प्रश्न - *मृत्यु के बाद भौतिक शरीर अचेतन हो जाता है। कहा जाता है कि मृत्यु के बाद पांच प्राण बाहर निकल गए, और ऐसा भी कहते हैं कि आत्मा शरीर से बाहर चली गयी। क्या अंतर है आत्मा और प्राण में? ऐसा क्यों कहते हैं कि आत्मा को शांति-सद्गति मिले, ऐसा क्यों नहीं कहते कि प्राण को शांति-सद्गति मिले?*
उत्तर - आत्मीय भाई,
*आप जिसे ‘आत्मा’ कहते हैं, वह कोई इकाई नहीं है। लोगों में बस थोड़ी समझ पैदा करने के लिए हिन्दू संस्कृति में, ‘जो असीमित है,’ उसके लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दुर्भाग्य से इसे अब गलत अर्थों में समझा जाता है। जो असीमित है वह कभी भी एक इकाई नहीं हो सकता। लेकिन जैसे ही आप इसे एक नाम दे देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है। आप चाहे इसे ‘आत्मा’ कहें, ‘सोल’ कहें, ‘सेल्फ ’ कहें - आप इसे चाहे जो भी कहें - जैसे ही आप इसके साथ एक नाम जोड़ देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है। परमात्मा का एक अंश आत्मा है|*
आत्मा स्थूल शरीर की तरह ही जो उससे निकलते प्रकाश के शरीर को धारण किये होती है, उसे प्राण शरीर कहते हैं। मूल तत्व आत्म तत्व है, इसलिए मरणोपरांत आत्मा की शांति व सद्गति की बात की जाती है।
*इसे एक बड़े अग्निकुंड-चैतन्य महाउर्जा (परमात्मा ) से एक अग्नि ज्योति-चैतन्य ज्योति (आत्मा) का शरीर रुपी दीपक में स्थापित होना| फिर उस आत्मज्योति का प्रकाश फैलना, आत्मा से निकलता यह प्रकाश ही प्राण उर्जा है|* जिसमें अधिक उर्जा दिखती है हम उसे प्राणवान व्यक्ति कहते हैं, जिसमें कम होती है उसे हम कहते हैं कमजोर प्राण उर्जा का व्यक्ति, जिसमें मृत्यु के पश्चात प्राण उर्जा नहीं शेष रहती उसे हम प्राणहीन व्यक्ति कहते हैं| सूर्यास्त के बाद उसकी किरणों की विदाई हो जाती है, उन किरणों से उत्पन्न गर्मी भी समाप्त हो जाती है| इसीतरह मृत्यु के पश्चात् आत्मज्योति के शरीर त्यागने के बाद शरीर में सूर्यास्त हो जाता है, धीरे धीरे समस्त शरीर प्राणहीन होकर ठंडा पड़ने लगता है| जब प्राण उर्जा ही नहीं तो शरीर की समस्त गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती है| हीटर विद्युत् जाने के बाद जिस प्रकार धीरे धीरे ठंडा होता है, वैसे ही शरीर भी धीरे धीरे जीवन हीन होकर ठंडा पड़ता है|
सूर्य किरणों की तरह ही प्राण वस्तुत: अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति पृथक है। बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग आदि प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी जानने वाले जानते हैं कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ का एक स्फुरण कहा जाता है।
मानव शरीर में प्राण को दस भाग में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है। 5 मुख्य प्राण हैं (1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान। उपप्राणों को (1) देवदत्त (2) वृकल (3) कूर्म (4) नाग (5) धनंजय नाम दिया गया है।
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*मरने के बाद प्राणी की चेतना का क्या हश्र होता है, इसका निष्कर्ष निकालने के लिए अमेरिकी विज्ञान वेत्ताओं ने एक विशेष प्रकार का चेम्बर बनाया। भीतरी हवा पूरी तरह निकाल दी गई और एक रासायनिक कुहरा इस प्रकार का पैदा कर दिया गया, जिससे अन्दर की अणु हलचलों का फोटो विशेष रूप से बनाये गये कैमरे से लिए जा सके।*
*इस चेम्बर से सम्बद्ध एक छोटी पेटी में चूहा रखा गया और उसे बिजली से मारा गया। मरते ही उपरोक्त चेम्बर में जो फोटो लिये गये, उसमें अन्तरिक्ष में उड़ते हुए आणविक चूहे की तस्वीर आई। इसी प्रयोग श्रृंखला में दूसरे मेंढक, केकड़ा जैसे जीव मारे गये तो मरणोपरान्त उसी आकृति के अणु बादल में उड़ते देखे गये। यह सूक्ष्म शरीर हर प्राणधारी का होता है और मरने के उपरान्त भी वायुभूत होकर बना रहता है।*
टेलीपैथी, प्रीकागनीशन, क्लेयरवायेन्स, आकाल्ट साइंस, मेटाफिजिक्स प्रभृति विज्ञान धाराओं पर चल रहे प्रयोगों एवं अन्वेषणों से अब यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता चला जा रहा है कि शरीर की सत्ता तक ही मानवी-सत्ता सीमित नहीं। वह उससे अधिक और अतिरिक्त है तथा मरने के उपरान्त भी आत्मा का अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहता है। यह अस्तित्व किस रूप में रहता है—अभी उसका स्वरूप वैज्ञानिकों के बीच निर्धारण किया जाना शेष है। इलेक्ट्रानिक (विद्युतीय) एवं मैगनेटिक (चुम्बकीय) सत्ता के रूप में अभी वैज्ञानिक उसका अस्तित्व मानते हैं और ऐसी प्रकाश-ज्योति बताते हैं, जो आंखों से नहीं देखी जा सकती। डा. रह्मेन ने इस सन्दर्भ में जो शोध कार्य किया है, उससे आत्मा के अस्तित्व की इसी रूप में सिद्धि होती है उन्होंने ऐसी दर्जनों घटनाओं का उल्लेख किया है, जिसमें किन्हीं अदृश्य आत्माओं द्वारा जीवित मनुष्यों को ऐसे परामर्श, निर्देश एवं सहयोग दिये गये—जो अक्षरशः सच निकले और उनके लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।
यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य का शरीर कोशिकाओं से बना है। यह कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित अणुओं से बनी होती है। *यदि प्रोटोप्लाज्म को भी खण्डित किया जाए, जो जीवन पदार्थ का अन्तिम टुकड़ा होती है और जिसमें चेतना का स्पन्दन होता है, तो उनके भी साइटोप्लाज्म और न्यूक्लियस नामक दो खण्ड हो जाते हैं। साइटोप्लाज्म कोशिका से काट देने पर मृत हो जाता है पर न्यूक्लियस अर्थात् नाभिक अपनी सत्ता को पुनः विकसित कर लेने की क्षमता रखता है। इस नाभिक के बारे में विज्ञान अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं कर सका। यहां से भारतीय तत्व-ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है।*
शास्त्र कहता है ‘‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’’ अर्थात् यह आत्मा छोटे से भी छोटा और इतना विराट है कि उसमें समग्र सृष्टि नप जाती है। अणु के अन्दर समाविष्ट आत्मा की सत्यता का प्रमाण यही है कि जब वह पुनः किसी प्राणधारी के दृश्य पूर में विकसित होता है तो अपने सूक्ष्म (नाभिक शरीर) के ज्ञान की दिशा में बढ़ने लगता है।
प्रमाण, तर्क और वैज्ञानिक तथ्यों की कमी नहीं, यदि बुद्धिजीवी लोग श्रद्धा परायण आत्मा को जानने के इच्छुक नहीं तो प्रमाण परायण आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने में तो झिझक और हिचक न होनी चाहिए।
वैज्ञानिक धारणा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जैव-द्रव के सक्रिय परमाणुओं का समूह होता है, जो सारभूत रूप में करोड़ों वर्षों के जीव विकास क्रम की पुष्टि करता है। ये सक्रिय परमाणु सारे शरीर में उसकी अनुभूतियों में और मस्तिष्क में केन्द्रित होते हैं, इतना जान लेने के बाद विज्ञान अपने आप से प्रश्न करता है कि इन परमाणुओं की संरचना, गति और अनुभूतियों को रचने वाला, प्रेरणा देने और ग्रहण करने वाला कौन है? उनका उत्तर होता है—मौन। भारतीय-दर्शन वहीं से अध्यात्म का आविर्भाव मानता है और कहता है कि वह आत्मा है, आत्मा। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये।
http://literature.awgp.org/book/Punarjanam_Ek_Dhruv_Satya/v2.1
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई,
*आप जिसे ‘आत्मा’ कहते हैं, वह कोई इकाई नहीं है। लोगों में बस थोड़ी समझ पैदा करने के लिए हिन्दू संस्कृति में, ‘जो असीमित है,’ उसके लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दुर्भाग्य से इसे अब गलत अर्थों में समझा जाता है। जो असीमित है वह कभी भी एक इकाई नहीं हो सकता। लेकिन जैसे ही आप इसे एक नाम दे देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है। आप चाहे इसे ‘आत्मा’ कहें, ‘सोल’ कहें, ‘सेल्फ ’ कहें - आप इसे चाहे जो भी कहें - जैसे ही आप इसके साथ एक नाम जोड़ देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है। परमात्मा का एक अंश आत्मा है|*
आत्मा स्थूल शरीर की तरह ही जो उससे निकलते प्रकाश के शरीर को धारण किये होती है, उसे प्राण शरीर कहते हैं। मूल तत्व आत्म तत्व है, इसलिए मरणोपरांत आत्मा की शांति व सद्गति की बात की जाती है।
*इसे एक बड़े अग्निकुंड-चैतन्य महाउर्जा (परमात्मा ) से एक अग्नि ज्योति-चैतन्य ज्योति (आत्मा) का शरीर रुपी दीपक में स्थापित होना| फिर उस आत्मज्योति का प्रकाश फैलना, आत्मा से निकलता यह प्रकाश ही प्राण उर्जा है|* जिसमें अधिक उर्जा दिखती है हम उसे प्राणवान व्यक्ति कहते हैं, जिसमें कम होती है उसे हम कहते हैं कमजोर प्राण उर्जा का व्यक्ति, जिसमें मृत्यु के पश्चात प्राण उर्जा नहीं शेष रहती उसे हम प्राणहीन व्यक्ति कहते हैं| सूर्यास्त के बाद उसकी किरणों की विदाई हो जाती है, उन किरणों से उत्पन्न गर्मी भी समाप्त हो जाती है| इसीतरह मृत्यु के पश्चात् आत्मज्योति के शरीर त्यागने के बाद शरीर में सूर्यास्त हो जाता है, धीरे धीरे समस्त शरीर प्राणहीन होकर ठंडा पड़ने लगता है| जब प्राण उर्जा ही नहीं तो शरीर की समस्त गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती है| हीटर विद्युत् जाने के बाद जिस प्रकार धीरे धीरे ठंडा होता है, वैसे ही शरीर भी धीरे धीरे जीवन हीन होकर ठंडा पड़ता है|
सूर्य किरणों की तरह ही प्राण वस्तुत: अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति पृथक है। बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग आदि प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी जानने वाले जानते हैं कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ का एक स्फुरण कहा जाता है।
मानव शरीर में प्राण को दस भाग में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है। 5 मुख्य प्राण हैं (1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान। उपप्राणों को (1) देवदत्त (2) वृकल (3) कूर्म (4) नाग (5) धनंजय नाम दिया गया है।
👇👇
*मरने के बाद प्राणी की चेतना का क्या हश्र होता है, इसका निष्कर्ष निकालने के लिए अमेरिकी विज्ञान वेत्ताओं ने एक विशेष प्रकार का चेम्बर बनाया। भीतरी हवा पूरी तरह निकाल दी गई और एक रासायनिक कुहरा इस प्रकार का पैदा कर दिया गया, जिससे अन्दर की अणु हलचलों का फोटो विशेष रूप से बनाये गये कैमरे से लिए जा सके।*
*इस चेम्बर से सम्बद्ध एक छोटी पेटी में चूहा रखा गया और उसे बिजली से मारा गया। मरते ही उपरोक्त चेम्बर में जो फोटो लिये गये, उसमें अन्तरिक्ष में उड़ते हुए आणविक चूहे की तस्वीर आई। इसी प्रयोग श्रृंखला में दूसरे मेंढक, केकड़ा जैसे जीव मारे गये तो मरणोपरान्त उसी आकृति के अणु बादल में उड़ते देखे गये। यह सूक्ष्म शरीर हर प्राणधारी का होता है और मरने के उपरान्त भी वायुभूत होकर बना रहता है।*
टेलीपैथी, प्रीकागनीशन, क्लेयरवायेन्स, आकाल्ट साइंस, मेटाफिजिक्स प्रभृति विज्ञान धाराओं पर चल रहे प्रयोगों एवं अन्वेषणों से अब यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता चला जा रहा है कि शरीर की सत्ता तक ही मानवी-सत्ता सीमित नहीं। वह उससे अधिक और अतिरिक्त है तथा मरने के उपरान्त भी आत्मा का अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहता है। यह अस्तित्व किस रूप में रहता है—अभी उसका स्वरूप वैज्ञानिकों के बीच निर्धारण किया जाना शेष है। इलेक्ट्रानिक (विद्युतीय) एवं मैगनेटिक (चुम्बकीय) सत्ता के रूप में अभी वैज्ञानिक उसका अस्तित्व मानते हैं और ऐसी प्रकाश-ज्योति बताते हैं, जो आंखों से नहीं देखी जा सकती। डा. रह्मेन ने इस सन्दर्भ में जो शोध कार्य किया है, उससे आत्मा के अस्तित्व की इसी रूप में सिद्धि होती है उन्होंने ऐसी दर्जनों घटनाओं का उल्लेख किया है, जिसमें किन्हीं अदृश्य आत्माओं द्वारा जीवित मनुष्यों को ऐसे परामर्श, निर्देश एवं सहयोग दिये गये—जो अक्षरशः सच निकले और उनके लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।
यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य का शरीर कोशिकाओं से बना है। यह कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित अणुओं से बनी होती है। *यदि प्रोटोप्लाज्म को भी खण्डित किया जाए, जो जीवन पदार्थ का अन्तिम टुकड़ा होती है और जिसमें चेतना का स्पन्दन होता है, तो उनके भी साइटोप्लाज्म और न्यूक्लियस नामक दो खण्ड हो जाते हैं। साइटोप्लाज्म कोशिका से काट देने पर मृत हो जाता है पर न्यूक्लियस अर्थात् नाभिक अपनी सत्ता को पुनः विकसित कर लेने की क्षमता रखता है। इस नाभिक के बारे में विज्ञान अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं कर सका। यहां से भारतीय तत्व-ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है।*
शास्त्र कहता है ‘‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’’ अर्थात् यह आत्मा छोटे से भी छोटा और इतना विराट है कि उसमें समग्र सृष्टि नप जाती है। अणु के अन्दर समाविष्ट आत्मा की सत्यता का प्रमाण यही है कि जब वह पुनः किसी प्राणधारी के दृश्य पूर में विकसित होता है तो अपने सूक्ष्म (नाभिक शरीर) के ज्ञान की दिशा में बढ़ने लगता है।
प्रमाण, तर्क और वैज्ञानिक तथ्यों की कमी नहीं, यदि बुद्धिजीवी लोग श्रद्धा परायण आत्मा को जानने के इच्छुक नहीं तो प्रमाण परायण आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने में तो झिझक और हिचक न होनी चाहिए।
वैज्ञानिक धारणा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जैव-द्रव के सक्रिय परमाणुओं का समूह होता है, जो सारभूत रूप में करोड़ों वर्षों के जीव विकास क्रम की पुष्टि करता है। ये सक्रिय परमाणु सारे शरीर में उसकी अनुभूतियों में और मस्तिष्क में केन्द्रित होते हैं, इतना जान लेने के बाद विज्ञान अपने आप से प्रश्न करता है कि इन परमाणुओं की संरचना, गति और अनुभूतियों को रचने वाला, प्रेरणा देने और ग्रहण करने वाला कौन है? उनका उत्तर होता है—मौन। भारतीय-दर्शन वहीं से अध्यात्म का आविर्भाव मानता है और कहता है कि वह आत्मा है, आत्मा। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये।
http://literature.awgp.org/book/Punarjanam_Ek_Dhruv_Satya/v2.1
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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