दो आँखे बाहर की ओर एवं एक आंख अंतर्दृष्टि भीतर की ओर होती है।
जन्म के बाद बाह्य दृष्टि खुल जाती है, मगर भीतरी दृष्टि को ध्यान- साधना के द्वारा खोलना पड़ता है। जब यह तीसरी दृष्टि खुलती है तो मनुष्य दुसरो के साथ वह व्यवहार नहीं करता जो उसे स्वयं के लिए पसन्द नहीं। यदि जिस गलती के लिए स्वयं को क्षमा कर सकता है वह दूसरे को भी क्षमा कर देता है। मग़र अफसोस यह है कि अंतर्दृष्टि न खुली होने के कारण दूसरे के दोष देखता है, मग़र स्वयं के दोष नहीं देख पाता।
दर्पण की मदद से हम स्वयं का चेहरा देख सकते हैं। उसी प्रकार स्वयं के दोषों को देखने के लिए आत्म दर्पण की जरूरत है। स्वयं के भीतर झांकना होगा।
दो लोग यदि गिर जायें, दोनो के चेहरे पर मिट्टी हो तो एक दूसरे का मुँह देखकर हँसेंगे। क्योंकि बिना दर्पण स्वयं का मुख दिखेगा नहीं। इसीतरह दो लोग एक जैसी गलती कर रहे हों तो एक दूसरे की गलती पर गुस्सा करेंगे, क्योंकि स्वयं की गलतियों को आत्मदर्पण में देखा नहीं है।
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