Wednesday 11 November 2020

हाय स्त्री तेरी यही कहानी...

 हाय स्त्री तेरी यही कहानी...

जिन बच्चियों के जीवन मे कोई लक्ष्य नहीं है, व जिनके दिमाग़ में बचपन से यह भर दिया गया है कि तुम पराया धन हो व दूसरे के घर जाना है। वस्तुतः तुम्हारे पति का घर ही तुम्हारा घर है, गृहकार्य सीखो व विवाह कर अपने पति के घर जाओ। ऐसी लड़की अपने सम्मान व गौरव का विषय विवाह समझती है, व मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण विवाह जल्दी करना चाहती है।

इन बच्चियों की दुर्गति तब होती है, जब ससुराल वाले यह अहसास करवाते हैं कि यह घर तुम्हारा नहीं। तुम दहेज में क्या लेकर आई। तुम बाहर वाली हो।

तब इन्हें पता चलता है कि इनका वस्तुतः कोई घर नहीं है, मायका पिता का घर, ससुराल पति का घर। 

टूटकर बिखरा आत्म सम्मान से अधिकतर लड़कियां समझौता कर लेती हैं क्योंकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती। माता पिता पहले ही क्लियर कर देते हैं डोली में जा रही हो अर्थी में वहाँ से निकलना। कदापि वापस मायके मत लौटना, क्योंकि दहेज देकर बड़ी मुश्किल से विवाह किया है।

जो लड़की बुद्धिकुशल व आत्मनिर्भर होती है, वस्तुतः उसे ही अपना घर मिलता है। पति व पिता दोनो से सम्मान मिलता है।

हमारे देश में 70% से अधिक स्त्रियों के नाम पर उनका घर नहीं है। वह पहले पिता, फिर पति व अंत मे पुत्र व पोते के रहमोकरम में रहती हैं। 

कुछ % स्त्रियां ही आत्म सम्मान के साथ गौरवपूर्ण जीवन अपनी मर्जी का जी रही हैं। यह कड़वा है, मग़र सत्य है।


मध्यकालीन युग में जब स्त्रियां असुरक्षित थीं, कानून व्यवस्था इतनी सुदृढ नहीं थी कि उन्हें संरक्षण प्रदान कर सकें। तब मात्र पति ही सुरक्षा गार्ड पुरुष प्रधान समाज मे हुआ करता था। स्त्री को पुरुषों के समान जीने व समाज मे बराबरी के अधिकार प्राप्त नहीं थे, आर्थिक रूप से स्त्री अक्षम थी। घूंघट में चार दीवार के अंदर बन्द होकर रहना पड़ता है, खुलकर जीने की आज़ादी नहीं है।

विधवा स्त्री को भोजन पानी व सुरक्षा देने का उत्तरदायित्व परिवार वाले उठाना नहीं चाहते थे, अतः सती प्रथा का जन्म हुआ व जिंदा स्त्री को क्रूरता पूर्वक मृत पुरुष के साथ जला दिया जाता था।

मुस्लिमों में भी जो स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, उनके पास उनकी मर्जी से जीने के अधिकार नहीं है। पशु की तरह वह हैं। एक पुरुष जिस प्रकार कई पशु रख सकता है, वैसे ही एक पुरुष कई स्त्री रख सकता है। तलाक पति देगा तो भी हलाला(मौलवी से रेप के बाद शुद्धि) से स्त्री को गुज़रना होगा। आर्थिक रूप से जो स्त्री आत्म निर्भर नहीं है उस की कोई मर्जी नहीं चलती, हलाला के नाम पर एक स्त्री एक ही परिवार में कइयों के साथ सम्बन्ध बनाने को मजबूर होती है। बुर्क़े से स्वयं को ढंककर चलना पड़ता है, खुलकर जीने पर पाबंदी है। मौलवी के खिलाफ तो केस भी नहीं कर सकते।

ईसाई समुदाय में भी स्त्रियों की स्थिति पहले अच्छी नहीं थी, समान कार्य करने पर भी एक सा वेतन नहीं मिलता था। गुलाम स्त्रियां समान की तरह उपयोग में ली जाती थीं। उनपर क्रूरता की हद पार होती थी। नन की तो हालत बहुत खराब है, देवदासी प्रथा आज भी कायम है। हज़ारो केस कोर्ट में लंबित है।

स्त्रियां व अच्छे पुरुष जब एक जुट होकर स्त्री अधिकार के लिए एक जुट हुए हैं, तभी जाकर आज स्त्रियों की कुछ हालत सुधरी है, उनके लिए कानून बने। उन्हें मतदान व समान वेतन का अधिकार मिला। अभी भी बहुत कार्य बाकी है।

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