प्रश्न - *भगवान साकार है या निराकार? साकार है तो कैसे? निराकार है तो कैसे?*
उत्तर- आत्मीय दी,
अग्नि निराकार है, मग़र दीप या मोमबत्ती में जलते हुए एक विशेष आकार की प्रतीत तो होती है।
अग्नि की तरह परमात्मा सर्वव्यापक व निराकार है, लेकिन जब वह अवतार लेता है तो वह अपना कभी 10 अंशो का अवतार राम रूप में कभी 16 अंशो का अवतार कृष्ण रूप में लेता है।
जब अर्जुन ने भगवान कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन का हठ किया तो भगवान ने कहा- अर्जुन स्थूल चमड़ी के नेत्रों से तुम मेरे विराट स्वरूप के दर्शन नहीँ कर सकते। कृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान चक्षु-भाव चक्षु दिए, तब उसने कण कण में व्याप्त परमात्मा को अनुभूत किया व दिव्य ज्ञान से समझा।
क्योंकि जो परमात्मा सर्वव्यापक है वह भला किसी एक आकार में सीमाबद्ध कैसे हो सकता है?
जल के तीन रूप तरल(जल), ठोस(बर्फ), गैस(वाष्प) है। जल की कुछ बूंदे बर्फ़ रूप में आकार लेती हैं, तो वह विराट जल का कुछ अंशावतार ही हुई न? लेक़िन क्या बर्फ़ साकार है? या निराकार है? क्या जल साकार है या निराकार है? क्या जल वाष्प साकार है या निराकार है?
परमात्मा जल की बूंदों के बर्फ़ के टुकड़ों में बदलने की तरह कुछ अंशो में स्वयं को साकार रूप में दृश्य आवश्यकता पड़ने पर करवा सकता है, आवश्यकता समाप्त होने पर पुनः वायुभूत जल वाष्प की तरह हो जाता है। उस निराकार ब्रह्म को एक आकार में केवल उतना ही समझना भूल ही है।
इस सम्बंध में एक बहुत सुंदर लेख अखण्डज्योति अगस्त 1985 में दिया है। इसे निम्नलिखित लिंक पर जाकर देखें। क्या कोई यह ठीक ठीक बता सकता है कि समुद्र में कुल कितना जल है? पूरे विश्व मे कुल कितना जल वाष्प है? पूरे हिमालय में कुल कितना बर्फ है? टोटल कितना जल स्रोत है? जब जल का ही अनुमान नहीं लग सकता और न ही उसे एक साथ देखा जा सकता है? तो सोचो इसे बनाने वाले और पूरे विश्व ब्रह्माण्ड को बनाने वाले को पूरा देखना व जानना क्या सम्भव किसी के लिए भी हो पायेगा?
इसीलिए वेदों ने नेति नेति कहा, वेद तो ब्रह्म की ओर इशारा मात्र है, वह तो वेदों से भी परे है।
जो कहता है, वह ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानता है वह वस्तुतः झूठ बोलता है। भला कोई पात्र निज पात्रता से अधिक जब जल नहीं भर सकता, तो मनुष्य जो कि स्वयं एक अंश है परमात्मा का वह निज पात्रता से अधिक कैसे उसे जान सकता है।
ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्म को पाया जा सकता है।
जिस प्रकार जल में मछली है और मछली के भीतर भी जल है। उसी तरह हम मनुष्य ब्रह्म के भीतर हैं और हम मनुष्यों के भीतर वह ब्रह्म है। हमें बस उसे भीतर जाकर पहचानना ही तो है। ढूंढना नहीं है मात्र पहचानना है, चाहे बाहर पहचान लो-जान लो या भीतर पहचान लो-जान लो।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर- आत्मीय दी,
अग्नि निराकार है, मग़र दीप या मोमबत्ती में जलते हुए एक विशेष आकार की प्रतीत तो होती है।
अग्नि की तरह परमात्मा सर्वव्यापक व निराकार है, लेकिन जब वह अवतार लेता है तो वह अपना कभी 10 अंशो का अवतार राम रूप में कभी 16 अंशो का अवतार कृष्ण रूप में लेता है।
जब अर्जुन ने भगवान कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन का हठ किया तो भगवान ने कहा- अर्जुन स्थूल चमड़ी के नेत्रों से तुम मेरे विराट स्वरूप के दर्शन नहीँ कर सकते। कृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान चक्षु-भाव चक्षु दिए, तब उसने कण कण में व्याप्त परमात्मा को अनुभूत किया व दिव्य ज्ञान से समझा।
क्योंकि जो परमात्मा सर्वव्यापक है वह भला किसी एक आकार में सीमाबद्ध कैसे हो सकता है?
जल के तीन रूप तरल(जल), ठोस(बर्फ), गैस(वाष्प) है। जल की कुछ बूंदे बर्फ़ रूप में आकार लेती हैं, तो वह विराट जल का कुछ अंशावतार ही हुई न? लेक़िन क्या बर्फ़ साकार है? या निराकार है? क्या जल साकार है या निराकार है? क्या जल वाष्प साकार है या निराकार है?
परमात्मा जल की बूंदों के बर्फ़ के टुकड़ों में बदलने की तरह कुछ अंशो में स्वयं को साकार रूप में दृश्य आवश्यकता पड़ने पर करवा सकता है, आवश्यकता समाप्त होने पर पुनः वायुभूत जल वाष्प की तरह हो जाता है। उस निराकार ब्रह्म को एक आकार में केवल उतना ही समझना भूल ही है।
इस सम्बंध में एक बहुत सुंदर लेख अखण्डज्योति अगस्त 1985 में दिया है। इसे निम्नलिखित लिंक पर जाकर देखें। क्या कोई यह ठीक ठीक बता सकता है कि समुद्र में कुल कितना जल है? पूरे विश्व मे कुल कितना जल वाष्प है? पूरे हिमालय में कुल कितना बर्फ है? टोटल कितना जल स्रोत है? जब जल का ही अनुमान नहीं लग सकता और न ही उसे एक साथ देखा जा सकता है? तो सोचो इसे बनाने वाले और पूरे विश्व ब्रह्माण्ड को बनाने वाले को पूरा देखना व जानना क्या सम्भव किसी के लिए भी हो पायेगा?
इसीलिए वेदों ने नेति नेति कहा, वेद तो ब्रह्म की ओर इशारा मात्र है, वह तो वेदों से भी परे है।
जो कहता है, वह ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानता है वह वस्तुतः झूठ बोलता है। भला कोई पात्र निज पात्रता से अधिक जब जल नहीं भर सकता, तो मनुष्य जो कि स्वयं एक अंश है परमात्मा का वह निज पात्रता से अधिक कैसे उसे जान सकता है।
ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्म को पाया जा सकता है।
जिस प्रकार जल में मछली है और मछली के भीतर भी जल है। उसी तरह हम मनुष्य ब्रह्म के भीतर हैं और हम मनुष्यों के भीतर वह ब्रह्म है। हमें बस उसे भीतर जाकर पहचानना ही तो है। ढूंढना नहीं है मात्र पहचानना है, चाहे बाहर पहचान लो-जान लो या भीतर पहचान लो-जान लो।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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