“बाढे पूत पिताके धरमे और खेती उपजे अपने करमे”
जो बोयेंगे वही काटेंगे... खेती अनाज की हो या इन्सान की उसका परिणाम इंसान के धर्म व कर्म पर निर्भर करता है।
पिता उत्तराधिकार में खेत दे सकता है, परन्तु खेती तो सन्तान को निज कर्म से ही करनी पड़ेगी...
एक देहाती कहावत है, “बाढे पूत पिताके धरमे और खेती उपजे अपने करमे” अर्थात माता-पिताद्वारा किया हुआ धर्माचरणका प्रभाव संततिपर अवश्य ही पडता है और खेतीके लिए पुरुषार्थ आवश्यक है ।
आजकल माता-पिता स्वयं साधना नहीं करते और न ही धर्माचरण करते हैं, उसके विपरीत पैशाचिक प्रवृत्तिवाले पाश्चात्य संस्कृतिका अंधानुकरण करते हैं और तत्पश्चात अपने संतानके दिशाहीन होनेपर दुखी होते हैं । वस्तुतः बच्चे अनुकरणप्रिय होते हैं और अपने घरके सदस्योंके संस्कारको सहज ही आत्मसात कर लेते हैं । साधना इतनी सूक्ष्म होती है कि वह हमारे कुलके संस्कारमें अंतर्भूत हो जाती है । वैदिक संस्कृतिके अतिरिक्त इस संसारकी कोई भी संस्कृति सत्त्व गुण आधारित नहीं है; अतः आपके बच्चोंके अंदर वैदिक संस्कृतिके संस्कारका बीजारोपण करना प्रत्येक माता-पिताका मूल धर्म है ।
बीज रूप संस्कार का भी सही होना जरूरी है और बच्चे का सही मार्गदर्शन भी जरूरी है।
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