Monday, 1 June 2020

प्रश्न - *जीवन सफ़ल होना चाहिए या सार्थक होना चाहिए? दोनों में क्या अंतर है?*

प्रश्न - *जीवन सफ़ल होना चाहिए या सार्थक होना चाहिए? दोनों में क्या अंतर है?*

उत्तर - जब यह प्रश्न ज्ञान चर्चा में उठा तो कुलगुरू ने कहा, इस पर चर्चा कल आयोजित प्रतियोगिता के बाद की जाएगी।

प्रतियोगिता थी झुलसती गर्मी में गंगा तट से जल कांवर में लाना और पहाड़ी पर स्थित शिवलिंग का जलाभिषेक करना। जो विजयी-सफल होगा इस प्रतियोगिता में उसे आश्रम प्रमुख- के सह व्यवस्थापक का पद दिया जाएगा।

प्रतियोगिता शुरू हुई, कठिन दुर्गम मार्ग फिर पहाड़ी की चढ़ाई, साथ में कांवड़ का वज़न।

कुछ तो कावंड़ के सृंगार में रात से जुट गए, कुछ कावंड़ की मजबूती में जुटे। सुबह हुई प्रतियोगिता शुरू हुई, मार्ग में एक अर्धमृत अवस्था मे बीमार वृद्ध प्यास से तड़फ रहा था। देखा सबने मग़र प्रतियोगिता में सफ़ल होने के लक्ष्य से रुका कोई नहीं। एक शिष्य मनीराम सफ़ल हुआ।


इसी प्रतियोगिता का एक और शिष्य शंकर उस वृद्ध को देख सहायतार्थ रुका पूँछा, वृद्ध से पूँछा क्या हुआ? उसने बताया कि सुना है पहाड़ी के शिवलिंग के दर्शन से रोग दूर होते हैं, वहीँ जा रहा था। बीमारी के कारण ज्यादा जल साथ ला न सका, प्यास से मृत प्राय हो गया हूँ। शिष्य ने एक कावड़ का जल उसे पिलाया, उसके पैर का घाव साफ किया और उसे पीठ पर बिठाया और शिवलिंग तक ले गया। दूसरे कावड़ के मटके के जल से जलाभिषेक करवा दिया, और आश्रम में ठहरने व भोजन का प्रबंध कर विलम्ब से ज्ञान चर्चा क्षेत्र में पहुंचा।

कुलकुरु ने देरी से आने का कारण पूँछा, उसने सब कारण कह सुनाया। तब कुलगुरू ने कहा - मणिराम प्रतियोगिता में सफ़ल रहा और शंकर प्रतियोगिता में सार्थक कार्य किया। आश्रम सम्हालने का उत्तरदायित्व सफ़ल व्यक्ति को नहीं, अपितु सार्थक जीवन जीने वाले व्यक्ति को दिया जाएगा।

भारतीय संस्कृति व ऋषि परम्परा हमेशा से ही सार्थक जीवन को महत्त्व देती आयी है, सफ़लता यदि सार्थकता के साथ मिले तब ही स्वीकार्य होती है। हमारे देश में ऐसे कई भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो अंग्रेजों को जीते जी देश से बाहर करने में सफल नहीं हुए, मग़र   देश उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सार्थक भूमिका निभाने हेतु याद करता है।

हमारे देश में ऐसे कई लोग हैं जो आर्थिक व सामाजिक रूप से भले सफ़ल न दिखें, मग़र जो भी उनके सान्निध्य में रहकर उन्हें उनके किये सार्थक सेवा व श्रेष्ठ कार्यों को जानता है, वह उनके चरणों मे नतमस्तक हो जाता है। हृदय तो सार्थक व्यक्तित्व को प्रणाम करता है, सफ़ल को नहीं।

*बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ ख़जूर। पँछीन को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।*

कवि कहता है, ऐसी सफलता भी किस काम की जिसमें कोई सार्थकता न हो। ऊंचाई में आम की वृक्ष की तुलना में ख़जूर सफल कहा जायेगा। मग़र आम का वृक्ष सार्थक कहा जायेगा, जहां पक्षी घोसला बना रह सके, राहगीर छाया प्राप्त कर सके। ज़्यादा से ज्यादा परोपकार वृक्ष द्वारा सम्भव हो। यहां ऊँचाई में खजूर सफल अस्तित्व और आम का वृक्ष सार्थक अस्तित्व होने का प्रमाण है।

आदिशंकराचार्य हों या विवेकानन्द पूरे देश को अज्ञानता मुक्त करने में और धर्म आरूढ़ करने में सफल नहीं हुए, लेकिन बहुतों को अज्ञानता मुक्त करंव और धर्म आरूढ़ करने में जीवन की सार्थकता सिद्ध की।

बड़े व श्रेष्ठ उद्देश्य व लक्ष्य हेतु जीवन मे जब भी आगे बढ़ो कभी यह तनाव नहीं लेना चाहिए कि पूर्ण सफलता मिली या नहीं। अपितु केवल यह विचारधारा मन मे लानी चाहिए कि यह मानव जीवन सार्थक होना चाहिए। जितना मुझसे बन पड़ेगा इस श्रेष्ठ लक्ष्य की पूर्ति हेतु तन-मन-धन अर्पण कर दूँगा। जीवन की सार्थकता बड़ा महत्त्व रखती है और इतिहास में यादगार बनाती है। सफलता तो क्षणिक आनन्द देती है, सार्थकता परमानन्द में चेतना को स्थिर रखती है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

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