मेरी माता बड़ी सेवा भावी व दानी नेचर की थी, यह सेवाभाव मुझे बहुत अच्छा लगता था। अखण्डज्योति मैं बचपन से बढ़ती थी, उसमें लिखा था आराधना - लोकहित अंशदान व समयदान अवश्य करना चाहिए। इसलिए दिलो दिमाग मे हमेशा सेवा भाव करने का अवसर तलाशती रहती थी।
स्कूल में एक बच्चे जिसका नाम "राम प्रगट मौर्य" था, उसकी सौतेली माता उसे परेशान करती थी। उसके पिता अक्सर बिजनेस के कारण अधिकतर ट्रिप में रहते थे। एक बार उसके पिता को आने में देरी हुई क्योंकि उनका एक्सीडेंट हो गया था। सौतेली माता ने फीस नहीं दी, व वह फीस न दे सका। 40 बच्चों की एक क्लास का सेक्शन था उस समय हम क्लास 6th में थे। बिना फीस एग्जाम में बैठने नहीं मिल रहा था।
बड़ी दया आयी। हम सात आठ लोग उसको अक्सर टिफिन से थोड़ा थोड़ा देते तो उसका भी लंच हो जाता था। यह मैं रोज देखती थी, अचानक इसी टिफिन शेयरिंग को देखकर ख्याल आया कि यदि सभी बच्चे 5 या 10 रुपये अपने मम्मी पापा से जेबखर्च व कुछ खाने को मांगेंगे अवश्य मिल जाएगा कोई प्रश्न भी नहीं पूँछेगा। बस फिर क्या सभी बच्चों से बात की, और काम हो गया। उसके तीन महीने की फीस भरने के बाद भी हम सब बच्चों के खाने के लिए टॉफी की भी व्यवस्था हो गयी थी। हमारे क्लास टीचर व प्रिंसीपल बहुत खुश हुए।
इस प्रकार मदद करने का आइडिया मुझे स्कूल के किसी अध्यापक ने नहीं सिखाया था, लेकिन छोटी उम्र से ही कुछ करने की ललक मन में थी। यह आइडिया मुझे दो चीज़ों को देखकर आया था, पहला टिफिन शेयरिंग और दूसरा टीवी का एक एड - "एक चिड़िया अनेक चिड़िया दाना चुगने बैठ गयी थी", उसमें सब चिड़िया मिलकर भारी जाल उठा लेती हैं। ऐसे ही मैंने सोचा हम सब छोटे छोटे बच्चे मिलकर प्रयास करेंगे तो फीस का खर्च जाल की तरह उठा लेंगे।
यही आइडिया हमने गुरुग्राम हरियाणा की सरकारी लाइब्रेरी में फर्नीचर व बुक डोनेट करने की मुहिम चलाई थी। सबने छोटी छोटी मदद की जिससे बड़े हाल में टेबल, कुर्सी व पुस्तक की व्यवस्था हो गयी।
यही आइडिया हमने कोरोना के समय भी अपनाया था, सबसे छोटी छोटी मदद लेकर 16 झुग्गी झोपड़ियों में जरूरत का राशन पहुंचाया था। बड़े बजट का बड़ा कार्य कर पाना हमारे अकेले के बस की बात नहीं होती। बस छोटे छोटे प्रयास का आइडिया सबको शेयर करती हूँ, जो मेरे जैसे सेवा का अवसर तलाश रहे होते हैं वे जुड़ जाते हैं। गुरु कृपा से कार्य हो जाता है।
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