*दो बड़े भक्त - एक विनम्र और दूसरा उग्र*
त्रेता युग में जन्मे,
दुनियाँ के दो सबसे बड़े भक्त,
एक स्वभाव से था उग्र,
एक स्वभाव से था विनम्र।
दोनों अतुलित बल के धाम थे,
दोनों ज्ञान के भंडार थे,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ,
एक का मंदिर प्रभु से दूना बना।
वेदों के दोनों ज्ञाता थे,
बल बुद्धि व शक्ति के सागर थे,
फ़िर ऐसा क्या हुआ,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ।
वह विनम्र भक्त श्री हनुमान थे,
वह अहंकारी उग्र भक्त राक्षस राज रावण था,
हनुमानजी कहते - *प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो*,
रावण कहता - *प्रभु मेरी इच्छा पूर्ण हो*।
हनुमानजी राम से कहते
- *प्रभु आपका सेवक हूँ*,
- *आपकी सेवा का सौभाग्य चाहता हूँ*
- *आपकी शरण में रहना चाहता हूँ।*
रावण कहता शिव से कहता
- *प्रभु आपका महान भक्त बनना चाहता हूँ*
- *आपको लँका ले जाना चाहता हूँ*
- *प्रभु आप पर अपना अधिकार चाहता हूँ।*
रावण ने शक्ति प्रदर्शन कर,
कैलाश उठाना चाहा,
विफ़ल रहा,
हनुमानजी ने भक्ति का प्रदर्शन कर,
राम लक्ष्मण को कंधे पर उठाया,
सदा हनुमानजी सफल रहे,
हिमालय से लक्ष्मण की प्राण रक्षा के लिए,
पर्वत उठाकर लाने में भी सफ़ल रहे।
रावण की भक्ति भी एक प्रतिस्पर्धा थी,
दूसरे भक्तों से ज्यादा महान बनने की चाहत थी,
हनुमानजी की भक्ति एक सेवा थी,
सेवा के सौभाग्य में रत रहने की चाहत थी।
रावण ने पूरी रामायण में,
केवल हनुमानजी के बल की प्रसंशा की,
जब हनुमानजी के एक मुट्ठी के प्रहार को,
रावण सह न सका था।
जब भी भगवान राम व सिया ने,
वर मांगने का हनुमानजी से अनुरोध किया,
तब तब निर्मल भक्ति,
और प्रभु सेवा माँगकर,
हनुमानजी ने संतोष किया।
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न,
सब श्रीराम की सेवा का अवसर तलाशते,
हनुमानजी की फुर्ती व सेवा के लिए ततपरता के कारण,
सभी सेवा के अवसर हनुमानजी ही पाते।
श्रीराम सिया ने,
स्वयं से ही प्रशन्न हो वरदान दिया,
प्रिय भक्त हनुमान मेरा मन्दिर,
तुम्हारे बिना न पूर्ण होगा।
मुझसे अधिक मन्दिर,
धरती पर तुम्हारे बनेंगे,
जिस पर तुम्हारी कृपा होगी,
वह मेरी कृपा का भी अधिकारी होगा।
बोलो! पवनपुत्र हनुमान की जय!
सियापति श्रीरामचन्द्र की जय!
भक्ति की नाव में,
हनुमानजी भी बैठे,
राक्षस राज रावण भी बैठा,
हनुमानजी की निःश्वार्थ भक्ति ने,
विनम्र स्वभाव ने नाव को मजबूती दी,
रावण की स्वार्थी भक्ति ने,
उग्र अहंकारी स्वभाव ने नाव में जंग लगा दी,
हनुमानजी जी तर गए,
रावण अहंकार में डूब कर मर गया।
🙏🏻श्वेता, DIYA
त्रेता युग में जन्मे,
दुनियाँ के दो सबसे बड़े भक्त,
एक स्वभाव से था उग्र,
एक स्वभाव से था विनम्र।
दोनों अतुलित बल के धाम थे,
दोनों ज्ञान के भंडार थे,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ,
एक का मंदिर प्रभु से दूना बना।
वेदों के दोनों ज्ञाता थे,
बल बुद्धि व शक्ति के सागर थे,
फ़िर ऐसा क्या हुआ,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ।
वह विनम्र भक्त श्री हनुमान थे,
वह अहंकारी उग्र भक्त राक्षस राज रावण था,
हनुमानजी कहते - *प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो*,
रावण कहता - *प्रभु मेरी इच्छा पूर्ण हो*।
हनुमानजी राम से कहते
- *प्रभु आपका सेवक हूँ*,
- *आपकी सेवा का सौभाग्य चाहता हूँ*
- *आपकी शरण में रहना चाहता हूँ।*
रावण कहता शिव से कहता
- *प्रभु आपका महान भक्त बनना चाहता हूँ*
- *आपको लँका ले जाना चाहता हूँ*
- *प्रभु आप पर अपना अधिकार चाहता हूँ।*
रावण ने शक्ति प्रदर्शन कर,
कैलाश उठाना चाहा,
विफ़ल रहा,
हनुमानजी ने भक्ति का प्रदर्शन कर,
राम लक्ष्मण को कंधे पर उठाया,
सदा हनुमानजी सफल रहे,
हिमालय से लक्ष्मण की प्राण रक्षा के लिए,
पर्वत उठाकर लाने में भी सफ़ल रहे।
रावण की भक्ति भी एक प्रतिस्पर्धा थी,
दूसरे भक्तों से ज्यादा महान बनने की चाहत थी,
हनुमानजी की भक्ति एक सेवा थी,
सेवा के सौभाग्य में रत रहने की चाहत थी।
रावण ने पूरी रामायण में,
केवल हनुमानजी के बल की प्रसंशा की,
जब हनुमानजी के एक मुट्ठी के प्रहार को,
रावण सह न सका था।
जब भी भगवान राम व सिया ने,
वर मांगने का हनुमानजी से अनुरोध किया,
तब तब निर्मल भक्ति,
और प्रभु सेवा माँगकर,
हनुमानजी ने संतोष किया।
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न,
सब श्रीराम की सेवा का अवसर तलाशते,
हनुमानजी की फुर्ती व सेवा के लिए ततपरता के कारण,
सभी सेवा के अवसर हनुमानजी ही पाते।
श्रीराम सिया ने,
स्वयं से ही प्रशन्न हो वरदान दिया,
प्रिय भक्त हनुमान मेरा मन्दिर,
तुम्हारे बिना न पूर्ण होगा।
मुझसे अधिक मन्दिर,
धरती पर तुम्हारे बनेंगे,
जिस पर तुम्हारी कृपा होगी,
वह मेरी कृपा का भी अधिकारी होगा।
बोलो! पवनपुत्र हनुमान की जय!
सियापति श्रीरामचन्द्र की जय!
भक्ति की नाव में,
हनुमानजी भी बैठे,
राक्षस राज रावण भी बैठा,
हनुमानजी की निःश्वार्थ भक्ति ने,
विनम्र स्वभाव ने नाव को मजबूती दी,
रावण की स्वार्थी भक्ति ने,
उग्र अहंकारी स्वभाव ने नाव में जंग लगा दी,
हनुमानजी जी तर गए,
रावण अहंकार में डूब कर मर गया।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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