जीवित रहने और जीवन जीने में बहुत फर्क होता है। जीवन जीने और जीवन को भार स्वरूप ढोने में फर्क होता है।
95% लोग तो जीवन भारस्वरूप ढोते है, कुछ 5% लोग ही वस्तुतः जीवन जीते हैं।
हमें जन्म लेने मात्र से जीना नहीं आता। जैसे गाड़ी खरीदने मात्र से गाड़ी चलाना नहीं आ जाता। जीवन जीना एक विज्ञान भी है और एक कला भी है। यह गाड़ी तभी बेहतरीन चलती है, जब इसके चारों पहियों में सन्तुलन हो।
पहला पहिया — सांसारिक जरूरतें (रोटी कपड़ा मकान व्यवसाय)
दूसरा पहिया - मानसिक जरुरतें (स्वाध्याय, शांति, सुकून व मनोरंजन की आवश्यकता)
तृतीय पहिया - आत्मिक जरुरतें(ध्यान, मन्त्र जप, आत्म ऊर्जा का उत्पादन, आत्मज्ञान)
चौथा पहिया - परमात्मा से जुड़ने की जरूरतें(ईश्वर भक्ति, पुण्य- परमार्थ, ईश्वर स्मरण)
जब होशपूर्वक हम जीवन का मूल्य समझते हैं, हर पल हर क्षण इस जीवन को महसूस करते हैं। संसार व अध्यात्म जगत में सन्तुलन रखते हैं, मन को नियंत्रित कर चलाना सीख जाते हैं। तभी वास्तव में हम जीवन जीते हैं।
श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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