*कभी-कभी अज्ञानी भी धर्म को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। जिनके पास धर्म नहीं है, उन्हें धर्म को बचाने की फिक्र ज्यादा होती है।*
आश्रम में नियम था कि सभी बौद्ध भिक्षु सूरज छिपने से पहले सामूहिक रूप से भोजन कर लें, जिससे एक-दूसरे के खाने का पता रहे। लेकिन यहां का गुरु हमेशा सूरज ढलने के बाद ही अपने झोपड़े के दरवाजे बंद करके रात को भोजन करता। वहां का सम्राट गुरु का शिष्य था। खबर सम्राट तक पहुंची, सम्राट ने कहा यह तो पाप हो रहा है। सम्राट को संदेह हुआ कहीं गुरु रात को छिपकर कुछ पकवान या मिष्ठान्न तो नहीं खा रहा है, जो भिक्षु के लिए वर्जित हो। सम्राट रात को गुरु के झोपड़े में पहुंचा, क्योंकि उसको लग रहा था धर्म खतरे में है, धर्म को बचाना है। *कभी-कभी अज्ञानी भी धर्म को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। जिनके पास धर्म नहीं है, उन्हें धर्म को बचाने की फिक्र ज्यादा होती है।*
सम्राट गुरु के झोपड़े में पहुंचा जहां गुरु कटोरे में हाथ डाल कर कुछ खाने की कोशिश कर रहा था, सम्राट को देखते ही गुरु ने कटोरे को कपड़े से ढंक लिया। सम्राट ने गुरु से पूछा क्या खा रहे हो। गुरु ने कपड़ा हटा दिया। पात्र में सब्जियों की डंडियां और सड़े-गले पत्ते थे, जो सभी शिष्य फेंक देते थे, उनको उबाले हुए थे। सम्राट दुखी हो गया। *गुरु ने कहा, क्या तुम सोचते हो गलत को ही छिपाया जाता है? सही को भी छिपाना पड़ता है। तुम गलत को छिपाते हो, हम सही को छिपाते हैं, तुम सही को इसलिए प्रगट करते हो, क्योंकि उससे अहंकार बढ़ता है*। सम्राट बोला- ‘यह घास-पात खाने के लिए छिपाने की क्या जरूरत थी?’
गुरु हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मैं जानता था, आज नहीं कल तुम आओगे, क्योंकि तुम सबकी छोटी सोच है। ब्रह्माण्ड विराट है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन आज मैं आश्रम को छोड़ रहा हूं, अब तुम संभालो और धर्म की रक्षा करो। सिर्फ वही गुरु शिष्य को बदल सकता है, जो शिष्य की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं चलता। जो शिष्य के पीछे चलता है, वह गुरु, शिष्य को नहीं बदल सकता। शिष्य को चाहिए कि वो बिना अपेक्षा किए गुरु के पीछे चलता रह। गुरु के व्यवहार से गुरु को नापना नहीं चाहिए, क्योंकि हो सकता है, गुरु द्वारा व्यवहार का ढोंग सिर्फ शिष्य के लिए आयोजित किया हो। *चमकी आंखों से गुरु की ज्योति, महिमा और गुरु का बुद्धत्व दिखाई नहीं पड़ता। गुरु की जिंदगी खुली किताब नहीं होती। गुरु जो करे वो कभी न करो, बल्कि जो गुरु कहे वो करो, तभी शिष्य की उन्नत्ति हो सकती है।*
इन पढ़े लिखे मूर्खों व षड्यंत्रकारियों को लगता है कि वह धर्म बचा रहे हैं, वस्तुतः वह धर्म के अस्तित्व को मिटा रहे होते हैं।
रावण भी महान शिव भक्त बनने के अहंकार में शिव जी का कैलाश उखाड़ने और लँका लाकर मनमानी तरह से कार्य करने की कुचेष्टा की। इन सबकी गुरुदेब के प्रति रावणी भक्ति है। ऐसे भक्त गुरु के अनुसाशन में स्वयं नहीं चलते, अपितु गुरु को स्वयं के बनाये नियमों पर चलाना चाहते हैं।
आश्रम में नियम था कि सभी बौद्ध भिक्षु सूरज छिपने से पहले सामूहिक रूप से भोजन कर लें, जिससे एक-दूसरे के खाने का पता रहे। लेकिन यहां का गुरु हमेशा सूरज ढलने के बाद ही अपने झोपड़े के दरवाजे बंद करके रात को भोजन करता। वहां का सम्राट गुरु का शिष्य था। खबर सम्राट तक पहुंची, सम्राट ने कहा यह तो पाप हो रहा है। सम्राट को संदेह हुआ कहीं गुरु रात को छिपकर कुछ पकवान या मिष्ठान्न तो नहीं खा रहा है, जो भिक्षु के लिए वर्जित हो। सम्राट रात को गुरु के झोपड़े में पहुंचा, क्योंकि उसको लग रहा था धर्म खतरे में है, धर्म को बचाना है। *कभी-कभी अज्ञानी भी धर्म को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। जिनके पास धर्म नहीं है, उन्हें धर्म को बचाने की फिक्र ज्यादा होती है।*
सम्राट गुरु के झोपड़े में पहुंचा जहां गुरु कटोरे में हाथ डाल कर कुछ खाने की कोशिश कर रहा था, सम्राट को देखते ही गुरु ने कटोरे को कपड़े से ढंक लिया। सम्राट ने गुरु से पूछा क्या खा रहे हो। गुरु ने कपड़ा हटा दिया। पात्र में सब्जियों की डंडियां और सड़े-गले पत्ते थे, जो सभी शिष्य फेंक देते थे, उनको उबाले हुए थे। सम्राट दुखी हो गया। *गुरु ने कहा, क्या तुम सोचते हो गलत को ही छिपाया जाता है? सही को भी छिपाना पड़ता है। तुम गलत को छिपाते हो, हम सही को छिपाते हैं, तुम सही को इसलिए प्रगट करते हो, क्योंकि उससे अहंकार बढ़ता है*। सम्राट बोला- ‘यह घास-पात खाने के लिए छिपाने की क्या जरूरत थी?’
गुरु हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मैं जानता था, आज नहीं कल तुम आओगे, क्योंकि तुम सबकी छोटी सोच है। ब्रह्माण्ड विराट है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन आज मैं आश्रम को छोड़ रहा हूं, अब तुम संभालो और धर्म की रक्षा करो। सिर्फ वही गुरु शिष्य को बदल सकता है, जो शिष्य की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं चलता। जो शिष्य के पीछे चलता है, वह गुरु, शिष्य को नहीं बदल सकता। शिष्य को चाहिए कि वो बिना अपेक्षा किए गुरु के पीछे चलता रह। गुरु के व्यवहार से गुरु को नापना नहीं चाहिए, क्योंकि हो सकता है, गुरु द्वारा व्यवहार का ढोंग सिर्फ शिष्य के लिए आयोजित किया हो। *चमकी आंखों से गुरु की ज्योति, महिमा और गुरु का बुद्धत्व दिखाई नहीं पड़ता। गुरु की जिंदगी खुली किताब नहीं होती। गुरु जो करे वो कभी न करो, बल्कि जो गुरु कहे वो करो, तभी शिष्य की उन्नत्ति हो सकती है।*
इन पढ़े लिखे मूर्खों व षड्यंत्रकारियों को लगता है कि वह धर्म बचा रहे हैं, वस्तुतः वह धर्म के अस्तित्व को मिटा रहे होते हैं।
रावण भी महान शिव भक्त बनने के अहंकार में शिव जी का कैलाश उखाड़ने और लँका लाकर मनमानी तरह से कार्य करने की कुचेष्टा की। इन सबकी गुरुदेब के प्रति रावणी भक्ति है। ऐसे भक्त गुरु के अनुसाशन में स्वयं नहीं चलते, अपितु गुरु को स्वयं के बनाये नियमों पर चलाना चाहते हैं।
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