प्रश्न- *गुरुगीता श्लोक ११६ - ब्रह्म की प्राप्ति सब भाँति अगम्य है तो उसके प्राप्ति के लिए इतने साधन -साधना का विवेचन अन्य कई श्लोक में क्यों? चूँकि वह तो अनुभूति जन्य है?*
उत्तर- श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन द्वारा विराट स्वरूप के दर्शन की इच्छा पर भगवान ने कहा कि इन स्थूल चक्षुओं से तुम मुझे नहीं देख सकते। क्योंकि मैं अगम्य व अगोचर हूँ।
तब भगवान ने अर्जुन को भाव दृष्टि-ज्ञान दृष्टि-दिव्य दृष्टि दी, जिससे वह प्रभु की विराटता को समझ सके।
इसीलिए वेदों ने नेति नेति कहा, वेद तो ब्रह्म की ओर इशारा मात्र है, वह तो वेदों से भी परे है।
जो कहता है, वह ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानता है वह वस्तुतः झूठ बोलता है। भला कोई पात्र निज पात्रता से अधिक जब जल नहीं भर सकता, तो मनुष्य जो कि स्वयं एक अंश है परमात्मा का वह निज पात्रता से अधिक कैसे उसे जान सकता है। क्या कोई गोताखोर समुद्र की गहराई माप सकता भला?
ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्म को पाया जा सकता है।
जिस प्रकार जल में मछली है और मछली के भीतर भी जल है। उसी तरह हम मनुष्य ब्रह्म के भीतर हैं और हम मनुष्यों के भीतर वह ब्रह्म है। हमें बस उसे भीतर जाकर पहचानना ही तो है। ढूंढना नहीं है मात्र पहचानना है, चाहे बाहर पहचान लो-जान लो या भीतर पहचान लो-जान लो।
इसी कथन को गुरुगीता के श्लोक 116 में कहा गया है:-
अगोचरं तथा S गम्यं नाम रूप विवर्जितं।
निःशब्दम् तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म पार्वती।।
जिस प्रकार अथाह समुद्र पर रिसर्च करने के लिए उसे प्रयोगशाला में लाकर रिसर्च सम्भव नहीं है। लेकिन उसकी कुछ बूंदों को बीकर में डालकर रिसर्च किया जा सकता है। जल के गुण कर्म स्वभाव को समझा जा सकता है।
इसी तरह वह अगोचर अगम्य व बुद्धि की सीमा से परे ब्रह्म को पूरा का पूरा जानना सम्भव नहीं, लेकिन उस ब्रह्म की कुछ बूंदे हमारी आत्मा स्वयं है।स्वयं के शरीर को ऋषि मुनि प्रयोगशाला बनाकर विभीन्न तप साधनों से स्वयं की आत्मा जो कि परमात्मा का ही अंश है को जानने में जुटते हैं और ब्रह्म को जानने में उन्हें मदद मिलने लगती है।
*तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म* - उस ब्रह्म को जानना है तो पहले स्वयं को जानो, क्योंकि उस तक पहुंचने का मार्ग तुम्हारे भीतर ही है। आत्मा व परमात्मा एक दूसरे से जुड़े हैं। समुद्र की बूंद के गुण कर्म स्वभाव, पूरे समुद्र के जल के गुण कर्म स्वभाव की जानकारी दे देते हैं।जब स्वयं की आत्मा का ज्ञान साधक पा लेता है तो वह ब्रह्म के अस्तित्व को भी समझने लगता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर- श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन द्वारा विराट स्वरूप के दर्शन की इच्छा पर भगवान ने कहा कि इन स्थूल चक्षुओं से तुम मुझे नहीं देख सकते। क्योंकि मैं अगम्य व अगोचर हूँ।
तब भगवान ने अर्जुन को भाव दृष्टि-ज्ञान दृष्टि-दिव्य दृष्टि दी, जिससे वह प्रभु की विराटता को समझ सके।
इसीलिए वेदों ने नेति नेति कहा, वेद तो ब्रह्म की ओर इशारा मात्र है, वह तो वेदों से भी परे है।
जो कहता है, वह ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानता है वह वस्तुतः झूठ बोलता है। भला कोई पात्र निज पात्रता से अधिक जब जल नहीं भर सकता, तो मनुष्य जो कि स्वयं एक अंश है परमात्मा का वह निज पात्रता से अधिक कैसे उसे जान सकता है। क्या कोई गोताखोर समुद्र की गहराई माप सकता भला?
ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्म को पाया जा सकता है।
जिस प्रकार जल में मछली है और मछली के भीतर भी जल है। उसी तरह हम मनुष्य ब्रह्म के भीतर हैं और हम मनुष्यों के भीतर वह ब्रह्म है। हमें बस उसे भीतर जाकर पहचानना ही तो है। ढूंढना नहीं है मात्र पहचानना है, चाहे बाहर पहचान लो-जान लो या भीतर पहचान लो-जान लो।
इसी कथन को गुरुगीता के श्लोक 116 में कहा गया है:-
अगोचरं तथा S गम्यं नाम रूप विवर्जितं।
निःशब्दम् तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म पार्वती।।
जिस प्रकार अथाह समुद्र पर रिसर्च करने के लिए उसे प्रयोगशाला में लाकर रिसर्च सम्भव नहीं है। लेकिन उसकी कुछ बूंदों को बीकर में डालकर रिसर्च किया जा सकता है। जल के गुण कर्म स्वभाव को समझा जा सकता है।
इसी तरह वह अगोचर अगम्य व बुद्धि की सीमा से परे ब्रह्म को पूरा का पूरा जानना सम्भव नहीं, लेकिन उस ब्रह्म की कुछ बूंदे हमारी आत्मा स्वयं है।स्वयं के शरीर को ऋषि मुनि प्रयोगशाला बनाकर विभीन्न तप साधनों से स्वयं की आत्मा जो कि परमात्मा का ही अंश है को जानने में जुटते हैं और ब्रह्म को जानने में उन्हें मदद मिलने लगती है।
*तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म* - उस ब्रह्म को जानना है तो पहले स्वयं को जानो, क्योंकि उस तक पहुंचने का मार्ग तुम्हारे भीतर ही है। आत्मा व परमात्मा एक दूसरे से जुड़े हैं। समुद्र की बूंद के गुण कर्म स्वभाव, पूरे समुद्र के जल के गुण कर्म स्वभाव की जानकारी दे देते हैं।जब स्वयं की आत्मा का ज्ञान साधक पा लेता है तो वह ब्रह्म के अस्तित्व को भी समझने लगता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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