Friday 12 June 2020

जो अहंकार विहिन वह ही सन्यासी*

*जो अहंकार विहिन वह ही सन्यासी*

एक युवा डॉक्टर संसार त्याग सन्यासी बनने की चाह में हिमालयीन सद्गुरु पास पहुंचा।

गुरु ने कहा - पुत्र सन्यास का अर्थ है, अहंकार का त्याग करना है। अहंकार का उत्तपत्ति पहचान जोड़ने होती है। समस्त पहचान से मुक्ति।

*उदाहरण* - परछाई का अस्तित्व नहीं है, इसी तरह अहंकार का अस्तित्व नहीं है। जब सूर्य के समक्ष कांच कोई परछाई नहीं बनती क्योंकि वह प्रकाश  को आरपार जाने देता है, ऐसे ऑब्जेक्ट सूर्य की रौशनी स्वयं तक रोकते जाने से रोकते हैं उनकी परछाई बनती है। इंसान एक ऐसा ऑब्जेक्ट सूर्य की रौशनी रोकता है, उसकी परछाई बनती है। वह जब चलता है उसे ऐसा भ्रम होता है कि परछाई उसका पीछा कर रही है। लेकिन परछाई प्रत्येक पल बदल रही है, नई किरणें पड़ रही, वह शरीर तक आकर रुक गई, परछाई बन गयी।

जब जब तुम पद प्रतिष्ठा धन संपदा परिवार से अपनी पहचान जोड़ोगे तब तब संसारी अहंकार ग्रसित होगा। या जब जब तप त्याग तपस्या ज्ञान सेवाकर्मो से अपनी पहचान आध्यात्मिक अहंकार ग्रसित होंगे। दोनों विधियों से सन्यास भंग हो जाएगा।

तुम अकर्म करना काँच की तरह बन जाना, नीली रौशनी या पीली रौशनी या अन्य रँग की ख़ुद से होकर गुजार देना और मुझ तक आने देना। यही गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन कहा, जो भी कर्म करना निमित्त बनकर करना, सभी कर्मो अर्पण कर देना। ईश्वरीय अनुसाशन जीवन पालन करना।

कर्ताभाव से कोई कार्य करोगे तो अहंकार की परछाई बनेगी, निमित्त बनकर निःश्वार्थ भाव से सेवा कार्य करोगे। कांच की तरह तुम्हारी कोई परछाई नहीं बनेगी। तुम्हारे ईश्वरीय प्रकाश झलकता दिखाई देगा।

जब कोई तुम्हारे लिए ताली बजाए या गाली दे तो उसे सद्गुरु अर्पणमस्तु या श्रीहरि अर्पणमस्तु कर देना।

सन्यास दीक्षा बाद गुरु ने उससे तीन वर्षो  तप-साधना करवा के उसे संसार की सेवा के लिए संसार भेज दिया।

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सन्यासी युवा चिकित्सक तो था ही, सुदूर ग़ांव गया। सेवा कार्य लग गया। ग्रामोत्थान लग गया। ग़ांव में स्वास्थ समृद्धि बढ़ गयी, सब ग्रामीण खुश हुए। सब चौपाल युवा सन्यासी प्रवचन सुनते, जहां लोग उससे अपनी समस्या खुश होकर जाते। सब युवा सन्यासी का बहुत सम्मान करते। जो भी तालियां व सम्मान युवा सन्यासी मिलता वह सबको गुरु चरणों मे श्रीगुरु अर्पनमस्तु कर देता। ऐसे कई वर्ष बीत गए।

एक दिन सुबह लोगों गालियाँ सुनकर चौक उठ गया। लट्ठ लिए लोग खड़े थे, उन सबने घर व औषधालय सब जला दिया। आठ दस लट्ठ युवा सन्यासी मारा, रक्त धार फुट पड़ी। युवा सन्यासी ने विनम्र शांत स्वभाव से ग्राम वासियों से कहा जितना मारना मार लो, जितनी गालियां देनी दे लो। कृपाकर यह तो बताओ मेरा अपराध क्या है?

एक वृद्ध ने नवजात शिशु को युवा सन्यासी की गोदी थमाते हुए उससे बोला, शर्म नहीं आती गाँव की लड़की कुंवारी माँ बना दिया, सन्यासी नहीं हो, तुम ढोंगी ढोंगी हो। युवा सन्यासी ने बच्चा देखा मुस्कुराया - *मन ही मन बोला - सद्गुरु अर्पणमस्तु*। शायद मेरी परीक्षा लेने यह नन्हे देवदूत गुरूकृपा से आये हैं। बच्चा उसके पास छोड़कर ग़ांव वाले चले गए। बच्चा भूख रोने लगा। घर और औषधालय जल चुका। युवा सन्यासी उस बच्चे की भूख मिटाने घर घर भिक्षाटन दूध मांगने लगा। जो लोग उसके चरण छूते थे, सम्मान दृष्टि देखते थे। वह उसे गालियां देते और उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर देते।

जितनी गालियाँ मिलती - उतनी गुरु अर्पणमस्तु कर देता, ठीक वैसे ही जैसे वह तालिया व सम्मान श्रीगुरु अर्पनमस्तु करता था। अंत मे उस लड़की के घर पहुंचा जिसका वह बच्चा था, वह सन्यासी लड़की को पहचानता भी न था। लड़की से सहज भाव से कहा - बहन जितनी गालियां देनी है मुझे दे दो, यह बच्चा सुबह से भूखा है। मेरे अपराध की सज़ा इस अबोध मत दो। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। इस पर दया करो। इस बच्चे को थोड़ा दूध दे दो। लड़की ग्लानि भर उठी, स्वयं को रोक न सकी। बच्चा सन्यासी हाथ लिया, दो मैं दूध पिला कर लाती हूँ और दूध पिलाने के ले गयी। सन्यासी दरवाज़े खड़ा रहा। इतने में लड़की पिता बाहर से आया, पुनः जोर जोर से सन्यासी गाली देते बोला, तुम्हारी इतनी हिम्मत जिसकी इज्जत भंग की उसके घर भिक्षा मांगने आये हो। लडक़ी बच्चा लेकर बाहर आई और रोते रोते सब सत्य समस्त ग्रामवासियों को बताया कि मैंने आप सबके क्रोध अपनी प्रेमी की जान बचाने के लिए झूठ बोला- यह कि निर्दोष निष्पाप सन्यासी मेरे बच्चे के बच्चे पिता है। जिससे मेरे प्रेमी इस बच्चे के असली पिता शहर के बाहर जाने का वक़्त मिल जाये। अब शहर वह पहुंच गया है। मुझे हे सन्यासी! क्षमा कर दो। मुझे अंदाजा नहीं था यह ग़ांव वाले इतनी दुर्दशा करेंगे। यह आपकी सेवा कार्य भूल जाएंगे। मैं अपने कुकृत्य शर्मिंदा हूँ। समस्त ग़ांव इकट्ठा हो गया। लड़की की अपराध स्वीकृति सुनकर सारा ग्राम ग्लानि भर गया। जिस सन्यासी हमारे उत्थान में वर्षो खर्च किये, जो हमारा सम्मानीय था। हमने झूठे आरोप के चलते इन पर कितना अत्याचार किया। सब चरणों पुनः गिर गए। पुनः सन्यासी ने सबकी क्षमा व ग्लानि को सद्गुरु अर्पनमस्तु कर दिया।

सब ग्राम वालों कहा - आपने बताया क्यों नहीं यह बच्चा आपका नहीं है? आप ने सफाई क्यों नहीं दी? हाय हमें तो नरक मिलेगा, निष्पाप निष्कलंक युवा सन्यासी को मारा पीटा और सबकुछ जला दिया। सुबह अन्न जल तक नहीं दिया।

सन्यासी शान्त स्वर में कहा - क्रोध भरे  व्यक्तियों सफाई देने की आवश्यकता नहीं होती। सत्य परेशान हो सकता, पराजित नहीं। सत्य में आसीन व्यक्ति को सफाई देने की आवश्यकता नहीं होती।

मैं लड़की झूठे आरोप मजबूरी समझ चुका था, वह प्रेमी को बचाना चाहती थी। तुम लोग जिस अपराध के लिए मुझे पीट चुके थे, घर और औषधालय जला चुके। सफाई देता, तो तुम लोग उसके प्रेमी जिंदा नहीं छोड़ते, उसका घर व दुकान जला देते, उसके परिवार को भी प्रताड़ित करते । यदि सचमुच तुम सबको मुझे  पीटने व मेरा अपमान की ग्लानि है, तुम उस लड़की के प्रेमी क्षमा कर दो, उन दोनों का विवाह करवा दो।

फ़िर बच्चे को गोद लेते और उसे प्रणाम करते हुए बोला - हे नन्हे देवदूत! क्या आपकी मैं परीक्षा में पास हुआ? आपने जो जीवन की शिक्षा दी उसके लिए धन्यवाद। आपने सब पाप और पुण्य सब बराबर कर दिया।

वह सन्यासी ग़ांव वालो अपराध बोध से मुक्त कर उन्हें क्षमा करके अपनी यात्रा बढ़ गया।

अभी गाँव पार करके आगे बढ़ा ही था एक वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाए उसके सदगुरु बैठे हुए मिले, उसने गुरु श्रीचरणों में प्रणाम किया, गुरु ने प्यार भरा हाथ उसके सर पर रखा। गुरु ने गद गद स्वर में मुस्कुराते कहा, तुमने "मैँ" के होने और "किसी भी संसारी व आध्यात्मिक पहचान की परछाई के अहंकार"  मुक्त हो गए हो।  गुरु से मिली प्रसंशा को श्रीगुरु अर्पणमस्तु कर दिया। "गुरु सेवा सौभाग्य" और "गुरु की इच्छा की पूर्ति" के लिए दिशा निर्देश माँगा। जो आदेश मिला उसे पूरा करने चल पड़ा।

🙏🏻 श्वेता, DIYA

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