Tuesday 23 June 2020

प्रश्न - *मृतक भोज रीति है या कुरीति? मृतक भोज का औचित्य क्या है? क्या इससे मृतक को सद्गति मिलती है?*

प्रश्न -   *मृतक भोज रीति है या कुरीति? मृतक भोज का औचित्य क्या है? क्या इससे मृतक को सद्गति मिलती है?*

उत्तर - आत्मीय बहन, नकली फूलों से असली फूलों सी सुगंध नहीं आती। वैसे ही मात्र जन्म से ब्राह्मण नकली फूल की तरह हैं, इनको पूजना व इनसे मंत्रोच्चार घर में शुद्धि हेतु करवाना व इन्हें पूजकर भोजन करवाने से शुद्धि नहीं होती।

जिन व्यक्तियों से मृतक आत्मा को प्रेम नहीं उनके जमावड़े से व उन्हें भोजन करवाने से उसे सुखानुभूति नहीं होती। मृतक आत्मा मरने के बाद दस से 12 दिनों में केवल प्रियजन को देखना चाहते हैं, जो रक्तसम्बन्धी है या जिन्होंने जीते जी उन्हें सुख दिया हो।

गरुण पुराण व अन्य शास्त्रों के अनुसार आत्मा मृत्यु के बाद 10 दिनों तक घर में रहती है। 12 वें दिन प्रस्थान कर जाती है। 13 वें दिन के इष्टमित्रों के भोज लोग स्वेच्छिक रूप से करते हैं, तेरहवें दिन के मृतक भोज का कोई विवरण शास्त्रों में नहीं मिलता।

अतः दसवें दिन महाब्राह्मण जो मृतक के समस्त कर्म करता है, उन्हें भोजन करवाया जाता है। बारहवें दिन या तेरहवें दिन ब्राह्मणों जो तपस्वी हों, नित्य यज्ञ करते हों, गायत्री की तीनों संध्या में पूजन करते हों और लोककल्याण में जीवन खर्च कर रहे हों, जो संचय न करते हों। ऐसे ब्राह्मण जब घर में मंत्रोच्चार करते हैं तो इनकी कायिक ऊर्जा विषाद व नकारात्मक ऊर्जा नष्ट करती है। यह आत्मा से मौन सम्वाद करके उन्हें ज्ञान देकर आत्मा व उनके प्रियजन के शोक का नाश करते हैं।

ऊर्जा विज्ञान को पढ़ने वाले जानते हैं कि साधक तपस्वी सात्विक ऊर्जा का विकिरण करते हैं, जिससे आत्मा शांत व तृप्त होती है। उसे आगे मार्ग में जाने के लिए ऊर्जा मिलती है।

नकली ब्राह्मण और जो साधना नहीं करता वह नकली पुष्प की तरह होता है, सकारात्मक ऊर्जा के विकिरण में अक्षम होता है।

जैसे डॉक्टर का बेटा मात्र डॉक्टर के घर में जन्म लेने मात्र से डॉक्टर नहीं बनता। वैसे ही ब्राह्मण एक ऊर्जावान आत्मप्रकाशित ब्रह्म में रमने वाला लोकसेवी व्यक्ति होता है। उसकी उपस्थिति शोक का नाश करती है। केवल जन्मने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता, ब्राह्मण बनने के लिए ब्राह्मणोचित कर्म करके साधक बनना होता है।

नकली ब्राह्मण व मृतक आत्मा से नकली प्रेम प्रदर्शित करने वालों को भोजन करवाने का कोई फ़ायदा नहीं। यह मात्र धन का अपव्यव है।

तेरहवीं का मृतक भोज इष्ट मित्रों को करवाने का विवरण किसी शास्त्र में वर्णन नहीं है, अतः यह रूढ़िवादी परम्परा कही जाएगी। इसका कोई फायदा नहीं है।

जिसने मृतक आत्मा की कभी कोई सहायता नहीं की, वह उसे प्रिय नहीं था। ऐसा व्यक्ति यदि मृतक भोज खाता है, तो पाप का भागीदार बनता है, अपनी ऊर्जा नष्ट करता है।

कर्ज लेकर किया दान पुण्य फ़लित नहीं होता। अतः जितना आर्थिक खर्च स्वेच्छा से दान पुण्य हेतु कर सकते हैं उतना ही करें। हमारे देश मे प्रचलित - *लोग क्या कहेंगे?* मनोरोग से ग्रसित न हों। परम्पराओं की जगह विवेक को महत्त्व दें।

यदि किसी ने उम्र भर कोई पुण्य कर्म नहीं किया है, तो केवल मृतक भोज करवाने मात्र से उसे मुक्ति नहीं मिलने वाली। मुक्ति के लिए जीवित रहते हुए स्वयं के लिए पुण्य परमार्थ स्वयं ही करने होते हैं।

🙏🏻श्वेता, DIYA

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