Thursday 26 August 2021

प्रश्न - भजन कीर्तन की उपयोगिता क्या है?

 प्रश्न - भजन कीर्तन की उपयोगिता क्या है?


उत्तर- यह जगत नाद के आधीन है। संगीत चिकित्सा को तो वैज्ञानिक भी मान्यता देते हैं। मन के विसाद को दूर करना हो या मन को ऊर्जावान बनाना हो सङ्गीत मददगार है। सङ्गीत जब भक्तिमय होता है तब उसे भजन कहते हैं।


मनुष्य की भावनाओं की शुद्धि का उत्तम मार्ग भजन कीर्तन है। भजन से भाव सम्प्रेषण आसान होता है। भजन कीर्तन से हम अपने ईष्ट के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं। यह साधना का एक प्रकार है। 


सही साधनामय जीवन के लिए भावों को साधना बहुत महत्त्वपूर्ण है। भगवान की सभी तप की विधियों, कर्मकांड, साधना में भी भाव ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे भाव बहुत ताकतवर होते हैं। वे हमें और दूसरों के प्रति हमारी सोच को पूरी तरह बदलने की ताकत रखते हैं। अंसत के भाव हमें ठीक वैसे ही डुबो देते हैं, जैसे वर्षा सद्गजगत को। हममें किसी के प्रति क्रोध का भाव हो, तो पहली बार उसका प्रभाव उतना नहीं होता, जितना दूसरी बार। हर बार उसकी तीव्रता बढ़ती जाती है। हम उसके जाल में ऐसे फंस जाते हैं कि उसे काबू करने की जगह उसके काबू में हो जाते हैं। धीरे-धीरे उसका प्रभाव और तीव्रता, हमारे विवेक और व्यक्तित्व पर पूरी तरह छा जाती है। नकारात्मक भाव हमारे मन का सहारा पाकर जीवित रहे आते हैं। पर यह बात यहां खत्म नहीं होती। जो हमारा भाव है, वही अब दूसरे का भी जाता है। जो गुस्सा पैदा हममें हुआ था, वह अब दूसरे का भी हिस्सा बन जाता है। पर हम जो देते हैं, वह वापिस लेना नहीं चाहते। क्योंकि हमें अपना गुस्सा सही और दूसरे का गलत लगता है।


हमारी भगवान की साधना कितनी भी सशक्त क्यों न हो, जब तक यह नकारात्मक भाव पीछा नहीं छोड़ते, तब तक लक्ष्य पर पहुंचना संभव नहीं होगा। हमारा लक्ष्य है आंतरिक सुख और ज्ञानलोक के स्रोत को ढूंढ़ना, पर उसे पाने के लिए भावों को साधना जरूरी होगा।


हमें अपने अंतर में वह भाव जगाने होंगे, जिन्हें हम दूसरों से पाना चाहते हैं। हमें यह मानना पड़ेगा कि जो हम दूसरों को देते हैं, वह हम तक लौटकर जरूर आयेगा।


ब्रह्माण्ड की शक्तियों से जुड़ने के लिए ही भाव ही एक मात्र उपाय है। भावनाएं परिणाम बदल देती हैं।


तुलसीदास जी कहते हैं:-

*जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी।*


हम सभी एक ही प्रकार के एटम से बनें हैं, आपस में भावों के माध्यम से और घनिष्ठता से जुड़ जाते हैं। मूर्ति पत्थर की भगवान तब बनती है जब मनुष्य में उसके प्रति भगवान की भावना की प्राण प्रतिष्ठा होती है।


चैतन्य महाप्रभु हो या मीरा बाई उन्होंने भजन के माध्यम से ही इष्ट से भावनाएं जोड़कर उनकी चेतना से एकाकार हुए थे।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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