मन को संस्कारित करना अनिवार्य है।
जल का कोई रँग व स्वाद नहीं होता, वैसे ही मन का कोई रँग व स्वाद नहीं होता है।
जल को जिस प्रकार मनुष्य प्रदूषित कर रहा है, वैसे ही मन को भी मनुष्य प्रदूषित करता है।
जल को प्रदूषण मुक्त कर पीने योग्य बनाने के लिए RO है या उबालकर व छानकर अशुद्धि दूर की जाती है। वैसे ही प्रदूषित मन को शुद्ध व ईश्वरीय चेतना धारण करने योग्य बनाने के लिए इसे भी ध्यान, मन्त्र जप और स्वाध्याय से गुजारना होगा। मन को शुभ संस्कारो से युक्त करना होगा।
हम सबका मन वैचारिक प्रदुषण का शिकार हो रहा है, अतः मन की निर्मलता हेतु कुछ प्रयत्न पुरुषार्थ नित्य करना होगा।
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