*देव उपासना* - उस देव के पास बैठकर उसके सान्निध्य में उसके जैसा बनना, देवता की उपासना में *मनुष्य में देवत्व जगना* - *धरती पर स्वर्ग का अवतरण घटना*।
अग्नि के पास पास बैठकर कोई ठण्डा नहीँ रह सकता। बर्फ के सान्निध्य मे कोई गर्म नहीं रहता। फिर देवता के पास बैठने(उपासना) से देवत्व स्वयं में न उभरे ऐसा नहीं हो सकता। उपासना के दो चरण - जप व ध्यान वस्तुतः स्वयं में देवत्व उभारने की प्रक्रिया है।
यदि अग्नि के समक्ष गर्म नहीं हो रहे अर्थात अग्निशमन आवरण पहनकर बैठे हो, बर्फ के समक्ष ठंडे नहीं हो रहे अर्थात ऊनि वस्त्र का आवरण पहना है। देवता की उपासना में देवत्वं नहीं घट रहा अर्थात अहंकार का आवरण पहनकर बैठे हैं।
*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्*।
हम उस अविनाशी ईश्वर का ध्यान करते है, जो भूलोक, अंतरिक्ष , और स्वर्ग लोकोंका का उत्पन्न किया है, उस सृष्टी कर्ता , पापनाशक,अतिश्रेष्ठ देव को हम धारण करते है, वह परमात्मा की समस्त शक्तियां हममें भी विद्यमान है।
उसके निरन्तर ध्यान से वह देवत्व हममें घट रहा है, उसके ध्यान से हमारा चित्त शुद्ध हो रहा है, मन के मोह का पर्दा गिर रहा है, अनावरण हो रहा है। वह श्वाशवत हममें उभर रहा है।
हम भी मन वचन कर्म से उस परमात्मा की तरह बनने लग रहे हैं, जैसे भ्रमर की गुंजन से कीट भ्रमर में परिवर्तित होता जाता है। ऐसे ही गायत्रीमंत्र के निरन्तर जप के अन्तः गुंजन से हम भी गायत्रिमय बन रहे हैं।
– वह (ईश्वर) हमें सद्बुद्धी दें एवम सत्कर्म मे प्रेरित करे। हमें अपने जैसा बना रहा है।
हम भी प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप बन रहे हैं, श्रेष्ठता, तेजस्विता को धारण कर रहे हैं, समस्त पापों को नष्ट कर रहे हैं, हममें देवत्व का जागरण हो रहा है। हमारी बुद्धि हंस - विवेकी बन रही है।
विवेक अर्थात पृथक्करण(Filter) बुद्धि, असत्य व सत्य, नश्वर व शाश्वत, ज्ञान व अज्ञान, दृश्य व दृष्टा को अलग अलग पहचान कर सके।
दृश्य व दृष्टा के अंतर को विवेकदृष्टि से ही अलग किया जा सकता है। शरीर-मन-आत्मा के तीन स्तरों का विवेचन उपासना-साधना से ही सम्भव है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
अग्नि के पास पास बैठकर कोई ठण्डा नहीँ रह सकता। बर्फ के सान्निध्य मे कोई गर्म नहीं रहता। फिर देवता के पास बैठने(उपासना) से देवत्व स्वयं में न उभरे ऐसा नहीं हो सकता। उपासना के दो चरण - जप व ध्यान वस्तुतः स्वयं में देवत्व उभारने की प्रक्रिया है।
यदि अग्नि के समक्ष गर्म नहीं हो रहे अर्थात अग्निशमन आवरण पहनकर बैठे हो, बर्फ के समक्ष ठंडे नहीं हो रहे अर्थात ऊनि वस्त्र का आवरण पहना है। देवता की उपासना में देवत्वं नहीं घट रहा अर्थात अहंकार का आवरण पहनकर बैठे हैं।
*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्*।
हम उस अविनाशी ईश्वर का ध्यान करते है, जो भूलोक, अंतरिक्ष , और स्वर्ग लोकोंका का उत्पन्न किया है, उस सृष्टी कर्ता , पापनाशक,अतिश्रेष्ठ देव को हम धारण करते है, वह परमात्मा की समस्त शक्तियां हममें भी विद्यमान है।
उसके निरन्तर ध्यान से वह देवत्व हममें घट रहा है, उसके ध्यान से हमारा चित्त शुद्ध हो रहा है, मन के मोह का पर्दा गिर रहा है, अनावरण हो रहा है। वह श्वाशवत हममें उभर रहा है।
हम भी मन वचन कर्म से उस परमात्मा की तरह बनने लग रहे हैं, जैसे भ्रमर की गुंजन से कीट भ्रमर में परिवर्तित होता जाता है। ऐसे ही गायत्रीमंत्र के निरन्तर जप के अन्तः गुंजन से हम भी गायत्रिमय बन रहे हैं।
– वह (ईश्वर) हमें सद्बुद्धी दें एवम सत्कर्म मे प्रेरित करे। हमें अपने जैसा बना रहा है।
हम भी प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप बन रहे हैं, श्रेष्ठता, तेजस्विता को धारण कर रहे हैं, समस्त पापों को नष्ट कर रहे हैं, हममें देवत्व का जागरण हो रहा है। हमारी बुद्धि हंस - विवेकी बन रही है।
विवेक अर्थात पृथक्करण(Filter) बुद्धि, असत्य व सत्य, नश्वर व शाश्वत, ज्ञान व अज्ञान, दृश्य व दृष्टा को अलग अलग पहचान कर सके।
दृश्य व दृष्टा के अंतर को विवेकदृष्टि से ही अलग किया जा सकता है। शरीर-मन-आत्मा के तीन स्तरों का विवेचन उपासना-साधना से ही सम्भव है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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