*दिया ऊपर प्रकाश व दिया तले अँधेरा*
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एक टीचर को दूसरे के बच्चों को पढ़ाने व ज्ञानवान बनाने में दिक़्क़त उतनी नहीं होती जितना उसे स्वयं के बच्चे को पढ़ाने व सम्हालने में होती है। टीचर के रूप में कही जिन बातों का महत्त्व विद्यार्थी पर पड़ता है, जरूरी नहीं वही महत्त्व बच्चे पर पड़े।
एक आध्यात्मिक गुरु जो लोगों के जीवन में अध्यात्म का प्रकाश लाकर अँधेरा दूर करता है, लाखों फ़ॉलोअर हों, लाखों लोग उसको अपना आदर्श मानते हों। मग़र हो सकता है कि उसकी सन्तान व उसका जीवनसाथी उसे अपना न आदर्श माने। उसकी सलाह की अवहेलना करे।
ऐसे में हैरान- परेशान होने की जरूरत नहीं है। यह विचार भी मन में लाने की जरूरत नहीं कि लोग क्या कहेंगे कि अपने घरवालों को तो सुधार नहीं पाए और बाहरवालों को ज्ञान बाँट रहे हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, सूर्य उदय होता है तो उसकी रौशनी उसी घर में प्रवेश कर पाती है जिसके खिड़की दरवाज़े खुले हों। किसी व्यक्ति के ज्ञान का प्रकाश किसी अन्य व्यक्ति के हृदय तक तभी पहुंचेगा जब वह अपने हृदय के खिड़की दरवाज़े खोलेगा। घर के सदस्य तभी ज्ञान से आलोकित होंगे जब वह अपने हृदय शिष्य की तरह अपने घर मे विद्यमान सत्ता के लिए खोलेंगे।
देवत्व व असुरत्व युक्त प्रवृत्तियां एक ही घर के सदस्य हो सकते हैं। यदि असुरत्व अत्यधिक अपराध के स्तर का है तो उसका सर्वथा त्याग उचित है।
तुलसीदास जी कहते हैं:-
*जाके प्रिय न राम वैदेही*,
*तजिये ताहि कोटि वैरी सम*,
*जद्यपि परम स्नेही।*
देवता वह है जो जन जन की पीड़ा दूर करे। पर सेवा में ही सुख समझें। लोककल्याण में निरत रहे।
असुर वह है जो जन जन को पीड़ा दे, उन्हें तड़फाये। पर पीड़ा को सुख समझें। लूटपाट व दूसरों को दुःख पहुंचाने में निरत रहे।
यदि कोई घोर अपराधी व असुर प्रवृत्ति का है व न स्वयं धर्म मार्ग पर है और न ही धर्म का पालन आपको करने दे रहा है। आपको व समाज को पके फ़ोड़े की तरह पीड़ा दे रहा है। ऐसे परपीड़ा में सुख लेने वाले असुर का त्याग कर देना चाहिए। वह पति रूप में हो या पत्नी रूप में हो उससे कानून तलाक़ व उसका सर्वथा त्याग उचित है। वह पुत्र हो या पुत्री उसका त्याग व उसका निष्कासन सर्वथा उचित है।
दिया तले अंधेरा होने से उसके प्रकाश के महत्त्व को कम कभी नहीं आँका जाता। इसी तरह आप एक स्वतंत्र आत्मा हैं, यदि आपके घर में कोई असुर प्रवृत्ति अपराधी है तो इससे आपका महत्त्व कम नहीं होता। यदि उसे सुधारने के आपके प्रयत्न विफ़ल रहे तो भी आपका महत्त्व कम नहीं होता।
जलन्धर राक्षस की पत्नी तुलसी से तपस्वी व पवित्र कोई संसार में नहीं था। उसके तपबल से जलन्धर अजेय था व लोगों पर अत्याचार करता था। तुलसी सदैव उसे धर्ममार्ग में लाने का प्रयत्न करती रहीं मग़र विफ़ल रहीं। तो इससे तुलसी का महत्त्व कम नहीं होता।
🙏🏻आप दिया हैं सूर्य की रौशनी को स्वयं में धारण किये हुए हैं। जन जन को प्रकाशित करने के लिए स्वयं तप की अगन में जल रहे हो। जो अंधे नहीं है वह आपके प्रकाशस्वरूप व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक होंगे। जो स्वार्थ व मोह में अंधे हैं वह प्रकाश नहीं देख सकेंगे, उनकी दृष्टि दिया के ऊपर उसके प्रकाश की ओर नहीं होगी, उसके तल के अंधेरे पर केंद्रित होगी। तो ऐसे अंधों के कहने पर दिया बन जलने के कार्य को नहीं छोड़ना चाहिए। दिया बन प्रकाश फ़ैलाते रहना चाहिए, लोगों को राह दिखाते रहना चाहिए।🙏🏻
🙏🏻श्वेता, DIYA
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एक टीचर को दूसरे के बच्चों को पढ़ाने व ज्ञानवान बनाने में दिक़्क़त उतनी नहीं होती जितना उसे स्वयं के बच्चे को पढ़ाने व सम्हालने में होती है। टीचर के रूप में कही जिन बातों का महत्त्व विद्यार्थी पर पड़ता है, जरूरी नहीं वही महत्त्व बच्चे पर पड़े।
एक आध्यात्मिक गुरु जो लोगों के जीवन में अध्यात्म का प्रकाश लाकर अँधेरा दूर करता है, लाखों फ़ॉलोअर हों, लाखों लोग उसको अपना आदर्श मानते हों। मग़र हो सकता है कि उसकी सन्तान व उसका जीवनसाथी उसे अपना न आदर्श माने। उसकी सलाह की अवहेलना करे।
ऐसे में हैरान- परेशान होने की जरूरत नहीं है। यह विचार भी मन में लाने की जरूरत नहीं कि लोग क्या कहेंगे कि अपने घरवालों को तो सुधार नहीं पाए और बाहरवालों को ज्ञान बाँट रहे हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, सूर्य उदय होता है तो उसकी रौशनी उसी घर में प्रवेश कर पाती है जिसके खिड़की दरवाज़े खुले हों। किसी व्यक्ति के ज्ञान का प्रकाश किसी अन्य व्यक्ति के हृदय तक तभी पहुंचेगा जब वह अपने हृदय के खिड़की दरवाज़े खोलेगा। घर के सदस्य तभी ज्ञान से आलोकित होंगे जब वह अपने हृदय शिष्य की तरह अपने घर मे विद्यमान सत्ता के लिए खोलेंगे।
देवत्व व असुरत्व युक्त प्रवृत्तियां एक ही घर के सदस्य हो सकते हैं। यदि असुरत्व अत्यधिक अपराध के स्तर का है तो उसका सर्वथा त्याग उचित है।
तुलसीदास जी कहते हैं:-
*जाके प्रिय न राम वैदेही*,
*तजिये ताहि कोटि वैरी सम*,
*जद्यपि परम स्नेही।*
देवता वह है जो जन जन की पीड़ा दूर करे। पर सेवा में ही सुख समझें। लोककल्याण में निरत रहे।
असुर वह है जो जन जन को पीड़ा दे, उन्हें तड़फाये। पर पीड़ा को सुख समझें। लूटपाट व दूसरों को दुःख पहुंचाने में निरत रहे।
यदि कोई घोर अपराधी व असुर प्रवृत्ति का है व न स्वयं धर्म मार्ग पर है और न ही धर्म का पालन आपको करने दे रहा है। आपको व समाज को पके फ़ोड़े की तरह पीड़ा दे रहा है। ऐसे परपीड़ा में सुख लेने वाले असुर का त्याग कर देना चाहिए। वह पति रूप में हो या पत्नी रूप में हो उससे कानून तलाक़ व उसका सर्वथा त्याग उचित है। वह पुत्र हो या पुत्री उसका त्याग व उसका निष्कासन सर्वथा उचित है।
दिया तले अंधेरा होने से उसके प्रकाश के महत्त्व को कम कभी नहीं आँका जाता। इसी तरह आप एक स्वतंत्र आत्मा हैं, यदि आपके घर में कोई असुर प्रवृत्ति अपराधी है तो इससे आपका महत्त्व कम नहीं होता। यदि उसे सुधारने के आपके प्रयत्न विफ़ल रहे तो भी आपका महत्त्व कम नहीं होता।
जलन्धर राक्षस की पत्नी तुलसी से तपस्वी व पवित्र कोई संसार में नहीं था। उसके तपबल से जलन्धर अजेय था व लोगों पर अत्याचार करता था। तुलसी सदैव उसे धर्ममार्ग में लाने का प्रयत्न करती रहीं मग़र विफ़ल रहीं। तो इससे तुलसी का महत्त्व कम नहीं होता।
🙏🏻आप दिया हैं सूर्य की रौशनी को स्वयं में धारण किये हुए हैं। जन जन को प्रकाशित करने के लिए स्वयं तप की अगन में जल रहे हो। जो अंधे नहीं है वह आपके प्रकाशस्वरूप व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक होंगे। जो स्वार्थ व मोह में अंधे हैं वह प्रकाश नहीं देख सकेंगे, उनकी दृष्टि दिया के ऊपर उसके प्रकाश की ओर नहीं होगी, उसके तल के अंधेरे पर केंद्रित होगी। तो ऐसे अंधों के कहने पर दिया बन जलने के कार्य को नहीं छोड़ना चाहिए। दिया बन प्रकाश फ़ैलाते रहना चाहिए, लोगों को राह दिखाते रहना चाहिए।🙏🏻
🙏🏻श्वेता, DIYA
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