*अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार*
किसी भी स्थान में या यात्रा में जाने से पूर्व उसकी जानकारी आवश्यक है। पहले प्रयोजन मन स्पष्ट करें कि जाना क्यों है? वह कहाँ जाना है? फिर क्रमशः आयोजन मन मे स्पष्ट करें व रूपरेखा बनाएं कि कैसे जाना है, कौन सा वाहन व कौन सा मार्ग चयन करना है? कब तक पहुंचना है? सम्भावित समय सीमा क्या होगी? प्रायः एक शहर से दूसरे शहर जाने पर भी हम यह स्पष्ट समझ कर चलते हैं, फ़िर अध्यात्म क्षेत्र की यात्रा में यह स्पष्टता करने में विलम्ब क्यों?
ईश्वर प्राप्ति, मुक्ति, परलोक सुख इत्यादि कामनाएं लेकर अधिकतर अध्यात्म पथिक अध्यात्म पथ पर चल पड़ते हैं। परंतु अधिकांश को गंतव्य स्थान के सम्बंध में, लक्ष्य इत्यादी के सम्बंध में कुछ विशेष जानकारी नहीं होती। अधिकतर तो भ्रम में होते हैं इसलिए पथ भटक जाते हैं।
युगऋषि ने पुस्तक - *अध्यात्म विद्या के प्रवेश द्वार* में अध्यात्म मार्ग की शुरुआती रूपरेखा स्पष्ट की है। यदि यह पुस्तक आप पढ़ते हैं तो कम से कम किसी के बहकावे में नहीं आएंगे और कभी अध्यात्म जीवन में भटकाव नहीं आएगा।
*ब्रह्मा के चार मुख* - ब्रह्म, ईश्वर, विष्णु और भगवान
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*ब्रह्म* - तत्वमसि, सो$हम, अयमात्मा ब्रह्म, I am that इत्यादि सूत्रों का अर्थ यही है कि हमारी आत्मा उसी परमात्मा का अंश है। हम वही हैं, वह बनने के लिए साधना व पुरुषार्थ करना होगा। देवत्व बीज रूप में है, उसे वृक्ष बनाने का समय, साधन व पुरुषार्थ चाहिए। मन का स्थान हृदय से 24 अंगुल की दूरी पर है, जितना मन आत्मा के निकट आएगा उतना आनन्द वर्षा से भीगेगा। मछली को जल चाहिए और आत्मा को आनंद चाहिए। मछली जल के बिना तड़फती है, आत्मा आनंद के बिना अतृप्त व असंतुष्ट होता है। ब्रह्म को सरस्वती (ज्ञान) की साधना द्वारा जानने में सहायता मिलती है। *मैं कौन हूँ?* यह जानने के लिए स्वयं को साधना पड़ेगा।
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*ईश्वर* - इस विश्व के मूल में एक शासक, संचालक, एवं प्रेरक सत्ता। एक नियामक सत्ता - अर्धनारीश्वर-प्रकृति व पुरूष-शिव व शक्ति की तरह है। देवता व राक्षस में कोई भेद नहीं। जो नियमानुसार चलेगा लाभान्वित होगा। अग्नि के नियम समझ लो, तो भोजन पका लो। नियम न समझे तो जलना निश्चित है। प्राकृतिक भोजन करो स्वास्थ्य पा लो, अप्राकृतिक भोजन करो रोग उतपन्न कर लो। नियम की अवहेलना पर दण्ड निश्चित है। विनाश निश्चित है। यह सबको ईश्वर अर्थात स्वामी बनने की छूट देता है, प्रकृति के नियम को समझ कर अविष्कार करने की छूट देता है।
ईश्वरवादी इस तथ्य को भलीभांति समझते हैं कि - *ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।* अतः वह ईश्वरीय कृपा के लिए उनके नियमों को देखते, परखते व तदनुसार कार्य करके अपनी सीमा तय करते हैं। do & don't - क्या करना है व क्या नहीं करना है, इसकी लिस्ट बना लेते हैं। वह सुख सौभाग्य प्राप्त करते हैं।
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*विष्णु* - संसार में एक संतुलन शक्ति कार्य कर रही है। यह पालन, पोषण व संतुलन की शक्ति है। यह विष्णु शक्ति हमेशा - लक्ष्मी शक्ति के साथ कार्य करती है। विष्णु के चार हाथ - सुंदरता, सम्पन्नता, सद्बुद्धि और सात्विकता के प्रतीक है।
विष्णु उपासक जानते हैं - सुख की उत्तपत्ति दूसरों को सुख देने से उतपन्न होती है।
*वैष्णव जन तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे* - समाज का लाभ, संसार की सेवा, विश्व की समृद्धि और विश्वमानव की सुख शांति के लिए सच्चे मन से प्रयत्नशील मनुष्य ही विष्णु की कृपा का अधिकारी होता है।
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*भगवान* - जिसका रिमोट कंट्रोल भक्त का हृदय होता है। जितना निर्मल मन और सच्ची भक्ति उतना ही भगवान भक्त के वश में होता है। भगवान बिना भक्त के अस्तित्व में नहीं आता। भाप जल से कितना बनेगा यह तो पानी कितना उबाला जाएगा उस पर निर्भर करता है। वैसे भगवान वही है मग़र वह कितने अंशो में प्रकट होगा व अनुदान वरदान देगा यह भक्त की भक्ति पर निर्भर करता है। भक्त नहीं तो भगवान भी नहीं, भक्ति है तो कंकर में शंकर, यदि भक्ति नहीं तो शंकर भी कंकर प्रतीत होगा, वैसा ही फ़लित होगा।
भगवान का आकार प्रक्रार, रूप रंग, उम्र, सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। भगवान नंद गोपाल बाल रूप में दिखेंगे या जगतगुरु युवा कृष्ण सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। वह भक्त के साथ, मित्र, पिता इत्यादि किस रूप में होंगे यह भी भक्त की भक्ति भावना पर निर्भर है। भगवान माता रूप में होगा या पिता रूप में यह भी भक्त की भक्ति भावना तय करती है।
भगवान बाहर से नहीं मनुष्य के भीतर उसके अंतर्जगत से भक्ति भावना से प्रकट होता है, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति-भावना, इच्छाशक्ति व दृढ़संकल्प से मनुष्य के भीतर से ही प्रकट होता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
किसी भी स्थान में या यात्रा में जाने से पूर्व उसकी जानकारी आवश्यक है। पहले प्रयोजन मन स्पष्ट करें कि जाना क्यों है? वह कहाँ जाना है? फिर क्रमशः आयोजन मन मे स्पष्ट करें व रूपरेखा बनाएं कि कैसे जाना है, कौन सा वाहन व कौन सा मार्ग चयन करना है? कब तक पहुंचना है? सम्भावित समय सीमा क्या होगी? प्रायः एक शहर से दूसरे शहर जाने पर भी हम यह स्पष्ट समझ कर चलते हैं, फ़िर अध्यात्म क्षेत्र की यात्रा में यह स्पष्टता करने में विलम्ब क्यों?
ईश्वर प्राप्ति, मुक्ति, परलोक सुख इत्यादि कामनाएं लेकर अधिकतर अध्यात्म पथिक अध्यात्म पथ पर चल पड़ते हैं। परंतु अधिकांश को गंतव्य स्थान के सम्बंध में, लक्ष्य इत्यादी के सम्बंध में कुछ विशेष जानकारी नहीं होती। अधिकतर तो भ्रम में होते हैं इसलिए पथ भटक जाते हैं।
युगऋषि ने पुस्तक - *अध्यात्म विद्या के प्रवेश द्वार* में अध्यात्म मार्ग की शुरुआती रूपरेखा स्पष्ट की है। यदि यह पुस्तक आप पढ़ते हैं तो कम से कम किसी के बहकावे में नहीं आएंगे और कभी अध्यात्म जीवन में भटकाव नहीं आएगा।
*ब्रह्मा के चार मुख* - ब्रह्म, ईश्वर, विष्णु और भगवान
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*ब्रह्म* - तत्वमसि, सो$हम, अयमात्मा ब्रह्म, I am that इत्यादि सूत्रों का अर्थ यही है कि हमारी आत्मा उसी परमात्मा का अंश है। हम वही हैं, वह बनने के लिए साधना व पुरुषार्थ करना होगा। देवत्व बीज रूप में है, उसे वृक्ष बनाने का समय, साधन व पुरुषार्थ चाहिए। मन का स्थान हृदय से 24 अंगुल की दूरी पर है, जितना मन आत्मा के निकट आएगा उतना आनन्द वर्षा से भीगेगा। मछली को जल चाहिए और आत्मा को आनंद चाहिए। मछली जल के बिना तड़फती है, आत्मा आनंद के बिना अतृप्त व असंतुष्ट होता है। ब्रह्म को सरस्वती (ज्ञान) की साधना द्वारा जानने में सहायता मिलती है। *मैं कौन हूँ?* यह जानने के लिए स्वयं को साधना पड़ेगा।
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*ईश्वर* - इस विश्व के मूल में एक शासक, संचालक, एवं प्रेरक सत्ता। एक नियामक सत्ता - अर्धनारीश्वर-प्रकृति व पुरूष-शिव व शक्ति की तरह है। देवता व राक्षस में कोई भेद नहीं। जो नियमानुसार चलेगा लाभान्वित होगा। अग्नि के नियम समझ लो, तो भोजन पका लो। नियम न समझे तो जलना निश्चित है। प्राकृतिक भोजन करो स्वास्थ्य पा लो, अप्राकृतिक भोजन करो रोग उतपन्न कर लो। नियम की अवहेलना पर दण्ड निश्चित है। विनाश निश्चित है। यह सबको ईश्वर अर्थात स्वामी बनने की छूट देता है, प्रकृति के नियम को समझ कर अविष्कार करने की छूट देता है।
ईश्वरवादी इस तथ्य को भलीभांति समझते हैं कि - *ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।* अतः वह ईश्वरीय कृपा के लिए उनके नियमों को देखते, परखते व तदनुसार कार्य करके अपनी सीमा तय करते हैं। do & don't - क्या करना है व क्या नहीं करना है, इसकी लिस्ट बना लेते हैं। वह सुख सौभाग्य प्राप्त करते हैं।
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*विष्णु* - संसार में एक संतुलन शक्ति कार्य कर रही है। यह पालन, पोषण व संतुलन की शक्ति है। यह विष्णु शक्ति हमेशा - लक्ष्मी शक्ति के साथ कार्य करती है। विष्णु के चार हाथ - सुंदरता, सम्पन्नता, सद्बुद्धि और सात्विकता के प्रतीक है।
विष्णु उपासक जानते हैं - सुख की उत्तपत्ति दूसरों को सुख देने से उतपन्न होती है।
*वैष्णव जन तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे* - समाज का लाभ, संसार की सेवा, विश्व की समृद्धि और विश्वमानव की सुख शांति के लिए सच्चे मन से प्रयत्नशील मनुष्य ही विष्णु की कृपा का अधिकारी होता है।
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*भगवान* - जिसका रिमोट कंट्रोल भक्त का हृदय होता है। जितना निर्मल मन और सच्ची भक्ति उतना ही भगवान भक्त के वश में होता है। भगवान बिना भक्त के अस्तित्व में नहीं आता। भाप जल से कितना बनेगा यह तो पानी कितना उबाला जाएगा उस पर निर्भर करता है। वैसे भगवान वही है मग़र वह कितने अंशो में प्रकट होगा व अनुदान वरदान देगा यह भक्त की भक्ति पर निर्भर करता है। भक्त नहीं तो भगवान भी नहीं, भक्ति है तो कंकर में शंकर, यदि भक्ति नहीं तो शंकर भी कंकर प्रतीत होगा, वैसा ही फ़लित होगा।
भगवान का आकार प्रक्रार, रूप रंग, उम्र, सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। भगवान नंद गोपाल बाल रूप में दिखेंगे या जगतगुरु युवा कृष्ण सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। वह भक्त के साथ, मित्र, पिता इत्यादि किस रूप में होंगे यह भी भक्त की भक्ति भावना पर निर्भर है। भगवान माता रूप में होगा या पिता रूप में यह भी भक्त की भक्ति भावना तय करती है।
भगवान बाहर से नहीं मनुष्य के भीतर उसके अंतर्जगत से भक्ति भावना से प्रकट होता है, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति-भावना, इच्छाशक्ति व दृढ़संकल्प से मनुष्य के भीतर से ही प्रकट होता है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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