प्रश्न - *धर्मज्ञानी का धर्मज्ञान कब निष्क्रिय होता है? कब धर्मज्ञानी अधर्म का साथ देता है? ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्या घटता है उसके जीवन में जिसके कारण धर्म को जानने वाला अधर्म का साथी बनता है?*
उत्तर- धर्मज्ञानी महात्मा अविवाहित हो, स्वार्थी न हो, पदलोलुपता न हों और निरहंकारी हो तो धर्मज्ञान हमेशा बना रहता है। धर्म पालन सहजता से होता रहता है।
ज्ञानी विवाहित हो और पत्नी मोह में न पड़े। पत्नी धर्मशील हो तो धर्म मार्ग पर बना रहता है। दोनो त्यागमय जीवन धर्मशील बनकर निभा लेते हैं।
ज्ञानी जब सन्तान को जन्म देता है, व सन्तान यदि धर्मशील व स्वार्थी न हुई तो भी ज्ञानी धर्म पथ पर आजीवन बना रहता है। सपरिवार धर्ममय रहता है।
😰
लेक़िन यदि ज्ञानी पुत्रमोह में फंस गया और पुत्र स्वार्थी निकला। तब ज्ञान होने पर भी ज्ञानी अधर्म का समर्थक बन जाता है। षड्यंत्रकारी का साथ देता है।
धृतराष्ट्र दृष्टि से अंधा जो था सो था, मग़र वह पुत्र मोह में भी अंधा था। उसने भी गुरुकुल में विदुर व पांडु के साथ ही धर्म की शिक्षा पाई थी। मगर पुत्र की महत्वाकांक्षा-उच्चाकांक्षा की पूर्ति हेतु व अधर्म व षड्यंत्र का सहयोगी बन गया।
द्रोणाचार्य के पिता भृगु नहीं अपितु ऋषि भारद्वाज थे तथा घृतार्ची नामक अप्सरा उनकी माता थी तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे।
धर्मज्ञाता द्रोणाचार्य भी पुत्र अश्वस्थामा के मोह में अंधे थे। मगर पुत्र की महत्वाकांक्षा-उच्चाकांक्षा की पूर्ति हेतु वह भी दुर्योधन के अधर्म व षड्यंत्र में उसका साथ देने को विवश हुए, द्रौपदी चीरहरण न रुकवाया और दुर्योधन के पक्ष में युद्ध भी किया।
पुत्रमोह में योगिनी व धर्मज्ञाता गान्धारी यह जानते हुए भी पुत्र कुकर्मी थे इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुए। पुत्रमोह में गान्धारी ने स्वयं भगवान कृष्ण को भी श्राप दे डाला।
कलियुग में भी जितने भी धर्मज्ञाता हैं, यदि पुत्र मोह-पत्नी मोह में पड़ेंगे तो अधर्म व षड्यंत्र के साथी अवश्य बनेंगे। यदि निज स्वार्थ, महत्वाकांक्षा व पद लोलुपता के अधीन होंगे तो वह भी अधर्म मार्ग का चयन करेंगे, गुरुद्रोह करेंगे, षड्यंत्र के सहयोगी बनेंगे।
स्वर्ण को एक बार परखने के बाद परखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मग़र इंसान को प्रत्येक परिस्थति में परखने की आवश्यकता पड़ती है। अच्छी व सुखद परिस्थितियों में तो धर्मशील रहना बड़ा आसान है। असली धर्म पालन की अग्नि परीक्षा तो तब होती है जब एक गृहत्यागी सन्त संतानों को राज्य सुख देने की लालसा रखता है। स्वयं नौकरी व्यवसाय व सांसारिक सुख को तिलांजलि देकर आश्रम आता है, लेकिन आश्रम में रहकर बच्चों को वही अच्छी जॉब, व्यवसाय व सांसारिक सुख देने की व्यवस्था बनाने की कोशिश करता है। वस्तुतः वह समझ नहीं पाता जो मोह माया धन संपदा छोड़ा था, क्या वही मोह माया धन संपदा बच्चों को देना क्या आश्रम व्यवस्था में आसान होगा?
प्रत्येक व्यक्ति के धर्म पालन की अग्नि परीक्षा विपरीत परिस्थितियों में ही होती है। एक राजा होकर हरिश्चन्द्र धर्म पालन विपरीत परिस्थिति में भी कर डालते हैं, और एक ब्राह्मण त्यागी गुरु होकर भी गुरु द्रोण धर्म पालन से विमुख हो जाते हैं।
जब एक गृहत्यागी धर्मज्ञ ब्राह्मण गुरु द्रोण के समान अपने बच्चे अश्वत्थामा को राजा बनाने की चाह पूर्ति हेतु शाम-दाम-दण्ड-भेद व अधर्म कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। तब अधर्म घटता है।
धर्म पालन गृहस्थ सन्यासी के लिए तब अति दुष्कर है, जब वह सन्तान मोह से ग्रसित हो गया। सन्तान के मोह में धर्मज्ञान होते हुए भी धर्म ज्ञान को आचरण में ला नहीं पाता। सन्तान की इच्छाओं-कामनाओं की कठपुतली बन जाता है। ईश्वर और गुरु के विरुद्ध भी शस्त्र व शास्त्र उठा लेता है। गुरुद्रोह करने से भी नहीं हिचकता।
इसीलिए यमराज ने नचिकेता से कहा था - धर्म पालन अत्यंत कठिन है। धर्म पालन में निज व परिवार के स्वार्थ का त्याग करना ही पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने बुद्धि में भगवान का आह्वाहन करना चाहिए, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन मे श्रीमद्भागवत गीता का स्वाध्याय और गायत्री मंत्र जप अवश्य करना चाहिए। क्योंकि मोहबन्धन यही काटने में मददगार होते हैं।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर- धर्मज्ञानी महात्मा अविवाहित हो, स्वार्थी न हो, पदलोलुपता न हों और निरहंकारी हो तो धर्मज्ञान हमेशा बना रहता है। धर्म पालन सहजता से होता रहता है।
ज्ञानी विवाहित हो और पत्नी मोह में न पड़े। पत्नी धर्मशील हो तो धर्म मार्ग पर बना रहता है। दोनो त्यागमय जीवन धर्मशील बनकर निभा लेते हैं।
ज्ञानी जब सन्तान को जन्म देता है, व सन्तान यदि धर्मशील व स्वार्थी न हुई तो भी ज्ञानी धर्म पथ पर आजीवन बना रहता है। सपरिवार धर्ममय रहता है।
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लेक़िन यदि ज्ञानी पुत्रमोह में फंस गया और पुत्र स्वार्थी निकला। तब ज्ञान होने पर भी ज्ञानी अधर्म का समर्थक बन जाता है। षड्यंत्रकारी का साथ देता है।
धृतराष्ट्र दृष्टि से अंधा जो था सो था, मग़र वह पुत्र मोह में भी अंधा था। उसने भी गुरुकुल में विदुर व पांडु के साथ ही धर्म की शिक्षा पाई थी। मगर पुत्र की महत्वाकांक्षा-उच्चाकांक्षा की पूर्ति हेतु व अधर्म व षड्यंत्र का सहयोगी बन गया।
द्रोणाचार्य के पिता भृगु नहीं अपितु ऋषि भारद्वाज थे तथा घृतार्ची नामक अप्सरा उनकी माता थी तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे।
धर्मज्ञाता द्रोणाचार्य भी पुत्र अश्वस्थामा के मोह में अंधे थे। मगर पुत्र की महत्वाकांक्षा-उच्चाकांक्षा की पूर्ति हेतु वह भी दुर्योधन के अधर्म व षड्यंत्र में उसका साथ देने को विवश हुए, द्रौपदी चीरहरण न रुकवाया और दुर्योधन के पक्ष में युद्ध भी किया।
पुत्रमोह में योगिनी व धर्मज्ञाता गान्धारी यह जानते हुए भी पुत्र कुकर्मी थे इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुए। पुत्रमोह में गान्धारी ने स्वयं भगवान कृष्ण को भी श्राप दे डाला।
कलियुग में भी जितने भी धर्मज्ञाता हैं, यदि पुत्र मोह-पत्नी मोह में पड़ेंगे तो अधर्म व षड्यंत्र के साथी अवश्य बनेंगे। यदि निज स्वार्थ, महत्वाकांक्षा व पद लोलुपता के अधीन होंगे तो वह भी अधर्म मार्ग का चयन करेंगे, गुरुद्रोह करेंगे, षड्यंत्र के सहयोगी बनेंगे।
स्वर्ण को एक बार परखने के बाद परखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मग़र इंसान को प्रत्येक परिस्थति में परखने की आवश्यकता पड़ती है। अच्छी व सुखद परिस्थितियों में तो धर्मशील रहना बड़ा आसान है। असली धर्म पालन की अग्नि परीक्षा तो तब होती है जब एक गृहत्यागी सन्त संतानों को राज्य सुख देने की लालसा रखता है। स्वयं नौकरी व्यवसाय व सांसारिक सुख को तिलांजलि देकर आश्रम आता है, लेकिन आश्रम में रहकर बच्चों को वही अच्छी जॉब, व्यवसाय व सांसारिक सुख देने की व्यवस्था बनाने की कोशिश करता है। वस्तुतः वह समझ नहीं पाता जो मोह माया धन संपदा छोड़ा था, क्या वही मोह माया धन संपदा बच्चों को देना क्या आश्रम व्यवस्था में आसान होगा?
प्रत्येक व्यक्ति के धर्म पालन की अग्नि परीक्षा विपरीत परिस्थितियों में ही होती है। एक राजा होकर हरिश्चन्द्र धर्म पालन विपरीत परिस्थिति में भी कर डालते हैं, और एक ब्राह्मण त्यागी गुरु होकर भी गुरु द्रोण धर्म पालन से विमुख हो जाते हैं।
जब एक गृहत्यागी धर्मज्ञ ब्राह्मण गुरु द्रोण के समान अपने बच्चे अश्वत्थामा को राजा बनाने की चाह पूर्ति हेतु शाम-दाम-दण्ड-भेद व अधर्म कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। तब अधर्म घटता है।
धर्म पालन गृहस्थ सन्यासी के लिए तब अति दुष्कर है, जब वह सन्तान मोह से ग्रसित हो गया। सन्तान के मोह में धर्मज्ञान होते हुए भी धर्म ज्ञान को आचरण में ला नहीं पाता। सन्तान की इच्छाओं-कामनाओं की कठपुतली बन जाता है। ईश्वर और गुरु के विरुद्ध भी शस्त्र व शास्त्र उठा लेता है। गुरुद्रोह करने से भी नहीं हिचकता।
इसीलिए यमराज ने नचिकेता से कहा था - धर्म पालन अत्यंत कठिन है। धर्म पालन में निज व परिवार के स्वार्थ का त्याग करना ही पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने बुद्धि में भगवान का आह्वाहन करना चाहिए, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन मे श्रीमद्भागवत गीता का स्वाध्याय और गायत्री मंत्र जप अवश्य करना चाहिए। क्योंकि मोहबन्धन यही काटने में मददगार होते हैं।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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