Wednesday, 6 January 2021

सच्चा अध्यात्म

 सच्चा अध्यात्म - कहानी


एक कॉलेज में एक कम्पटीशन एग्जाम आयोजित किया गया, जिसे पास करने वाले को पूरे वर्ष की फ़ीस माफ़ और विदेश ट्रिप 5 दिन की मिलने वाली थी।


सब विद्यार्थी तनावग्रस्त हो गए, हर हालत में पास करके स्कॉलरशिप व विदेश यात्रा की चाह में जुट गए।


एक हिन्दू बहुत पूजा पाठी था, घण्टो भजन पूजन कर्मकांड करता। मग़र कम्पटीशन एग्जाम में पास न हो सका। बहुत दुःखी व व्यथित था। 


ऐसे ही एक मुस्लिम था नित्य दरगाह जाता, कुरान पढ़ता व सभी कर्मकांड किया मग़र वह भी कम्पटीशन पास न कर सका।


ऐसे ही एक ईसाई था नित्य चर्च जाता, बाइबल पढ़ता मग़र वह भी कम्पटीशन का एग्जाम पास न कर सका।


अन्य सिख , पारसी व अन्य धर्म के लोगों ने भी अपने अपने धार्मिक कर्मकांड व प्रार्थनाएं की। मग़र वह भी असफ़ल रहे।


नास्तिक भी दिन भर पढ़ता रहा मग़र वह भी असफ़ल रहा। 


कॉलेज टॉपर असफल हो गए।


एक साधारण किसान का बेटा जो कि पढ़ाई में औसत दर्जे का था। वह  विद्यार्थी पास हुआ। सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।


अध्यापक ने उससे पूँछा - क्या तुम्हें तनाव नहीं हुआ।


उसने कहा - मैं किसान का पुत्र हूँ। मेरे पिता जब फसल बोते हैं तो उन्हें यह पता नहीं होता कि अपेक्षित वर्षा होगी या नहीं, तूफान व आगजनी होगी या नहीं। फसल बोने का रिस्क वह उठाते हैं व बाकी सब कुछ वह भगवान पर छोड़ देते हैं। उनका कहना है कि कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि कर्म करो व फल की चिंता मत करो। ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता है।


यदि मैं फसल बोउंगा नहीं तो ईश्वर मेरी मदद कैसे करेगा? मेरा कर्म व पुरुषार्थ तो मुझे ही करना होगा। तब ही तो मेरी प्रार्थना पर वह मदद कर सकेगा।


पिता की तरह ही मैं यह जानता था कि यदि मैं पढूँगा नहीं, अपने दिमाग़ में पढ़ाई की खेती करूंगा नहीं तो भला भगवान मेरी मदद कैसे कर सकेगा। मेरी प्रार्थना पर वह आएगा लेक़िन बिना मेरे कर्म के वह प्रतिफल कैसे देगा।


मुझे तो बस मेरे पिता को फीस खर्च से मुक्त करने की अभिलाषा थी, उनकी मदद करने की चाह थी। मुझे विदेश यात्रा की चाह नहीं है। 


मैं नित्य पढ़ने से पहले गुरुकुल परम्परा अनुसार गायत्रीमंत्र जपता व प्रार्थना करता, मुझे पढ़ने की व याद करने की शक्ति दो। एग्जाम के समय पढ़ा हुआ समय पर याद आ जाये व उसे व्यवस्थित लिख सकूँ। इतनी शक्ति दो। बस प्रार्थना करके पढ़ने बैठ जाता।


जो पढा होता दूसरे दिन उसका पेपर स्वयं बनाता और उसे लिखकर चेक कर लेता। पुनः पढ़ने बैठ जाता। जो पढ़ता उसे जरूर लिख भी लेता। 


बीच बीच में आराम हेतु नेत्र बन्द करता व पिता के चेहरे को याद करता, जब फीस माफ होगी तो वह कितना ख़ुश होंगे। बस उनकी खुशी की कल्पना करता। व पुनः पढ़ने बैठ जाता।


जब नकारात्मक विचार सताते तो उनके जवाब में सोचता, यदि असफल हुआ तो भी जैसे वर्तमान में पढ़ रहा हूँ फीस देकर पढ़ लूंगा। चिंता की कोई बात नहीं। मेरे हाथ में कम्पटीशन हेतु पढंकर तैयारी करने का कर्म है, वह तो मैं जरूर करूंगा। पिता जब खेती में रिष्क लेते हैं तो फिर मैं क्यों न रिस्क लूँ।


बस सर यही सोचकर पढ़ा, अपना 100% पुरुषार्थ एग्जाम पास करने में लगाया। व परमात्मा से नित्य प्रार्थना किया कि मुझे सफलता प्रदान करें जिससे पिता की कुछ मदद कर सकूँ।


अध्यापक ने सभी बच्चों को सम्बोधित करते हुए कहा, किस्मत के लॉकर की दो चाबी हैं - पहला पुरुषार्थ(प्रयत्न) और दूसरा प्रार्थना (ईश्वर का ध्यान) ।


किसान बीज से पौधा स्वयं नहीं निकाल सकता। वह बस अपने हिस्से का पुरुषार्थ करता है। उस बीज में से जीवन ईश्वर निकालता है, बरसात-धूप  व हवा ईश्वर देकर पौधा बड़ा करता है। लेकिन बिना बीज बोए मात्र प्रार्थना से फल की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अध्यात्म में कोई शोर्टकट नहीं है।


आज बच्चों को असली अध्यात्म समझ आ गया।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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