प्रश्न- *गुरुगीता श्लोक १२९,१३० vs १३२, १३४,१३५,१३६- गुरूगीता का उपयोग लौकिक कार्य के लिए नहीं करना चाहिए कहा गया है। अन्य श्लोको में इसके विधिपूर्वक जप से लौकिक उपलब्धियों का वर्णन है।*
उत्तर - आत्मीय भाई, भगवान शंकर कहते हैं केवल स्वार्थप्रेरित उच्च महत्वाकांक्षा और अश्रेयस्कर लौकिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु गुरुगीता का पाठ अनुष्ठान नहीं करना चाहिए।
लेकिन ऐसे लौकिक कार्य जो परमार्थ प्रेरित हो, उपयोगी हों, श्रेष्ठ हों, जनकल्याण व आत्मकल्याण निमित्त हों, उस हेतु गुरुगीता का पाठ अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए।
इसे और स्पष्टीकरण से समझने हेतु कर्मकांड भाष्कर में जन्मदिन सँस्कार में वर्णित तीन जीवन सूत्र समझिए :-
1- *ॐ श्रेयसां पथे चरिष्यामि*। (जीवन को कल्याणकारी मार्ग पर चलाएंगे)
2- *ॐ परमार्थ मेव स्वार्थ मनिष्ये* - परमार्थ को ही स्वार्थ मानेंगे।
3- *ॐ महत्त्वाकांक्षा सिमितं विधास्यामि*- हम महत्त्वाकांक्षा को सिमित रखेंगे।
ऋषि भागीरथ का तप गंगा अवतरण का मात्र निज पूर्वजों के मुक्ति हेतु तक सिमित नहीं था, अपितु वह परमार्थ भावना से भर उठे जब उन्हें पता चला कि गंगा जल इतना पावन है कि इसके आचमन व स्नान से, रुद्राभिषेक से मुक्ति सम्भव है। चाहिए तो गंगा को एक कुंड में आवाहित कर मात्र पूर्वजो पर छिड़ककर इतिश्री कर लेते। मग़र उन्होंने गंगा को जन साधारण के लिए उपलब्ध करवाया, धरती पर सदा सर्वदा के लिए उपलब्ध करवाया।
ऐसे ही परमार्थ प्रेरित लौकिक कार्य हेतु गुरुगीता पाठ अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए।
सन्त-साधक-शिष्य का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ प्रेरित होता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर - आत्मीय भाई, भगवान शंकर कहते हैं केवल स्वार्थप्रेरित उच्च महत्वाकांक्षा और अश्रेयस्कर लौकिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु गुरुगीता का पाठ अनुष्ठान नहीं करना चाहिए।
लेकिन ऐसे लौकिक कार्य जो परमार्थ प्रेरित हो, उपयोगी हों, श्रेष्ठ हों, जनकल्याण व आत्मकल्याण निमित्त हों, उस हेतु गुरुगीता का पाठ अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए।
इसे और स्पष्टीकरण से समझने हेतु कर्मकांड भाष्कर में जन्मदिन सँस्कार में वर्णित तीन जीवन सूत्र समझिए :-
1- *ॐ श्रेयसां पथे चरिष्यामि*। (जीवन को कल्याणकारी मार्ग पर चलाएंगे)
2- *ॐ परमार्थ मेव स्वार्थ मनिष्ये* - परमार्थ को ही स्वार्थ मानेंगे।
3- *ॐ महत्त्वाकांक्षा सिमितं विधास्यामि*- हम महत्त्वाकांक्षा को सिमित रखेंगे।
ऋषि भागीरथ का तप गंगा अवतरण का मात्र निज पूर्वजों के मुक्ति हेतु तक सिमित नहीं था, अपितु वह परमार्थ भावना से भर उठे जब उन्हें पता चला कि गंगा जल इतना पावन है कि इसके आचमन व स्नान से, रुद्राभिषेक से मुक्ति सम्भव है। चाहिए तो गंगा को एक कुंड में आवाहित कर मात्र पूर्वजो पर छिड़ककर इतिश्री कर लेते। मग़र उन्होंने गंगा को जन साधारण के लिए उपलब्ध करवाया, धरती पर सदा सर्वदा के लिए उपलब्ध करवाया।
ऐसे ही परमार्थ प्रेरित लौकिक कार्य हेतु गुरुगीता पाठ अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए।
सन्त-साधक-शिष्य का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ प्रेरित होता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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