Monday 3 February 2020

प्रश्न - *आयुर्वेद व यज्ञ-चिकित्सा(यग्योपैथी) में क्या सम्बंध है?*

प्रश्न - *आयुर्वेद व यज्ञ-चिकित्सा(यग्योपैथी) में क्या सम्बंध है?*

उत्तर - *‘‘यज्ञो वै विश्वस्य भुवनस्य नाभि:।’’ (ऋग्वेद)*

ब्रह्माण्ड की धुरी यज्ञ है।

गीता में भगवान कृष्ण ने यज्ञ को मनुष्य का जुड़वा भाई कहा है।

‘सहयज्ञा: प्रजा सृष्टा पुरोवाच: प्रजापति:। (गीता 3/10)

*यज्ञ का स्वरूप*

यज्ञ का वास्तविक स्वरूप बतलाते हुए  *युगऋषि पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी*  कहते हैं कि  *‘‘अध्यात्म और विज्ञान का प्रत्यक्ष समन्वय का माध्यम यज्ञ है। आत्मसंयम की तपश्चर्या और भावनात्मक केंन्द्रीकरण की योग-साधना का समन्वय जिस प्रकार ब्रह्मविद्या कहलाता है। उसे अध्यात्म विज्ञान का भावपक्ष कह सकते हैं। द्वितीय इसी ब्रह्मविद्या का क्रिया पक्ष यज्ञ है।’’*

‘यज्ञ विश्व बह्माण्ड’ की नाभि है- इसका तात्पर्य है कि *ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म तत्वों का पोषण एवं विकास यज्ञ से ही सम्भव है।*

👉🏻 *आयुर्वेद* (आयुः + वेद = आयुर्वेद) विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। *यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है*। *‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का अमृत रूपी ज्ञान’ और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है।* आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)
(अर्थात जिस ग्रंथ में - हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था) - इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।)
आयुर्वेद की परिभाषा एवं व्याख्या
आयुर्वेद विश्व में विद्यमान वह साहित्य है, जिसके अध्ययन पश्चात हम अपने ही निरोगी व सुखी जीवन शैली का निर्धारण कर सकते है।

आयुर्वेद में औषधियों का विस्तृत विज्ञान है। इन औषधियों के सेवन के कई माध्यम बनाये गए - मुख मार्ग से औषधियों के अर्क, वटी, शरीर पर लेपन और श्वांस मार्ग से नस्य (धूपन विधि)

चरक और सुश्रुत ने तो विधिवत नस्य विभाग(नाक से औषधीय धूम्र का सेवन) स्थापित किये थे। धन्वंतरि ने जटिलतम रोगों की इस प्रक्रिया द्वारा ठीक किया, ऐसे वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। वनौषधियों को देवोपम महत्ता देकर उनका सदुपयोग का जैसा वर्णन अध्यात्म ग्रंथों में किया गया है, उसे देखते हुए भारत के पुरातन गौरव के प्रति नतमस्तक हो जाना पड़ता है।

👉🏻 *यज्ञ-चिकित्सा में मन्त्र की भूमिका अहम है, औषधियों की पोटेंसी को अत्यंत उच्च लेवल पर प्राप्त करने की विधिव्यवस्था है।*

मननात् त्रायते इति मन्त्रः .............. जिसके मनन से त्राण(जीवन रक्षण) मिले वह मन्त्र है। यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है , जो ब्रह्माण्ड के किसी भी जीव, वनस्पति, औषधि इत्यादि के आन्तरिक और बाह्य चेतना जगत को आंदोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित कर देता है।

*मन्त्र के चिकित्सा के दौरान उपयोग के प्रमुख तत्व*

मन्त्र उपचार में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से काम करते है। इन चारों तथ्यों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहां उतने ही अनुपात में मन्त्र शक्ति का प्रतिफल , स्वास्थ्य लाभ और सिद्धि दृष्टिगत होगी:-
 1) ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द श्रृंखला का चयन और उसका विधिवत उच्चारण
2)साधक की संचित प्राणशक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश
3) मन्त्र-जाप में प्रयुक्त होने वाली भौतिक उपकरणों की सूक्ष्म शक्ति
 4) साधक की अपनी भावना, आस्था, श्रद्धा, विश्वास और उच्चस्तरीय लक्ष्य

यज्ञ-चिकित्सा के शोध के अनेकानेक आयाम हैं हविष्य धूम्र, यज्ञावशिष्ट, मंत्रोच्चार में सन्निहित शब्दशक्ति, याजक गणों का व्यक्तित्व एवं उपवास, मौन प्रायश्चित आदि रोगोपचार से जुड़ी तपश्चर्याएं। इन प्रयोजनों का शास्त्रों में उल्लेख तो है, पर उनके विधानों, अनुपातों और सतर्कताओं का वैसा उल्लेख नहीं मिलता, जिसके आधार पर समग्र उपचार बन पड़ने की निश्चतता रह सके। यज्ञ-विद्या को सांगोपांग बनाने के लिए शास्त्रों के सांकेतिक विधानों को वैज्ञानिक एंव सर्वांणपूर्ण बनाना होगा। यह कार्य पुरातन के आधुनिक शोध द्वारा ही संभव है।

ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में यज्ञ- चिकित्सा विज्ञान की अनुसंधान प्रक्रिया का शुभारंभ जिन पक्षों से किया गया है वे हैं यज्ञ से रोग निवारण, स्वास्थ्य, सवर्द्धन, प्रकृति संतुलन एवं वनस्पति संवर्द्धन, दैवी अनुकूलन, समाज, शिक्षण शक्ति जागरण तथा यज्ञ की विकृतियों एवं विसंगतियों में सुधार। शोध की परिधि असीम है, परन्तु प्रारम्भिक प्रयास के रूप में यज्ञ विज्ञान के इन्हीं प्रमुख आठ पक्षों को प्रयोग-परीक्षण की कसौटी पर रखा गया है। इन्हीं आधारों पर अनुसंधान परक पीएचडी देवसंस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार में प्रारम्भ किया गया।

*आयुर्वेद में भी औषधियों की पोटेंसी बढाने के लिए ऋषि मंत्रों का प्रयोग करते थे, वैसे ही यज्ञ में भी मन्त्र प्रयोग से औषधियों की पोटेंसी बढ़ाई जाती है। आयुर्वेद के रचयिता सभी ऋषि तपस्वी व साधक थे। वे यज्ञ की महत्ता जानते थे। हम यह भी कह सकते हैं कि आयुर्वेद का ही एक अंग - यज्ञ चिकित्सा विज्ञान है, या यज्ञ चिकित्सा विज्ञान का एक अंग आयुर्वेद है, दोनों कथन सही है क्योंकि आयुर्वेद व यज्ञ एक दूसरे के पूरक हैं। आयुर्वेद की ही रोग विशेष औषधियों को यज्ञाग्नि में मंत्रो सहित आहुति देकर औषधीय धूम्र तरङ्ग का निर्माण किया जाता है जो एकल चिकित्सा व सामूहिक चिकित्सा दोनों के लिए लाभप्रद है। यज्ञ ही मात्र एक ऐसा माध्यम है जिससे सामूहिक उपचार मनुष्य, जीव, वनस्पति एवं प्रकृति का उपचार सम्भव है। संक्रमण फ़ैलाने वाले वायरस को वातावरण से जड़ से नष्ट करने में यज्ञ ही एक मात्र सहायक है।*

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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