प्रश्न- *गुरुगीता श्लोक १२४-१२५-आसक्तियों से रहित हो जाने पर तो कोई (लौकिक ) अभीष्ट तो शेष ही नहीं रहेंगे?*
उत्तर - आत्मीय भाई, गुरुगीता में भगवान शंकर और श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण एक ही बात कर रहे हैं, मोहदृष्टि त्यागकर तत्वदृष्टि विकसित करो- *कर्म करो मग़र उसमें कर्ता भाव त्याग दो, आसक्ति त्याग दो, मुक्त होकर कर्म करो, निमित्त बनकर कर्म करो, सभी कर्मो को श्रीगुरु अर्पणमस्तु या श्रीकृष्ण अर्पणमस्तु करके करो। तब कर्मबन्धन व भवबन्धन में नहीं फँसोगे।*
लौकिक कार्य और उत्तरदायित्व का वहन तो करना ही पड़ेगा।
स्थितप्रज्ञ व तत्वदृष्टि वाला व्यक्ति न बालक के जन्म पर अतिहर्षित होगा और न ही बालक की मृत्यु पर अतिशोकाकुल होगा। क्योंकि वह तत्वदृष्टि - आत्मज्ञान से जानता है कि यह तो आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र धारण और त्याग की एक प्रक्रिया मात्र है। वह किसी भी रिश्ते के मोह में नहीं बंधेगा, क्योंकि वह जानता है कि वह एक यात्रा में है, जिसका यह जीवन एक पड़ाव मात्र है। संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता का जिसे हर पल हर क्षण अनुभूति हो वह भला मोह के दलदल और कर्म की आसक्ति में क्यों पड़ेगा।
उदाहारण - शवदाह करने गए व्यक्ति सामने जलते प्रियजन के शरीर को देखते हुए वैराग्य भाव से उस क्षण भर उठते हैं। कोई लौकिक इच्छा उस पल मन में जन्म नहीं लेती। *प्रज्ञा यहां भी जगती है मगर अस्थिर है।*
*समस्या यह है कि श्मशान से बाहर आते ही माया पुनः हावी चित्त पर हो जाती है। इंसान में जगा वैराग्य भाव डस्टबिन में चला जाता है।*
लेकिन *जब गुरु आदेश पर शिष्य साधक बनकर परमतत्व का अवलोकन कर लेता है, तब जो प्रज्ञा(विशेष तत्व ज्ञान) जागती है वह स्थिर हो जाती है। तब इंसान स्थितप्रज्ञ हो जाता है।*
ऐसा शिष्य-साधक आशक्ति रहित, एकाकी(एकांत वासी संसार में रहकर भी संसार से परे), निस्पृह, शांत व स्थिर हो जाता है। फिर कोई लौकिक इच्छा शेष नहीं तो कुछ मिले या न मिले उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब कोई कामना ही नहीं तो चित्त में असंतुष्टि होगी नहीं।
उदाहरण - *पति ऑफिस से घर आते वक़्त एक विशेष भोजन की कामना और स्वागत की पत्नी से अपेक्षा रखकर आएगा। और यदि अपेक्षित स्वागत व भोजन मिला तो सुखी होगा और न मिला मिला तो क्रोधित व असंतुष्ट होगा।*
*लेकिन यदि वह स्थितप्रज्ञ हुआ और बिना किसी कामना व पूर्वाग्रह से घर आया तो न सुख की सृष्टि होगी न दुःख की। न ही असंतुष्ट का कोई भाव जगेगा। जो मिला वह पत्नी की इच्छा, बस उसमें ही संतुष्ट रहा। ऐसा नहीं कि भोजन यहां नहीं मिलेगा, भोजन मिलेगा भूख भी मिटेगी। मग़र कोई आसक्ति नहीं होगी।*
यही भक्त करता है, जो मिला प्रभु की इच्छा, गुरु इच्छा और उसी में संतुष्ट रहता है। आसक्ति रहित।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर - आत्मीय भाई, गुरुगीता में भगवान शंकर और श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण एक ही बात कर रहे हैं, मोहदृष्टि त्यागकर तत्वदृष्टि विकसित करो- *कर्म करो मग़र उसमें कर्ता भाव त्याग दो, आसक्ति त्याग दो, मुक्त होकर कर्म करो, निमित्त बनकर कर्म करो, सभी कर्मो को श्रीगुरु अर्पणमस्तु या श्रीकृष्ण अर्पणमस्तु करके करो। तब कर्मबन्धन व भवबन्धन में नहीं फँसोगे।*
लौकिक कार्य और उत्तरदायित्व का वहन तो करना ही पड़ेगा।
स्थितप्रज्ञ व तत्वदृष्टि वाला व्यक्ति न बालक के जन्म पर अतिहर्षित होगा और न ही बालक की मृत्यु पर अतिशोकाकुल होगा। क्योंकि वह तत्वदृष्टि - आत्मज्ञान से जानता है कि यह तो आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र धारण और त्याग की एक प्रक्रिया मात्र है। वह किसी भी रिश्ते के मोह में नहीं बंधेगा, क्योंकि वह जानता है कि वह एक यात्रा में है, जिसका यह जीवन एक पड़ाव मात्र है। संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता का जिसे हर पल हर क्षण अनुभूति हो वह भला मोह के दलदल और कर्म की आसक्ति में क्यों पड़ेगा।
उदाहारण - शवदाह करने गए व्यक्ति सामने जलते प्रियजन के शरीर को देखते हुए वैराग्य भाव से उस क्षण भर उठते हैं। कोई लौकिक इच्छा उस पल मन में जन्म नहीं लेती। *प्रज्ञा यहां भी जगती है मगर अस्थिर है।*
*समस्या यह है कि श्मशान से बाहर आते ही माया पुनः हावी चित्त पर हो जाती है। इंसान में जगा वैराग्य भाव डस्टबिन में चला जाता है।*
लेकिन *जब गुरु आदेश पर शिष्य साधक बनकर परमतत्व का अवलोकन कर लेता है, तब जो प्रज्ञा(विशेष तत्व ज्ञान) जागती है वह स्थिर हो जाती है। तब इंसान स्थितप्रज्ञ हो जाता है।*
ऐसा शिष्य-साधक आशक्ति रहित, एकाकी(एकांत वासी संसार में रहकर भी संसार से परे), निस्पृह, शांत व स्थिर हो जाता है। फिर कोई लौकिक इच्छा शेष नहीं तो कुछ मिले या न मिले उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब कोई कामना ही नहीं तो चित्त में असंतुष्टि होगी नहीं।
उदाहरण - *पति ऑफिस से घर आते वक़्त एक विशेष भोजन की कामना और स्वागत की पत्नी से अपेक्षा रखकर आएगा। और यदि अपेक्षित स्वागत व भोजन मिला तो सुखी होगा और न मिला मिला तो क्रोधित व असंतुष्ट होगा।*
*लेकिन यदि वह स्थितप्रज्ञ हुआ और बिना किसी कामना व पूर्वाग्रह से घर आया तो न सुख की सृष्टि होगी न दुःख की। न ही असंतुष्ट का कोई भाव जगेगा। जो मिला वह पत्नी की इच्छा, बस उसमें ही संतुष्ट रहा। ऐसा नहीं कि भोजन यहां नहीं मिलेगा, भोजन मिलेगा भूख भी मिटेगी। मग़र कोई आसक्ति नहीं होगी।*
यही भक्त करता है, जो मिला प्रभु की इच्छा, गुरु इच्छा और उसी में संतुष्ट रहता है। आसक्ति रहित।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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