवश्यक नियमों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बात का बतंगड़ बना देना अनावश्यक है। प्रथा-प्रचलनों में कई आवश्यक हैं कई अनावश्यक। कइयों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और कइयों की उपेक्षा की जानी चाहिए। सूतक और अशुद्धि के प्रश्न को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे कि प्रचलन कर्ताओं ने उसे आरम्भ किया था। उनका उद्देश्य उपासना जैसे आध्यात्मिक नित्यकर्म से किसी को विरत, वंचित करना नहीं वरन् यह था कि अशुद्धता सीमित रहे और स्त्री को उचित शारीरिक-मानसिक विश्राम मिले। आज भी जहां अशौच का वातावरण है वहीं सूतक माना जाय और शरीर से किये जाने वाले कृत्यों पर ही कोई रोकथाम की जाय। मन से उपासना करने पर तो कोई स्थिति बाधक नहीं हो सकती। इसलिए नित्य की उपासना मानसिक रूप से जारी रखी जा सकती है। पूजा-उपकरणों का स्पर्श न करना हो तो न भी करे।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर- प्राचीन समय में केवल मनुष्यों के लिए भोजन नहीं बनता था, वस्तुतः वह भगवान का भोग लगता था। भोजन बनने के बाद बलिवैश्व यज्ञ चूल्हे की अग्नि में ही हो जाता था। एकल परिवार नहीं थे कि जिनमें भोजन मात्र दो या तीन लोगों के लिए बने व गैस भी नहीं कि खड़े खड़े बन जाये। भोजन सँयुक्त परिवार के 20 से 25 लोगों के लिए बनता था व आटा से लेकर मसालों तक सबकुछ पीसना कूटना कष्ट साध्य प्रक्रिया थी।
अतः स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आराम रजोदर्शन/मासिक धर्म मे चाहिए, साथ ही रजोदर्शन में पकाए भोजन की यज्ञाहुति न दे सकने के कारण स्त्रियों को भोजन पकाने की प्रक्रिया से दूर रखा जाता था।
आधुनिक समय में हाइजीन की उत्तम व्यवस्था है, उत्तम स्वास्थ्य हो तो नहाधोकर स्वच्छता से आसान प्रक्रिया से भोजन पकाने की व तीन से पांच सदस्य के लिए बनाया जा सकता है। गैस, मिक्सी सबकुछ तो है, अतः अत्यधिक शारीरिक श्रम नहीं है। बस 5 दिनों तक जो बलिवैश्व यज्ञ करते हैं वो पके भोजन से बलिवैश्व यज्ञ न करें।
घर का जो सदस्य पति या सास उन दिनों में भगवान का पूजन कर रहा है वह हवन सामग्री में गुड़, घी, काला तिल, जौ या साबुत चावल मिलाकर यज्ञ कर लें।
अब यह तो आप समझ ही गए होंगे कि स्त्रियों को मात्र अशुद्धि के लिए किचन या पूजन गृह में जाने के लिए नहीं रोका जाता था, वस्तुतः उन दिनों उन पर कठोर श्रम का दबाव न पड़े व अधिक विश्राम मिल सके इस हेतु उन्हें आराम दिया जाता था। नस-नाड़ियों में कोमलता बढ़ जाने से उन दिनों अधिक कड़ी मेहनत न करने की व्यवस्था स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए बनी है। नाक की घ्राण शक्तिं कमज़ोर होती है और पूरा शरीर उस वक्त कमज़ोरी झेलता है। पहले आटा चक्की नहीं थी अतः रसोई में भोजन का अर्थ होता था चक्की पीसना और धान कूटना, तब चूल्हे में लकड़ी काटकर भोजन पकाना। अत्यधिक श्रम साध्य होता था भोजन पकाना, अतः विश्राम हेतु भोजन पकाना मना था।
आध्यात्मिक शक्ति को धारण करने के लिए नसों और उपत्यिकाओं का एक्टिव होना अनिवार्य है। कमर सीधी रखना उपासना के दौरान अनिवार्य है। प्राण शक्ति/ ऊर्जा को धारण करने हेतु रजोदर्शन/अशौच के समय शरीर सक्षम नहीं होता। उपासना गृह प्राणऊर्जा को संग्रहित रखता है और सूक्ष्म प्राण ऊर्जा संग्रहित रखता है। अतः दुर्घटना से बचाव हेतु उपासना गृह में जाना और उपासना करना वर्जित है।
स्त्री को यदि मात्र इस कारण अशुद्ध माना जाय कि उनका मेंटिनेंस पीरियड आता है, तो उस मेंटिनेंस के रक्तमांस से बने बच्चे - पुरुष भला किस तरह पवित्र हो सकते हैं? अतः स्त्री प्रकृति की तरह नई सृष्टि को जन्मदेने की क्षमता धारण करने हेतु चन्द्र कलाओं, सूर्य की कलाओं और प्रकृति की कलाओं से 5 दिन तक जुड़कर स्वयं के मेंटेनेंस दौर से गुजरती है। इस दौरान किसी भी कारण से कोई व्यवधान किसी को उतपन्न नहीं करना चाहिए। स्त्री को पर्याप्त विश्राम देना चाहिए।
इन प्रचलनों को जहां माना जाता है वहां कारण को समझते हुए भी प्रतिबन्ध किस सीमा तक रहें इस पर विचार करना चाहिये। रुग्ण व्यक्ति प्रायः स्नान आदि के सामान्य नियमों का निर्वाह नहीं कर पाते और ज्वर, दस्त, खांसी आदि के कारण उनकी शारीरिक स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक मलीनता रहती है। रोगी परिचर्या के नियमों से अवगत व्यक्ति जानते हैं कि रोगी की सेवा करने वालों या सम्पर्क में आने वालों को सतर्कता, स्वेच्छा के नियमों का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। रोगी को भी दौड़-धूप से बचने और विश्राम करने की सुविधा दी जाती है। उसे कोई चाहे तो छूतछात भी कह सकते हैं। ऐसी ही स्थिति रजोदर्शन के दिनों में समझी जानी चाहिए और उसकी सावधानी बरतनी चाहिए।
तिल को ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं है। कारण और निवारण का बुद्धिसंगत ताल-मेल विवेकपूर्वक बिठाने में ही औचित्य है। शरीर के कतिपय अंग द्रवमल विसर्जन करते रहते हैं। पसीना, मूत्र, नाक, आंख आदि के छिद्रों से निकलने वाले द्रव भी प्रायः उसी स्तर के हैं जैसा कि ऋतुस्राव। चोट लगने पर भी रक्त निकलता रहता है। फोड़े फूटने आदि से भी प्रायः वैसी ही स्थिति होती है। इन अवसरों पर स्वच्छता के आवश्यक नियमों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बात का बतंगड़ बना देना अनावश्यक है। प्रथा-प्रचलनों में कई आवश्यक हैं कई अनावश्यक। कइयों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और कइयों की उपेक्षा की जानी चाहिए। सूतक और अशुद्धि के प्रश्न को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे कि प्रचलन कर्ताओं ने उसे आरम्भ किया था। उनका उद्देश्य उपासना जैसे आध्यात्मिक नित्यकर्म से किसी को विरत, वंचित करना नहीं वरन् यह था कि अशुद्धता सीमित रहे और स्त्री को उचित शारीरिक-मानसिक विश्राम मिले। आज भी जहां अशौच का वातावरण है वहीं सूतक माना जाय और शरीर से किये जाने वाले कृत्यों पर ही कोई रोकथाम की जाय। मन से उपासना करने पर तो कोई स्थिति बाधक नहीं हो सकती। इसलिए नित्य की उपासना मानसिक रूप से जारी रखी जा सकती है। पूजा-उपकरणों का स्पर्श न करना हो तो न भी करे।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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