प्रश्न - पूर्वजन्म के कर्मो के फल अनुसार हमारे जीवन में सुख व दुःख का सृजन भाग्य-प्रारब्धवश होता है, लोग हमारे साथ अच्छा या बुरा व्यवहार करते हैं। किसी ने मेरे साथ बुरा किया और मैं बदला लूँ या कोई मुझसे पिछले जन्म का बदला ले रहा है, इत्यादि इन कर्मो का सिलसिला बन्द कैसे होगा। मुझे किसी से बदला नहीं लेना अगले जन्म में यह कैसे सुनिश्चित करूँ?
उत्तर - दी, श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने कर्मयोग बहुत अच्छे से समझाया है। उसका सारांश आधुनिक भाषा मे हम यहां आपके प्रश्नों के उत्तर में बता रहे हैं।
हमारी आत्मा के कर्मो का ब्रह्माण्ड के बैंक अकाउंट और सामाजिक लेन-देन भी हमारे पैसों के बैंक अकाउंट और सामाजिक लेन-देन जैसा है।
शरीर के वस्त्र बदलने से बैंक अकाउंट व सामाजिक लेनदेन में कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सांसारिक अकाउंट का रिश्ता आपसे है आपके वस्त्रों से नहीं..
इसीतरह शरीर रूपी वस्त्र बदलने से ब्रह्माण्ड के कर्मों के बैंक अकाउंट को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ब्रह्मांड का रिश्ता आत्मा से है शरीर से नहीं..
संचित कर्मफ़ल में पुण्य आपकी "सेविंग्स" है, जिसे आप विभिन्न सुखों के माध्यम से उपभोग करते हैं। संचित कर्मफ़ल में पाप आपके "लोन" है जिनका विभिन्न कष्ट के रूप में आप भोग करते हैं।
कर्म तो प्रत्येक पल व प्रत्येक क्षण भी हो रहा है, वह पुण्य हुआ तो पुण्य की सेविंग्स को बढ़ा रहा है और पाप के लोन को घटा रहा होगा। यदि पाप हुआ तो पुण्य की सेविंग्स को घटा रहा होगा और लोन को बढ़ा रहा होगा।
केवल पाप से मुक्ति या केवल पुण्य से मुक्ति नहीं हो सकती। दोनों से मुक्त होंगे तभी कर्मबंधन कटेगा।
यदि आप पाप व पुण्य दोनों से मुक्ति चाहते हैं, सुख व दुःख दोनो से मुक्ति चाहते हैं तो कर्म के पीछे के भाव को बदलना होगा। क्योंकि कर्मफल(Result) का आधार कर्म(Action) नहीं होता अपितु कर्म करने के पीछे जो भावना (Intention) होता है वही मुख्य कारक है।
भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं यदि तू कर्म को मुझे अर्पित करता है व कर्म के पीछे मात्र परमार्थ व लोकहित का भाव होता है, तो ऐसा कर्म बन्धन में नहीं बांधता। ईश्वर या गुरु को समर्पित होकर उसके लिए उसकी इच्छा व प्रेरणा से किया निमित्त बन कार्य भी कर्मबन्धन में नहीं बांधता।
आपके कर्मफ़ल के अकाउंट को ईश्वर तभी null and void (नष्ट) करेगा, जब आप स्वयं के "मैं" अहंकार को नष्ट कर स्वयं को खाली करके समर्पण से उससे जुड़ जाएंगे। तब "मैं" की जगह "वह परमात्मा" शेष रह जायेगा।
जब तक कोई भी कार्य में कर्ताभाव "मैं" होगा तब तक बंधन व कर्मफ़ल का बैंक अकाउंट अस्तित्व में होगा।
किसी से अगले जन्म में बदला नहीं लेना चाहती, पुनः कोई सामाजिक पाप-पुण्य का लेन देंन नहीं चाहती। तो एक ही उपाय है - "मैं" का त्याग , और उस ईश्वर व गुरु के निमित्त जीवन जीने का भाव। कोई दुःख दे तो बोलें यह ईश्वर की इच्छा से है, कोई सुख दे तो ईश्वर की इच्छा से है। किसी का भला करें तो सोचें ईश्वर ने मुझे सेवा का सौभाग्य दिया, किसी को जाने-अनजाने में दुःखी किया तो बोले हे ईश्वर मुझे माफ़ करो और मेरा मार्गदर्शन करो कि पुनः ऐसा न हो। हे ईश्वर तुम्हारा अंश हूँ तुम्हारे लिए ही जीना चाहता हूँ, तेरी इच्छा पूर्ण हो बस यही चाहत है।
कण कण में प्रत्येक व्यक्ति में उसी ब्रह्म के दर्शन करो। जैसे लकड़ी(काष्ठ) से बनी प्रत्येक वस्तु (दरवाजा, कुर्सी, मेज, विभिन्न फर्नीचर इत्यादि) वस्तुतः लकड़ी ही है उसका रूप रंग कैसा भी क्यों न हो? इसीतरह पर ब्रह्म के अंश व उसकी इच्छा से बनी समस्त सृष्टि वस्तुतः ब्रह्म ही है। तत्वदृष्टि से संसार को देखना शुरू कीजिए और "मैं की माया" से मुक्त हो जाइए। प्रत्येक कर्म को ईश्वर निमित्त बन कीजिये और उसे अर्पित करते चलिए। "मैं" व कर्ताभाव से मुक्त हो जाइए तो कर्मबन्धन से मुक्त स्वतः हो जाएंगे।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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