प्रश्न - साधक को दिव्य अनुभूति कब मिलती है?
उत्तर - दिव्य अनुभूति पाना सरल है, मगर दिव्य अनुभूति की शर्त सरल हृदय बनना कठिन है। सरलता स्वयं के मैं को हटाए बिना नहीं मिल सकती।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं...
एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती , या तो मैं रहेगा या वो रहेगा..
बीज को वृक्ष तभी मिलेगा जब वह स्वयं गलने मिटने को तैयार होगा, स्वयं का अस्तित्व मिटाएगा तभी स्वयं में वृक्ष बनकर स्वयं को ही वृक्ष पायेगा।
इसी तरह साधक को "मैं" रूपी अहं को गलाना मिटाना पड़ेगा, तब ही स्वयं के भीतर ही रूपांतरित होकर दिव्य अनुभूति पायेगा।
राजसूय यज्ञ में भगवान श्री कृष्ण प्रथम पूज्य थे किंतु उन्होंने कार्य चुना अतिथियों की चरण सेवा और उनकी पादुका रखने का... जब ईश्वर इतना विनम्र है तो वह वही विनम्रता अपने भक्तों से भी चाहता है... उच्च पद योग्यता पात्रता आधारित सम्मान संसार में लीजिए, लेक़िन अध्यात्म क्षेत्र में राजा और रंक समान हैं। ईश्वरीय कार्य में राजा को जूते चप्पल रखने में भी नहीं हिचकना चाहिए...
जैसे जैसे साधक परिपक्व होता है पके फल वाली डाली की तरह झुकता जाता है... मान अपमान से परे हो जाता है क्योंकि वह दास भक्ति स्वीकार लेता है... कर्ता भाव त्याग के निमित्त भाव में जीने लगता है। मैं के अस्तित्व के दिखावे छलावे को छोड़ देता है, निमित्त बन सरल हृदय से दास भक्ति करता है तब दिव्य अनुभूतियों के अनुभव उसे होते हैं। ऐसे साधक के दर्शन मात्र से उसके साथ कुछ क्षण नेत्र बंद कर बैठने मात्र से आपको ऊर्जा महसूस होने लगती है। ऐसे स्वयं सुधरे और सरल हृदय के साधक के बोलने पर लोग बदलने लगते हैं। बदलाव दिखता है लोगो को दिशा धारा मिलती हैं।
~ विचारक्रांति, गायत्री परिवार गुरुग्राम हरियाणा
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