*गुरुवर तेरी कृपा से, जीवन आसान हो गया है।*
हे सद्गुरु! तेरी शरण में आकर,
बहुत कुछ बदल गया है,
क्रोधित लोगों के बीच भी,
अब शांत रहना आ गया है।
हर कोई यहां बेवज़ह उबल रहा है,
हर कोई क्रोध में बिफर रहा है,
घर हो या बाहर,
जन जन रौब जमा रहा है।
पहले यह सब मुझे,
सम्हालना मुश्किल होता था,
अब यह सब सम्हालना,
बड़ा आसान हो गया है।
घर हो या ऑफिस,
सर्वत्र झगड़े का कारण,
समझ आ गया है,
सब सहयोग चाहते हैं,
स्वयं सहयोग करना नहीं चाहते,
दूसरा उन्हें समझे,
यह तो चाहते हैं,
लेक़िन ख़ुद दूसरों को समझना,
स्वयं नहीं चाहते हैं,
सब दूसरों को नियंत्रित करने की,
एक बड़ी होड़ में हैं,
दूसरों के रिमोट ढूँढने,
सभी व्यस्त हो रहे हैं,
स्वयं के अनियन्त्रित मन को,
नियंत्रित करना भूल गए हैं,
स्वयं के मन का रिमोट तो,
ढूँढ ही नहीं रहे हैं,
स्वयं की भावनाओं-विचारणाओं को,
ऑन-ऑफ कर नहीं पा रहे हैं,
दूसरों को दोष देने में,
व्यर्थ समय नष्ट कर रहे हैं,
महानता के व्यामोह में,
बेवज़ह जी रहे हैं,
स्वयं के कार्य को महान,
और दूसरों को गौड़ कह रहे हैं।
अब सद्गुरु तेरी कृपा से,
स्वयं के अस्तित्व से जुड़ गई हूँ,
सहयोग माँगना छोड़,
सहयोग करने में जुट गई हूँ,
स्वयं को समझाने की जगह,
दूसरों को समझने में जुट गई हूँ,
स्वयं के मन का रिमोट ढूँढ रही हूँ,
स्वयं की भावनाओं-विचारणाओं को,
ऑन-ऑफ करना सीख रही हूँ
स्वयं को परिस्थिति से अलग करके,
देखना आ गया है,
ऑफिस हो या घर या हो भीड़,
सबके बीच भी,
तुझ परमात्मा से जुड़ना आ गया है,
भीड़ में भी ध्यानस्थ,
अब होना आ गया है।
हे गुरुवर तेरी कृपा से,
जीवन आसान हो गया है,
स्वयं की उलझनों को,
सुलझाना आ गया है,
कौन कहाँ उलझा है,
यह देखना आ गया है।
अब दूसरों को सुधारने में,
अब नहीं जुटती हूँ,
अब स्वयं ही सुधरने में,
तन्मयता से ध्यान देती हूँ,
अब परिवर्तन का,
स्वयं हिस्सा बनती हूँ,
स्वयं को समाज की,
एक इकाई मानती हूँ।
जान गई हूँ कि
बिन भाव सम्वेदना के,
शब्द प्रभावहीन हैं,
बिन आत्मियता विस्तार के,
जीवन अर्थहीन है,
तुम तो प्रभु केवल,
प्रेम भरे निर्मल भावों से बंधते हो,
तुम तो भक्तों की,
चेतना में ही उतरते हो।
जान गई हूँ,
प्रभु तुम्हारी कृपा से,
भाव सम्वेदना की गंगोत्री का रहस्य,
कण कण में तुम्हें अनुभूत करने का रहस्य,
जन जन में भी प्रभु तुम ही तो हो,
भाव सम्वेदना से तुम उनमें उभरते हो।
बस भागीरथी बन कर,
अब तप कर रही हूँ,
स्वयं में भाव सम्वेदना के जागरण का,
हर सम्भव प्रयत्न कर रही हूँ।
पता नहीं मंज़िल,
कब तक मिलेगी,
मग़र यह परिवर्तन की राह भी,
बहुत हृदय में सुकून दे रही है।
तुम्हारी कृपा से सदगुरू,
मेरी तो दुनियाँ बदल गयी है,
तुमसे जुड़कर सद्गुरु,
एक पूर्णता मिल गयी है।
स्वर्ग की अब अलग से,
कोई इच्छा शेष नहीं है,
धरती पर ही स्वर्ग की,
दिव्यतम अनुभूति जो हो रही है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
हे सद्गुरु! तेरी शरण में आकर,
बहुत कुछ बदल गया है,
क्रोधित लोगों के बीच भी,
अब शांत रहना आ गया है।
हर कोई यहां बेवज़ह उबल रहा है,
हर कोई क्रोध में बिफर रहा है,
घर हो या बाहर,
जन जन रौब जमा रहा है।
पहले यह सब मुझे,
सम्हालना मुश्किल होता था,
अब यह सब सम्हालना,
बड़ा आसान हो गया है।
घर हो या ऑफिस,
सर्वत्र झगड़े का कारण,
समझ आ गया है,
सब सहयोग चाहते हैं,
स्वयं सहयोग करना नहीं चाहते,
दूसरा उन्हें समझे,
यह तो चाहते हैं,
लेक़िन ख़ुद दूसरों को समझना,
स्वयं नहीं चाहते हैं,
सब दूसरों को नियंत्रित करने की,
एक बड़ी होड़ में हैं,
दूसरों के रिमोट ढूँढने,
सभी व्यस्त हो रहे हैं,
स्वयं के अनियन्त्रित मन को,
नियंत्रित करना भूल गए हैं,
स्वयं के मन का रिमोट तो,
ढूँढ ही नहीं रहे हैं,
स्वयं की भावनाओं-विचारणाओं को,
ऑन-ऑफ कर नहीं पा रहे हैं,
दूसरों को दोष देने में,
व्यर्थ समय नष्ट कर रहे हैं,
महानता के व्यामोह में,
बेवज़ह जी रहे हैं,
स्वयं के कार्य को महान,
और दूसरों को गौड़ कह रहे हैं।
अब सद्गुरु तेरी कृपा से,
स्वयं के अस्तित्व से जुड़ गई हूँ,
सहयोग माँगना छोड़,
सहयोग करने में जुट गई हूँ,
स्वयं को समझाने की जगह,
दूसरों को समझने में जुट गई हूँ,
स्वयं के मन का रिमोट ढूँढ रही हूँ,
स्वयं की भावनाओं-विचारणाओं को,
ऑन-ऑफ करना सीख रही हूँ
स्वयं को परिस्थिति से अलग करके,
देखना आ गया है,
ऑफिस हो या घर या हो भीड़,
सबके बीच भी,
तुझ परमात्मा से जुड़ना आ गया है,
भीड़ में भी ध्यानस्थ,
अब होना आ गया है।
हे गुरुवर तेरी कृपा से,
जीवन आसान हो गया है,
स्वयं की उलझनों को,
सुलझाना आ गया है,
कौन कहाँ उलझा है,
यह देखना आ गया है।
अब दूसरों को सुधारने में,
अब नहीं जुटती हूँ,
अब स्वयं ही सुधरने में,
तन्मयता से ध्यान देती हूँ,
अब परिवर्तन का,
स्वयं हिस्सा बनती हूँ,
स्वयं को समाज की,
एक इकाई मानती हूँ।
जान गई हूँ कि
बिन भाव सम्वेदना के,
शब्द प्रभावहीन हैं,
बिन आत्मियता विस्तार के,
जीवन अर्थहीन है,
तुम तो प्रभु केवल,
प्रेम भरे निर्मल भावों से बंधते हो,
तुम तो भक्तों की,
चेतना में ही उतरते हो।
जान गई हूँ,
प्रभु तुम्हारी कृपा से,
भाव सम्वेदना की गंगोत्री का रहस्य,
कण कण में तुम्हें अनुभूत करने का रहस्य,
जन जन में भी प्रभु तुम ही तो हो,
भाव सम्वेदना से तुम उनमें उभरते हो।
बस भागीरथी बन कर,
अब तप कर रही हूँ,
स्वयं में भाव सम्वेदना के जागरण का,
हर सम्भव प्रयत्न कर रही हूँ।
पता नहीं मंज़िल,
कब तक मिलेगी,
मग़र यह परिवर्तन की राह भी,
बहुत हृदय में सुकून दे रही है।
तुम्हारी कृपा से सदगुरू,
मेरी तो दुनियाँ बदल गयी है,
तुमसे जुड़कर सद्गुरु,
एक पूर्णता मिल गयी है।
स्वर्ग की अब अलग से,
कोई इच्छा शेष नहीं है,
धरती पर ही स्वर्ग की,
दिव्यतम अनुभूति जो हो रही है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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