Thursday, 30 July 2020

ध्यान आनन्द का स्रोत है, यदि मन को आनन्द के स्रोत से वंचित रखोगे तो भूखा मन विक्षप्तता का शिकार होगा, जिसे नशा कहते हैं।

ध्यान आनन्द का स्रोत है, यदि मन को आनन्द के स्रोत से वंचित रखोगे तो भूखा मन विक्षप्तता का शिकार होगा, जिसे नशा कहते हैं।

*नाश* शब्द से उत्तपन्न हुआ है  *नशा* , मनुष्य का दिमाग़ रूपी पहले ही बहुत कॉम्प्लिकेटेड सिस्टम है। इसका सॉफ्टवेयर मन उससे भी अधिक कॉम्प्लिकेटेड है। इसमें चलने वाले विचार वह भी बड़े विचित्र हैं, ओर छोर पता नहीं, साधारण मनुष्यों को इन विचारों को नियंत्रित करना आता नहीं।

जिन लोगों को बचपन से योग, ध्यान, प्राणायाम व स्वाध्याय द्वारा इसे नियंत्रित, सम्हालने व चलाने की योग्यता नहीं सिखाई गयी होती। तो यह मन रूपी कॉम्प्लिकेटेड सिस्टम उनसे हैंडल नहीं होता। मनुष्य किसी भी हालत में कुछ क्षण मन की बक बक से छुटकारा चाहता है, मन को आराम देना चाहता है। अस्थिर मन की वास्तविकता से भागना चाहता है। ऐसे अस्थिर मन वाले लोग नशा माफ़िया के जाल की मछली हैं।

नशा व्यापारी अस्थिर मन को स्थिर करने का भ्रम जाल - अर्ध बेहोशी - मदहोशी हेतु नशे की लत  का आदी इन्हें बना देते हैं। जब तक नशे की दवा से अर्ध बेहोशी होती है, इंसान वस्तुतः क्षणिक रिलीफ़ महसूस करता है। जैसे ही होश में आता है वर्तमान से घबराकर पुनः मन को बेहोश करने की फिराक में रहता है, पुनः नशा करता है। मग़र जबरजस्ती बार बार मन को बेहोश करने के कारण मन क्षतिग्रस्त हो जाता है, जो मन शरीर के हार्मोन्स व अंतरंग संचालन का कार्य कुशलता से पहले करता था, वह नशे के कारण बाधित होता है, धीरे धीरे लगातार नशीले द्रव्य से अंदर ही अंदर मनुष्य धीमी मौत मरने लगता है। मनुष्य के अस्तित्व का नाश करने में नशा सफल होता है।

मन को आनन्द व आराम चाहिए, यदि यह आनन्द व आराम मन को ध्यान स्वाध्याय से पर्याप्त दे दो, वह उत्साह उमंग व चैतन्यता में रहता है, मन शांत भी रहता है। आनन्द में भी रमता है। स्वास्थ्य भी बढ़ता है।

मन को आनन्दित रखने की विधि ध्यान व स्वाध्याय अपना लो, तो नशे की कभी जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Tuesday, 28 July 2020

गृहस्थ एक तपोवन है*, जो तपने को तैयार हो उसे ही सन्तान सुख लेने का अधिकार है

गृहस्थ एक तपोवन है*, जो तपने को तैयार हो उसे ही सन्तान सुख लेने का अधिकार है..

नई पीढ़ी में अधिकांश युवा प्रेम भाव से वंचित होते जा रहे है, भावनात्मक आदान-प्रदान की जगह गिफ्ट के लेन-देन प्रेम समझ बैठी है, स्वयं के सुख के लिए प्रेम कर रही है। प्रेम के मूल जड़ समर्पण व त्याग को भूल गयी है, केवल जहां स्वार्थ सधता है वहीं प्रेम का ढोंग कर रही है। तराजू लेकर प्रेम कर रहे हैं, जहाँ सौदा जम रहा है वही प्रेम का ढोंग हो रहा है। प्रेम का बन्धन व जिम्मेदारी स्वीकार्य नहीं है, बस मनमानी करने की जहां खुली छूट हो वह लिव इन रिलेशनशिप अपना रहे हैं। यह परिवार व्यवस्था को तोड़ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि उन बच्चों की परवरिश का क्या होगा जो ऐसे टूटे बिखरे व्यापारी रिश्तों से जन्मेंगे। ऐसे रिश्ते से जन्मे बच्चे या तो कोख में ही मर्डर कर दिए जाएंगे, या अनाथालय में डाल दिये जायेंगे, या ऐसे बच्चों की परवरिश व उनके जीवन का भटकाव को कोई एकल माता या पिता टेंशन में झेलेगा। समाज उन्हें नाज़ायज की संज्ञा देगा। उन्हें अपमानित जीवन ताउम्र जीना पड़ेगा।

मेरी एक सलाह ऐसे युवाओं से है, अपने प्रेम व्यापार और मनमानी स्वतंत्रता की पाश्चात्य सोच की बलि अपनी संतानों को न चढ़ाएं। परिवार नियोजन करके मनमानी करें, जिससे आपकी भूल का खामियाजा समाज को या अन्य किसी को न उठाना पड़े।

*गृहस्थ एक तपोवन है*, जो तपने को तैयार हो उसे ही सन्तान सुख लेने का अधिकार है। बच्चे को माता - पिता दोनो का साथ चाहिए।

💐श्वेता, Diya

Monday, 27 July 2020

शिक्षक का सम्मान और अभिमान* गुरुवर के परमप्रिय शिष्य श्री राम सिंह राठौर थानेदार चयनित हुए,

*शिक्षक का सम्मान और अभिमान*

गुरुवर के परमप्रिय शिष्य श्री राम सिंह राठौर थानेदार चयनित हुए, गुरुदेव के प्रति अटूट निष्ठां और श्रद्धा थी, और जन जन तक गुरुवर के युगसन्देश को पहुंचाने की आकांक्षा थी। गुरुदेव ने कहा बेटा तू अध्यापक बन जा। शिक्षक के रूप में नए बच्चों में संस्कार गढ़ने का महत्त्वपूर्ण दायित्व निभा।

*युगऋषि ने कहा- बेटे इस देश के भविष्य को शिक्षक गढ़ रहा है।डॉक्टर की ग़लती कब्र में गड़ जाती है या चिता में जल जाती है, लेकिन शिक्षक की ग़लती समाज में महामारी के रूप में फ़ैलती है। शिक्षक की असावधानी से बना एक कुसंस्कारी और व्यसनी बच्चा अनेकों कुसंस्कारियों और व्यसनियों को गढ़ देगा।*

बेटा जब भी विद्यालय जाना, मन में भाव रखना क़ि तुम आद्यशक्ति गायत्री की आराधना करने जा रहे हो। एक एक बालक यज्ञ कुण्ड है और उसमें तुम संस्कारों की आहुतियां डाल रहे हो। एक एक बालक गीली मिटटी है तुम उसे कुशल कुम्हार की तरह गढ़ रहे हो। उसे शिक्षा के साथ विद्या भी देना।

जानते हो गणेश प्रथम पूज्य क्यूँ हैं? गणेश अर्थात् विवेक के साथ दूरदर्शिता। इसलिए गणेश सभी शक्तियों के साथ पूज्य हैं।
सरस्वती के साथ गणेश - अर्थात् ज्ञान का सदुपयोग। ज्ञान का उपयोग विवेक के साथ लोकहित हेतु करना। आतंकवादी कम ज्ञानी नहीं होते, लेकिन वो अपने ज्ञान का प्रयोग विनाश् के लिए करते हैं। अनपढ़ चोरी करेगा तो थोड़ा बहुत कर पायेगा, लेकिन यदि ज्ञानी चोरी करेगा तो गम्भीर परिणाम होगा। इसी तरह लक्ष्मी के साथ गणेश अर्थात् धन का सदुपयोग। दुर्गा के साथ गणेश अर्थात् शक्ति का सदुपयोग। अपने विद्यार्थियों को ज्ञान-धन-शक्ति तीनों के अर्जन सिखाने के साथ साथ इनके सदुपयोग के सूत्र भी संस्कारों के माध्यम से देते रहना।

*इस देश का भविष्य युवाओं के हाथ है। और शिक्षक के रूप में उन युवाओं को गढ़ने का परम् सौभाग्य तुम्हे मिलेगा। तुम्हारा योगदान किसी स्वतन्त्रता सेनानी से कम न होगा, यदि तुमने स्वावलम्बी, सेवाभावी, सच्चरित्र, लोकसेवी युवा भारत माँ के चरणों में अर्पित किये तो ये युवा देश को समृद्ध, सुखी, श्रेष्ठ और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने में अपना अमूल्य योगदान देंगें*

श्रीराम सिंह राठौर जी ने, प्रशन्नता से गुरुआदेश मानकर थानेदारी छोड़कर अध्यापक रूपी युगशिल्पी बनने की जिम्मेदारी स्वीकार ली।

*याद रखें, जिस प्रकार डॉक्टर ऑपेरशन के वक़्त मोबाईल साथ नहीं ले जाता या स्विचऑफ़ कर देता है, उसी तरह शिक्षक को अध्यापन के वक़्त मोबाईल स्विच ऑफ़ कर देना चाहिए, क्यूंकि डॉक्टर से ज़्यादा अध्यापक को मानसिक ऑपरेशन के वक़्त सावधानी की आवश्यकता है।*

धन्य हैं वह लोग, जो शिक्षक स्वेच्छा से माँ भारती - मातृभूमि की सेवा के लिए बनते हैं, राष्ट्रपुरोहित की अहम भूमिका निभाते हैं। एक एक विद्यार्थी के अंदर राष्ट्र चरित्र गढ़ते हैं, उन्हें समाजउपयोगी बनाते हैं। ऐसे शिक्षकों के श्रीचरणों में भावांजलि स्वरूप 🌹🌹🌹 पुष्प अर्पित हैं। राष्ट्र के लिए जीवित संभावनाओं को तराशने वाले शिक्षकों को प्रणाम।



🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाईन इण्डिया यूथ एसोसिएशन

Sunday, 26 July 2020

_बांस_की_लकड़ी_को_क्यों_नहीं_जलाया_जाता_है

#_बांस_की_लकड़ी_को_क्यों_नहीं_जलाया_जाता_है।

इसके पीछे धार्मिक कारण है या वैज्ञानिक कारण ?

हम अक्सर शुभ(जैसे हवन अथवा पूजन) और अशुभ(दाह संस्कार) कामों के लिए विभिन्न प्रकार के लकड़ियों को जलाने में प्रयोग करते है लेकिन क्या आपने कभी किसी काम के दौरान बांस की लकड़ी को जलता हुआ देखा है। नहीं ना?
भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक महत्व के अनुसार, 'हमारे शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित माना गया है। यहां तक की हम अर्थी के लिए बांस की लकड़ी का उपयोग तो करते है लेकिन उसे चिता में जलाते नहीं।' हिन्दू धर्मानुसार बांस जलाने से पितृ दोष लगता है वहीं जन्म के समय जो नाल माता और शिशु को जोड़ के रखती है, उसे भी बांस के वृक्षो के बीच मे गाड़ते है ताकि वंश सदैव बढ़ता रहे।

क्या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है?
बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। लेड जलने पर लेड ऑक्साइड बनाता है जो कि एक खतरनाक नीरो टॉक्सिक है हेवी मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते हैं। लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है यहां तक कि चिता मे भी नही जला सकते, उस बांस की लकड़ी को हमलोग रोज़ अगरबत्ती में जलाते हैं। अगरबत्ती के जलने से उतपन्न हुई सुगन्ध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। यह एक फेथलिक एसिड का ईस्टर होता है जो कि श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करता है, इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवम हेप्टोटोक्सिक को भी स्वांस के साथ शरीर मे पहुंचाती है।
इसकी लेश मात्र उपस्थिति केन्सर अथवा मष्तिष्क आघात का कारण बन सकती है। हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
*शास्त्रो में पूजन विधान में कही भी अगरबत्ती का उल्लेख नही मिलता सब जगह धूप ही लिखा है,*
*🎯हर स्थान पर धूप,दीप,नैवेद्य का ही वर्णन है।*

अगरबत्ती का प्रयोग भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है।  मुस्लिम लोग अगरबत्ती मज़ारों में जलाते है, हम हमेशा अंधानुकरण ही करते है, जब कि हमारे धर्म की हर एक बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मानवमात्र के कल्याण के लिए ही बनी है।*

*🙏🏻अतः कृपया अगरबत्ती की जगह धूप  का ही उपयोग करें।

Saturday, 25 July 2020

श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 6),आत्मगौरव - आत्मसम्मान व आत्मनिर्भरता के छः स्तम्भ

*आत्मगौरव - आत्मसम्मान व आत्मनिर्भरता के छः स्तम्भ*

*श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 6)*

सन्तान जन्मजात दो पैरों पर खड़ा होना व चलना नहीं जानता। यदि माता-पिता उसे अभ्यास न कराएं तो शायद व चार पैरों के पशु की तरह ही चलता रहेगा। उसे यह विश्वास ही न हो पायेगा कि दो पैरों पर खड़ा होना व स्वयं के अस्तित्व को सम्हाल के चला जा सकता है। जब बालक के शरीर को चलाना सिखाया तो उसके मन को उसके पैरों पर चलना व सम्हालना भी तो आपको ही सिखाना होगा।

उसके अस्तित्व को आत्मगौरव - आत्मसम्मान व आत्मनिर्भरता के छः स्तम्भ पर खड़ा करना पड़ेगा। यह प्रशिक्षण जितनी जल्दी सम्भव हो शुरू कर दें, अन्यथा दुनियाँ की समस्याओं की ऊंची तूफानी लहरों में स्वयं को सम्हाल नहीं पायेगा। डिप्रेशन(तनाव) के गड्ढे में गिर जाएगा।

सन्तान को आत्म सम्मान के छह आधार क्रमशः सिखाये: -

1- *रहन-सहन का अभ्यास* - सुबह उठकर उसे व्यस्थित व साफसुथरा रहना सिखाएं, साफ स्वच्छ वस्त्र, व्यवस्थित बाल, सही आत्मविश्वास से भरी चाल होनी चाहिए । घर से बाहर कहीं घूमते  निकलते समय जैसे व्यवस्थित दिखते हैं। वैसे ही सूर्योदय से सूर्यास्त तक घर मे हो या बाहर जाएं, व्यवस्थित दिखे व रहें। माता-पिता रविवार की छुट्टी के दिन अव्यवस्थित रहने की जो भूल करते हैं व न करें। रविवार भी व्यवस्थित व्यक्तित्व के साथ रहें।

शरीर को स्वस्थ प्रशन्न व चुस्त दुरुस्त रखने के लिए योग-व्यायाम-प्राणायाम करें। स्वस्थ आहार खाएं। हमेशा चेहरे में ओज रखें। जब भी जहां भी बैठें कमर सीधी रखकर बैठने का अभ्यास डालें।

हमारे परमपूज्य गुरुदेव पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी व माता वन्दनीया हमेशा नित्य व्यवस्थित रहते थे। हमारे देश के प्रधानमंत्री मोदी जी हमेशा व्यवस्थित रहते हैं।

आपकी बेटी हो या बेटा उसे इतना अलर्ट व आत्मविश्वास से भरा खड़ा होना सिखाइये कि अचानक कोई उनपर हमला बोले तो भी वह उस हमले को रोक सकें। सतर्क अलर्ट होश में बैठे, उठे, खड़े हों व चलें।

2- *आत्म-स्वीकृति का अभ्यास* -

बच्चे को बताएं, हमें यह अधिकार नहीं था कि मन पसन्द आत्मा को सन्तान के रूप में चुन सकें, साथ ही तुम्हे भी यह अधिकार नहीं था कि मन पसन्द आत्मा को अपने माता-पिता के रूप में चुन सको। हम सबके पूर्वजन्म के ऋणानुबन्ध व कर्मफ़ल अनुसार हम लोग एक परिवार का हिस्सा हैं।  न हमने तुम्हे जन्म देकर कोई अहसान किया है, न तुमने जन्म लेकर कोई अहसान किया है। हम सब आत्माएं ऋणानुबन्ध से बंधी है। हमें स्वस्थ मन से एक दूसरे की आत्माओं को जीवन मे स्वीकार करना चाहिए, व प्रेम-प्यार व सहकार से रहना चाहिए। अपने अपने कर्तव्यों को निभाते रहना चाहिए।

प्रारब्ध-भाग्य मात्र परिस्थिति अपनी इच्छानुसार दे सकता है, मनःस्थिति व वर्तमान जन्म के कर्म से हम उसके परिणाम को तय कर सकते हैं, भाग्य बदल सकते हैं।

Situation + Response = Outcome

श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, परिस्थति व परिणाम दोनो तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम्हारे हाथ में केवल कर्म (Response) है। जो परिणाम (outcome) को प्रभावित करेगा।

मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है - यह व्यर्थ के डायलॉग बोलकर हमें समय नष्ट नहीं करना चाहिए। हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि ऐसा जब हो ही गया तो मेरा इस पर प्लान ऑफ एक्शन क्या होगा? समाधान केंद्रित दृष्टिकोण तभी विकसित होगा जब तुम परिस्थिति को स्वीकारोगे और उस पर आगे क्या करना है विचारोगे।

3-  *स्व-जिम्मेदारी का अभ्यास* - कभी भी अपने जीवन में जो कुछ भी घट रहा है उसके लिए दूसरे को दोष मत देना। अपने कर्मो व उनके परिणामो के लिए स्वयं उत्तरदायी होकर जिम्मेदारी उठाना।

अच्छा बैट्समैन स्वयं के खेल के लिए स्वयं जिम्मेदारी उठाता है, इसलिए इतिहास बनाता है। बुरा बैट्समैन बॉलर, अन्य ग्यारह खिलाड़ी, पिच , स्क्रीन इत्यादि को दोष देता है, इसलिए फिसड्डी रह जाता है।

दूसरे ने गुस्सा दिलाया - यह मत कहो,
यह कहो कि उसके खराब वाक्यों की बॉल को मैं खेल न सका इसलिए आउट हुआ व क्रोध आया।

दूसरे के कारण परीक्षा में कम नम्बर आये - यह मत कहो, अपितु यह कहो दूसरे द्वारा उतपन्न व्यवधानों को मैं झेल नहीं पाया, उनसे बचकर आगे बढ़ने में चूक गया इसलिए नम्बर कम आया।

मेरी इच्छाओं व आकांक्षाओं को कोई अन्य पूरा करेगा - यह मत कहो, अपितु यह कहो, मेरी इच्छाओं व आकांक्षाओं को पूरी करने की जिम्मेदारी मेरी है, मैं समस्त बाधाओं व चुनौतियों को पार करते हुए इन्हें पूरा करूंगा।

मेरे जीवन में जो कुछ सफलता या असफ़लता है, उसके लिए एकमात्र जिम्मेदार मैं हूँ।

4 - *आत्म-अभ्यास का अभ्यास* -
जैसे स्वर्णकार सभी आभूषणों की क़ीमत स्वर्ण के आधार पर लगता है, वैसे ही तुम भी समस्त जगत में व्यक्तियों की कीमत उसके आत्मतत्व के आधार पर लगाओ।

थोड़ा विचारों - दुनियाँ कौन देख रहा है? तुम्हारे नेत्र है न.. तो नेत्र - दृष्टा देखने वाला हुआ और संसार दृश्य हुआ। दोनो अलग हैं। आंखे स्वयं को नहीं देख सकती। दर्पण चाहिए।

तुम्हारे आंखों के दर्द या शरीर की हलचल कौन महसूस करता है, दृश्य में आनंद या अच्छा नहीं लगना कौन तय करता है। तुम्हारा मन है न .. तो मन शरीर का दृष्टा हुआ। शरीर दृश्य व मन दृष्टा। दो अलग अस्तित्ब है।

अच्छा पढ़ने में मन लगना या नहीं लगना, मन की दशा को कौन समझ रहा है। कोई अस्तित्व अंदर और भी है। जो मन को देख रहा है। वह कौन है- जिसे साक्षी(witness), आत्मा(soul), रूह इत्यादि कहते हैं। अतः मन और मन का साक्षी तो अलग अस्तित्ब हुए।

ऐसा क्या शरीर से निकल जाता है जिससे लोग उसे मृत समझते हैं। वह ऊर्जा जिससे शरीर चलता है जिसके न रहने पर मृत हो जाता है, वह क्या है, उसका उद्गम श्रोत क्या है?

 वह आत्मा का अस्तित्व तुममें कहाँ है? उस मन के साक्षी और ऊर्जा स्रोत को अंतर्जगत में नित्य 20 से 30 मिनट ध्यान कर तलाशो। जिस दिन तुम उसे जान लोगो, आत्म ज्ञानी-ब्रह्म ज्ञानी बन जाओगे।

5 - *उद्देश्य से जीने का अभ्यास* - बेटे, गाड़ी में बैठने से पहले गाड़ीवान को यह बताना होता कि कहाँ जाना है। यात्रा का उद्देश्य व मंजिल क्लियर हो तो ही वह यात्रा है अन्यथा भटकाव ही है।

इसी तरह तुम जीवन के उद्देश्य व मंजिल तय कर लो, तो यह जीवन यात्रा सुखद हो जाएगी अन्यथा तुम एक शशरीर भटकती आत्मा होंगे।

रात को ही मन को कल क्या क्या करना है, दिन का टाइम टेबल बता दो तो अगला दिन व्यवस्थित होगा। यदि प्रत्येक दिन क्या क्या करना है व क्यों करना है? एक सप्ताह में क्या अचीव करना है, एक महीने में क्या अचीव करना है, एक वर्ष में क्या अचीव करना है इत्यादि मन को क्लियर कर दो, जीवन दिशा मिल जाएगी।

6- *व्यक्तिगत ईमानदारी का अभ्यास* - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, प्रत्येक जगह वह किसी न किसी टीम का हिस्सा होता है। हमें अपने हिस्से की जिम्मेदारी का ईमानदारी से वहन करना चाहिए।

अपनी नज़रों में सदा ऊंचा उठे रहना चाहिए, यह तभी सम्भव है जब आप अपने हिस्से की जिम्मेदारी का ईमानदारी से वहन करेंगे।

वर्तमान में आपकी जिम्मेदारी व कर्तव्य क्या हैं, उन्हें पहचानिए। उनको ईमानदारी से कीजिये।

यदि कोई अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर रहा तो उसे एक बार समझाइए, न समझे तो उसे छोड़कर केवल अपने हिस्से के कर्तव्य को ईमानदारी से कीजिए।

मेरे बच्चे यदि आप इन छ: आधारों को अपनाएंगे तो आप स्वयं को आत्मगौरव व आत्मानुशासन से भरा हुआ पाएंगे। आत्म विश्वास से भरे रहेंगे।

क्रमशः...

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

देवउपासना* - उस देव के पास बैठकर उसके सान्निध्य में उसके जैसा बनना, देवता की उपासना में *मनुष्य में देवत्व जगना

*देव उपासना* - उस देव के पास बैठकर उसके सान्निध्य में उसके जैसा बनना, देवता की उपासना में *मनुष्य में देवत्व जगना* - *धरती पर स्वर्ग का अवतरण घटना*।

अग्नि के पास पास बैठकर कोई ठण्डा नहीँ रह सकता। बर्फ के सान्निध्य मे कोई गर्म नहीं रहता। फिर देवता के पास बैठने(उपासना) से देवत्व स्वयं में  न उभरे ऐसा नहीं हो सकता। उपासना के दो चरण - जप व ध्यान वस्तुतः स्वयं में देवत्व उभारने की प्रक्रिया है।

यदि अग्नि के समक्ष गर्म नहीं हो रहे अर्थात अग्निशमन आवरण पहनकर बैठे हो, बर्फ के समक्ष ठंडे नहीं हो रहे अर्थात ऊनि वस्त्र का आवरण पहना है। देवता की उपासना में देवत्वं नहीं घट रहा अर्थात अहंकार का आवरण पहनकर बैठे हैं।

*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्*।

हम उस अविनाशी ईश्वर का ध्यान करते है,  जो भूलोक, अंतरिक्ष , और स्वर्ग लोकोंका का उत्पन्न किया है, उस सृष्टी कर्ता , पापनाशक,अतिश्रेष्ठ देव को हम धारण करते है, वह परमात्मा की समस्त शक्तियां हममें भी विद्यमान है।

उसके निरन्तर ध्यान से वह देवत्व हममें घट रहा है, उसके ध्यान से हमारा चित्त शुद्ध हो रहा है, मन के मोह का पर्दा गिर रहा है, अनावरण हो रहा है। वह श्वाशवत हममें उभर रहा है।

हम भी मन वचन कर्म से उस परमात्मा की तरह बनने लग रहे हैं, जैसे भ्रमर की गुंजन से कीट भ्रमर में परिवर्तित होता जाता है। ऐसे ही गायत्रीमंत्र के निरन्तर जप के अन्तः गुंजन से हम भी गायत्रिमय बन रहे हैं।

– वह (ईश्वर) हमें सद्बुद्धी दें एवम सत्कर्म मे प्रेरित करे। हमें अपने जैसा बना रहा है।

हम भी प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप बन रहे हैं, श्रेष्ठता, तेजस्विता को धारण कर रहे हैं, समस्त पापों को नष्ट कर रहे हैं, हममें देवत्व का जागरण हो रहा है। हमारी बुद्धि हंस - विवेकी बन रही है।

विवेक अर्थात पृथक्करण(Filter) बुद्धि, असत्य व सत्य, नश्वर व शाश्वत, ज्ञान व अज्ञान, दृश्य व दृष्टा को अलग अलग पहचान कर सके।

दृश्य व दृष्टा के अंतर को विवेकदृष्टि से ही अलग किया जा सकता है। शरीर-मन-आत्मा के तीन स्तरों का विवेचन उपासना-साधना से ही सम्भव है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

अपनी वर्तमान हैसियत देखकर बच्चे अधिक पैदा करने की भूल न करें

*अपनी वर्तमान हैसियत देखकर बच्चे अधिक पैदा करने की भूल न करें*

एक सेव के बाग का मालिक जिसके पास सौ पेड़ थे, अमीरी के दिन गुजारता। पांच बेटे पैदा किये, बोला मेरी जेब व मेरी हैसियत है ज्यादा सन्तान की। बच्चे बड़े हुए 20 पेड़ सबके हिस्से आये, वह पिता के समान न अमीर रहे न उनकी उतनी हैसीयत रही। उन पांचों में से बड़े ने पिता की तरह पांच बच्चे पैदा किये, दूसरे व तीसरे ने चार-चार बच्चे पैदा किये, चौथे ने दो पुत्र पैदा किये, पांचवा भाई समझदार था एक ही रखा। बड़े भाई के बच्चों में जब बंटवारा हुआ तो प्रत्येक को चार-चार सेव के पेड़ मिले। तीसरे व चौथे भाई की क्योंकि चार संतानें थी तो उनके पुत्र को पांच-पांच वृक्ष मिले। चौथे भाई के क्योंकि दो पुत्र थे तो उन्हें दस-दस वृक्ष मिले। पांचवे भाई के इकलौते पुत्र के पास पिता की संपत्ति ज्यों कि त्यों 20 वृक्ष रहे। सौ सेव के पेड़ों का मालिक जहां ऐशोआराम से जी रहा था। आज उसके बड़े पुत्र के बच्चे(पौत्र) चार पेड़ो के साथ बमुश्किल जिंदगी चला पा रहे हैं। दादा की अमीरी पोतों तक नहीं बची।

सेव के बाग के प्रथम मालिक ने दूरदर्शिता अपनाकर एक या दो सन्तान रखी होती, तो उनके वंशजो को परेशानी का सामना न करना पड़ता।

सन्तान सुख एक या दो बच्चों से लेना उत्तम है, लेक़िन दो से अधिक सन्तान देश समाज व अपनी संतानों को गरीब व दरिद्र बनाने की योजना है।

प्रत्येक बच्चा श्वांस, जल, चलने की रोड, नौकरी, व्यवसाय सबमें सीधे सीधे समाज मे हिस्से लेगा। अतः यह कहना कि हमारी हैसियत है अधिक बच्चे की तो झूठ बोल रहे हो, समाज व पृथ्वी की हैसियत व प्राकृतिक संसाधन का आंकलन व हैसियत तो अधिक बच्चे पैदा करते समय देखनी चाहिए थी न...

💐श्वेता, Diya

अब न चेते तो बहुत देर हो जाएगी। जनसंख्या विष्फोट एक बहुत बड़ी समस्या है। जनसंख्या नियंत्रण कानून की बहोत है आवश्यकता। अधिकतर लोग समझदार नहीं है, पशुवत है, उन्हें मात्र कानून के भय से ही उन्हें जनसंख्या बढाने से रोका जा सकता है।

अब न चेते तो बहुत देर हो जाएगी। जनसंख्या विष्फोट एक बहुत बड़ी समस्या है। जनसंख्या नियंत्रण कानून की बहोत है आवश्यकता। अधिकतर लोग समझदार नहीं है, पशुवत है, उन्हें मात्र कानून के भय से ही उन्हें जनसंख्या बढाने से रोका जा सकता है।

सत्य घटना - एक दादी को उनके जमींदार भाई ने बड़ी कोठी, दस बोरे सोने चांदी व जवाहरात, सौ एकड़ ज़मीन और 5 तालाब व बाग गिफ्ट किये। उन्होंने कई बच्चे किये उनके बच्चों के कई बच्चे हुए। इतनी जनसंख्या वृद्धि हुई कि कहने को अब उस गाँव मे समस्त लोग उन्हीं दादी की वंश परम्परा के रक्त सम्बन्धी हैं। मग़र खेत के नाम पर प्रत्येक व्यक्ति के पास एक एकड़ भी जमीन नहीं, बाग तो छोड़ो कुछ पेड़ हिस्सेदारी में मिले हैं। जिस दादी की अमीरों में गिनती थी उनके वंशज मजदूरी करके गुजारा कर रहे हैं। जो दादी गरीबो को दान देती थी, आज उनके वंशज हाथ फैलाने को मजबूर हैं। कुछ पढ़लिख कर ग़ांव छोड़ चले गए, कुछ बड़े शहरों में ड्राइवर है, कुछ रोड बनाने के मजदूर हैं, कुछ रेलवे में है। यदि देश की आजादी के समय जनसंख्या कानून बन जाता, दादी व उनके वंशज एक या दो सन्तान ही रखते तो आज वह समृद्ध बने रहते।  आज जनसंख्या दबाव का शिकार हो उस ग़ांव के लोग गरीब व दरिद्र न बनते। जमीन व प्राकृतिक संसाधन नहीं बढ़ रहे परन्तु जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि भारत को तबाह कर देगी। अब न चेते तो बहुत देर हो जाएगी। भूखों मरने की नौबत आएगी।

💐श्वेता, DIYA

Friday, 24 July 2020

जीवन के खेल में तब तक सन्यास सम्भव नहीं जब तक खिलाड़ी स्वयं न चाहे..

*जीवन के खेल में तब तक सन्यास सम्भव नहीं जब तक खिलाड़ी स्वयं न चाहे..*

जिस प्रकार सच्चा बैट्समैन बैटिंग की जिम्मेदारी उठाते हुए कहता है कि मैं इसलिए आउट हुआ क्योंकि मैं यह बॉल खेल नहीं पाया । वह इस बात का रोना नहीं रोता कि बॉलर और  उसकी 11 लोगों की टीम ने मुझे मिलकर आउट कर दिया, सब बहुत बुरे हैं।  सच्चा बैट्समैन क्योंकि स्वयं की सफलता व असफ़लता की जिम्मेदारी उठाता है, इसलिए इतिहास बनाता है। दोषारोपण छोड़कर खेल के सुधार में जुटता है।

सच्चा बैट्समैन कहता है, मैं और ज़्यादा तैयारी अगले मैच की करूंगा, अपनी बैटिंग और एकाग्रता सुधारूँगा और पुनः नए मैच में इतिहास बनाऊंगा।

बुरा बैट्समैन स्वयं के आउट होने पर बहाने बनाता है, पिच सही नहीं थी, बॉलर बहुत तेज था, साइड स्क्रीन में लोग खड़े थे, रौशनी कम है। यह बहाने ढूढने वाले कभी कोई इतिहास नहीं बनाते।

वैसे ही समस्या में उदासी व डिप्रेशन का कारण समस्या को हैंडल करने की हमारी चूक है। वह अन्य 11 लोग नहीं जिन्होंने ने हमारे लिए समस्या उत्तपन्न की।

अब स्वयं तय कर लें कि सच्चे जीवन खिलाड़ी बनकर स्वयं के जीवन की जिम्मेदारी उठाना है, या बुरा जीवन का खिलाड़ी बनकर अपनी असफ़लता के लिए बहाने ढूढने व दोषारोपण में जुटना है। जीवन परिणाम उसी अनुसार होगा।

जिंदगी के खेल में हमें तब तक कोई सन्यास नहीं दिला सकता जबतक हम स्वयं न चाहें। एक मैच हारे तो क्या हुआ अगला मैच जीत सकते हैं। बस अभ्यास व वैराग्य की प्रैक्टिस तो करें, गुरु, गीता व गायत्रीमंत्र की कोचिंग तो लें।

अपने जीवन कोच सदगुरु के साहित्य पढ़े तो सही, नित्य गायत्रीमंत्र जपें तो सही, नित्य श्रीमद्भागवत गीता का एक अध्याय पढ़े तो सही, नित्य सूर्य की ऊर्जा ध्यान में धारण करें तो सही। योग-प्राणायाम से स्वयं को चुस्त दुरुस्त रखें तो सही। तब अपने जीवन को खेलने उतरे, इतिहास बनेगा, कर्म की कुशलता से प्रत्येक समस्या की बॉल को खेलना आ जायेगा।

इतिहास बनाना है तो जीवन के खेल में योग्यता अर्जित करने में जुटे।

भाइयों बहनों, अपने जीवन की जिम्मेदारी स्वयं उठाओ, अपने जीवन मे जो कुछ घट रहा है उसे अपने कर्मफ़ल के कारण समझो। समस्या को हैंडल करनी योग्यता या अयोग्यता का परिणाम समझो। स्वयं को इतना कुशल बनाओ कि जीवन के खेल को हंसते हंसते सरलता व सहजता से खेल सको।

मेरे वह भगवान को गाली देने वाले भाइयों बहनों , यह कहने वाले कि भगवान हमारी नहीं सुनता। कृपया इस सत्य को स्वीकारो कि हम भगवान की जीवन कोचिंग लेने नित्य नहीं जाते, नहीं सुनते व पढ़ते श्रीमद्भागवत गीता, नहीं जपते गायत्रीमंत्र व नहीं करते ध्यान, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए योग व्यायाम प्राणायाम नहीं करते, मन को स्वस्थ रखने के लिए स्वाध्याय नहीं करते। जीवन खेल नहीं सीखते, रोना रोते रहते हैं कि भगवान हमारी नहीं सुनता। मेरी तो किस्मत ही ख़राब है। सत्य स्वीकार लो कि तुम भगवान की नहीं सुनते, तुम ईश्वरीय अनुशासन में नहीं चलते, तुम कर्मफ़ल का विधान नहीं समझते, तुम नित्य स्वयं को योग्य बनाने में नहीं जुटते, जीवन खेल नहीं सीखते।

💐श्वेता, DIYA

अर्जुन सा विजेता बनने का फार्मूला

*अर्जुन सा विजेता बनने का फार्मूला*

अर्जुन बनना है तो,
कृष्ण को तो नित्य सुनना पड़ेगा,
बुद्धि रथ का सारथी व जीवन मित्र,
भगवान श्री कृष्ण को बनाना होगा..

जीवन के महाभारत में,
अपना युद्ध तो स्वयं लड़ना होगा,
मोह व निराशा को छोड़ने हेतु,
श्रीमद्भागवत गीता का एक अध्याय,
नित्य अर्जुन बन पढ़ना होगा।

गौ, गंगा, गीता व गायत्री का,
आशीर्वाद तो लेना होगा,
मन को ऊर्जावान बनाने हेतु बन्धुवर,
 गायत्री मन्त्र तो नित्य जपना होगा।

भावनात्मक रूप से,
आत्मनिर्भर तो बनना होगा,
मजबूत मन करके,
हर आसक्ति से मुंह मोड़ना होगा।

अर्जुन बनने हेतु,
कर्मयोग तो अपनाना पड़ेगा,
प्रत्येक कर्म में कुशलता के लिए,
नित्य ध्यान-योग- प्राणायाम तो करना पड़ेगा।

अर्जुन की तरह,
जीवन लक्ष्य पर केंद्रित होना होगा,
प्रत्येक क़दम अपना,
जीवन लक्ष्य की ओर ही बढ़ाना होगा।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - *जब मनुष्य चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य बनता है तो पुनः मनुष्य योनि में उसे प्रारब्ध क्यों भोगना पड़ता है?*

प्रश्न - *जब मनुष्य चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य बनता है तो पुनः मनुष्य योनि में उसे प्रारब्ध क्यों भोगना पड़ता है?*

उत्तर- आत्मीय बहन, युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव की लिखी तीन पुस्तकों में आपको अपने प्रश्न के उत्तर को विस्तार से समझने में मदद मिलेगी।

1- गहना कर्मणो गति: (कर्मफ़ल का सिद्धांत)
2- पुनर्जन्म : एक ध्रुव सत्य
3- मरणोत्तर जीवन

आत्मा कब और कहाँ किस कारण से किस उद्देश्य हेतु किस योनि में जन्म लेगी यह निर्धारण बहुत सारे कर्मफ़ल, ऋणानुबंध, श्राप, आशीर्वाद, मोह इत्यादि कई कारणों पर निर्भर करता है।

जो शशक्त आत्मा होती हैं, या तो उन्हें पूर्वजन्म या रहता है, या उन प्रबल आत्माओं को पूर्व जन्म याद रहता है जिनका असामान्य रूप से हत्या की जाती है व वह कुछ बताना चाहती थी। अन्य समस्त आत्माओं को पूर्वजन्म तब तक ही याद रहता है जब तक वह बोलते नहीं। बोली आते ही वह पूर्वजन्म भूल जाते हैं।

उपरोक्त तीन पुस्तक का मुख्य बिंदु के आधार पर और वर्तमान में सिद्ध हो चुके अनेकों पूर्वजन्म के घटनाक्रम के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि आत्मा केवल एक बार मनुष्य जन्म नहीं लेती, अपितु कई बार मनुष्य जन्म लेती है। साथ ही कर्म फल के अनुसार विभिन्न अन्य योनियों में भी जन्म लेती है।

पुनर्जन्म की सत्य घटनाओं के देश विदेश की न्यूज यूट्यूब पर मिल जाएगी प्रमाण के साथ कि पूर्व जन्म का अमुक व्यक्ति दूसरी जगह जन्मा व उसे पिछला जन्म व रिश्ते याद हैं।

आइये जानते हैं कि मनुष्य जन्म में प्रारब्ध क्यों भोगना पड़ता है:-

*कर्म अर्थात कोई भी क्रिया जिसमें हमारी विचारणा एवं भावना जुड़ी होती है। ऐसे कर्म का फ़ल हमें मिलता है।*

*उदाहरण* -  अंजाने में हाथ लगकर ग्लास गिरना या पानी की बोतल भूल जाना और उसको कोई प्यासा पी ले या चलते हुए पैर के नीचे चींटी इत्यादि का मर जाना। ऐसे कर्म में हमारे विचार व  भावनाएं नहीं लगी अतः इसका कर्मफ़ल ज़ीरो होगा, कर्मफ़ल नहीं होगा।

यदि ग्लास को गुस्से में फेंक के मारना या किसी प्यासे को पानी देना या जानबूझकर चींटी को पकड़कर मारना, ऐसे कर्म में हमने विचारणा व भावना लगाई। अतः इसका कर्मफ़ल मिलेगा।

👉🏼 *जिस प्रकार बैंक में लोन व्यक्ति के नाम होता है। उसके वस्त्र बदलने या घर बदलने से बैंक को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसीतरह कर्मफ़ल का अकाउंट जीवात्मा के नाम होता है। शरीर बदलने से या रूप बदलने से जीवात्मा का अकाउंट नहीं बदलता। जन्म जन्मांतर तक कर्मफ़ल भोगना पड़ता है।*

 👉🏼 कर्म तीन प्रकार के होते हैं, *संचित, क्रियमाण एवं प्रारब्ध*

*संचित कर्मफ़ल* - तरकश में रखे बाण हैं, जो अभी चले नहीं। बैंक में जमा पैसा है, जो अभी उपयोग नहीं लिया गया। इसे विभिन्न साधनाओं द्वारा नष्ट किया जा सकता है।

*क्रियमाण कर्मफ़ल* - धनुष में संधान को तैयार बाण है, बैंक के ATM में खड़े होकर निकाला जा रहा पैसा है। जो वर्तमान में उपयोग होने वाला है। घटना घट रही है। इस पर थोड़ा बहुत नियंत्रण करके इसे नियंत्रित किया जा सकता है।

*प्रारब्ध कर्मफ़ल* - छोड़ा जा चुका तीर, खर्च किया जा चुका पैसा। घटना घट चुकी है, अब उसको रोका नहीं जा सकता। अब उस प्रारब्ध को भोगना होगा या उस प्रारब्ध को सम्हालना होगा। जैसे एक्सीडेंट हो गया तो हॉस्पिटल में इलाज़ करवाना।

*प्रायश्चित साधना के दौरान* - हम कर्मफ़ल को शीघ्रता से काटते हैं।

 *उदाहरण* - हमने घर के लिए लोन लिया था जिसे 24  EMI में चुकाना है,  एक निश्चित EMI जा रही थी। लेकिन  अब हमें दूसरा बड़ा घर खरीदना है या वर्तमान लोन पूरा चुका के बन्द करना है। तो आपने क्या किया बैंक से बोलकर EMI डबल या ट्रिपल करवा दी। जो पैसे दो साल में चुकने थे वो दो महीने या कुछ महीनों में चुकाएंगे तो अर्थ व्यवस्था घर की डिस्टर्ब तो होगी ही। लेकिन आप ढेर सारा इंटरेस्ट का पैसा बचा लेंगे और कुछ नया प्लान कर लेंगे।

इसी तरह जो प्रारब्ध कई जन्मों में कटना था, वो प्रायश्चित साधना से शीघ्रता से कटता है। अतः साधना के दौरान साधक को कष्ट उठाने पड़ते हैं। साधक संचित कर्मफ़ल नष्ट करता है, क्रियमाण कर्मफ़ल की तीव्रता को कम करता है। प्रारब्ध को सम्हालने में जुटता है।

अतः जन्मों के प्रारब्ध काटने में ऊर्जा तो ख़र्च होगी न बहन, अतः साधक को कष्ट उठाने पड़ेंगे।

🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

अंधापन दो प्रकार का होता है, एक स्थूल व दूसरा सूक्ष्म।

*अंधापन दो प्रकार का होता है, एक स्थूल व दूसरा सूक्ष्म।*

स्थूल अंधापन या तो जन्मजात होता है या एक्सीडेंट से होता है।

सूक्ष्म अंधापन साधकों में दो कारणों से होता है- पहला दूसरे साधक से ईर्ष्यावश या अहंकार में ठेस पहुंचने पर। यह वस्तुतः न सम्हाला जाय तो मनोव्याधि में बदल जाता है।

सूक्ष्म अंधापन संसारी लोगों में काम वासना या इच्छाओं की आपूर्ति में बाधा पड़ने से होता है।  पुरूष के अहंकार या स्त्री के भावनाओं को ठेस पहुंचने पर होता है। इसे बदले की भावना या प्रतिशोध का अंधापन भी कह सकते हैं।

स्थूल अंधेपन का इलाज़ ऑपरेशन से सम्भव है।

सूक्ष्म अंधेपन का इलाज़ तब तक असम्भव है जब तक कि बदले की भावना में दूसरे को बर्बाद करने का भाव मन से वह व्यक्ति स्वयं निकाल न दे। वह स्वयं के उत्थान में जुटकर जीवन से अप्रिय घटनाक्रम को भूलने का प्रयास करे। ईर्ष्या को मन से निकालने में और अहंकार को घटाने में जो जुटेगा वही सूक्ष्म अंधेपन से मुक्त होगा।

सूक्ष्म अंधे व्यक्ति की पहचान अत्यंत कठिन है, केवल उससे बात करके ही उसके अंधेपन को जाना जा सकता है। जिस व्यक्ति के लिए उसके भीतर अंधापन होगा उसकी चुगली निंदा करने में वो रस लेगा या स्वयं चुगली निंदा करेगा। उसे अपशब्द बोलेगा।

बदले की भावना में अंधा व्यक्ति कितना ही उच्चवकोटी का साधक ही क्यों न हो, वह अपनी साधना को भी बदले की बलि चढ़ा देता है। इतिहास गवाह है कि लोगों ने तप करके उसका दुरुपयोग बदले की भावना हेतु किया। वह उस पेड़ को काटने से भी नहीं हिचकता जिस पर वह स्वयं बैठा हो।

बदले की भावना में अंधा व्यक्ति बहरा भी हो जाता है। वह उस व्यक्ति की बर्बादी के लिए स्वयं व अपने परिवार को भी बर्बाद करने से पीछे नहीं हटता। बदले की भावना में अंधा व्यक्ति पागलपन व व्यामोह का इस कदर शिकार हो जाता है कि वह अपना अच्छा या बुरा सोचने की परिस्थिति में नहीं होता।

यह शनैः शनैः मनोव्याधि में परिवर्तित हो जाता है। रोगी को लगता है कि वह महान है, उसकी महानता सब के समक्ष अमुक व्यक्ति के कारण नहीं आ पा रहा। उसके दिमाग मे एक अलग दुनियाँ बन जाती है, इसे महानता की विभ्रांति - व्यामोह कहते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष को बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। ईर्ष्या की भावना में इस हद तक पहुंच जाता है कि मुकद्दमे बाजी करके, दूसरों को भड़का के येन-केन-प्रकारेण वह अमुक व्यक्ति को तबाह करने के उद्देश्य से जीता है। उस एक व्यक्ति की बर्बादी में वह इतना अंधा हो जाता है कि स्वयं व प्रियजनों की बलि देने में भी पीछे नहीं हटता। काल्पनिक दुनियाँ रचता है, जिसमें अमुक बहुत बुरा कृत्य करते उसे दिखता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं के जीवन मे हुई दुर्घटना के लिए किसी अमुक को जिम्मेदार मानता है। वह कभी स्वयं को जिम्मेदार नहीं मानता, हमेशा दूसरों पर दोषारोपण करता है।

*उदाहरण -* एक बच्चे ने घर की फ्रिज़ तोड़ दी, मनोचिकित्सक ने पूँछा तुमने ऐसा क्यों किया? तो उसने कहा इस फ्रिज़ को टूटने के लिए मेरी माँ जिम्मेदार है। उसने मुझे गुस्सा दिलाया, और मेरे लिए फ्रिज़ में फ्रूटी नहीं रखी। मेरी इच्छा का ख्याल नहीं रखा, मुझे कहती है कल दुकान खुलेगी तब फ्रूटी लाऊंगी।

तब मनोचिकित्सक ने कई शेशन व दवाओं का सहारा लेकर उसके व्यवहार को सुधारा व बताया, तुम्हारे द्वारा तोड़ी फ्रिज़ के लिए तुम उत्तरदायी हो। प्रत्येक व्यवहार के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है, बाह्य संवेग ट्रिगर करता है, लेकीन भीतरी संवेग को नियंत्रित किया जा सकता है। क्या कभी तुमने माँ को आभार व्यक्त किया जब तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई? यदि नहीं तो तुम क्रोध करने के अधिकारी कैसे हुए जब इच्छा अपूर्ण रही। 15₹ रुपये की पेप्सी के क्रोध की कीमत 15₹ रुपये थी, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति तुमने 15 हज़ार की फ्रिज़ तोड़कर की। क्या 15₹ रुपये के क्रोध का 15,000₹ के नुकसान साथ क्रोध अभिव्यक्ति जायज़ है? वक्त लगता मानसिकता के इलाज में...

ऐसे मनोव्याधि से ग्रसित व्यक्ति का ईलाज सम्भव है, मग़र परिवारजन को विशेष सहयोग मनोचिकित्सक का करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति के दिमाग का एक हिस्सा गड़बड़ कर रहा है, बाकी ठीक है। अतः आसानी से समझ भी नहीं आता कि इसके भीतर क्या चल रहा है।

इस अंधेपन से मुक्ति केवल परमात्मा तभी दे सकता है, जब व्यक्ति इससे  मुक्त होना स्वयं चाहेगा।

बालक की मनोव्याधि को उसके माता पिता अथक प्रयत्न व धैर्य से ठीक कर सकते हैं। बच्चे के भावनात्मक विकास पर नजर रखें।

बदले की भावना के महाभारत में जो बर्बाद करने चलता है वह पहले स्वयं बर्बाद होता है और अपने से जुड़े अपनो को बर्बाद करता है। तबाह व बर्बाद जीवन ही जीता है, कभी भी सुकून नहीं मिलता।

*एक सत्य घटना* - तिब्बत में एक बच्चे के चाचा ने उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति हड़प ली, मां व बहन को झूठे आरोप में गांव से निकलवा दिया। बदले की भावना में उस बच्चे ने साधना की व घोर तांत्रिक बना। जब चाचा के घर उसकी छोटी पुत्री का विवाह आयोजन था,पूरा गांव एकत्रित था तब उसने ओलों की तांत्रिक बारिश से सबको मृत्यु के घाट उतार दिया। उसने सोचा था कि बदला पूरा होते ही वह आनन्द से भर जाएगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ, उल्टा उसके हृदय में दर्द व क्षोभ और बढ़ गया। व अशांति व उद्विग्नता से मुक्ति हेतु संतो के शरण मे जाने लगा। कोई सन्त उसे शिष्य बनाने को तैयार न हुआ। तब उसने कई वर्षों तक पश्चाताप किया, तब अंततः उसके गुरु आये और बोले तूने बदले की भावना में जो पाप किया है वो तू अगले कई जन्मों तक भोगेगा। कर्मफ़ल में तुझे पुनः वही पीड़ा रिश्तों से मिलेगी। जितने लोगो को तूने मारा है प्लस उतने लोगों को की मृत्यु पर रोने वाले उससे जुड़े लोग इतने जन्मों तक तू कष्ट भोगेगा। प्रायश्चित व सत्कर्म करते रहो, कुछ इस जन्म में और कुछ अगले जन्मों तक इसको भुगतने के मानसिक रूप से स्वयं को तैयार कर लो। तभी तुम्हें निर्वाण मिलेगा, जब जितनो को मारा है उससे हज़ार गुना लोगो का जीवन तुम बचा सकोगे। आग एक माचिस की तीली से झोपड़ी को लगाई जा सकती है, मगर बुझाने के लिए कई बाल्टी पानी चाहिए। एक बद्दुआ पूरा जीवन तबाह कर देती है, जीवन को सम्हालने के लिए कई सारी दुआएं चाहिए। अतः जन सेवा करो और दुआएं अर्जित करो।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Wednesday, 22 July 2020

प्रश्न - *दीदी कोई व्यक्ति मुझे समाज मे झूठा बदनाम करना चाहता है मेरी हर जगह बुराई करता है मेरा चरित्र खराब करने पर तुला है मेरा ट्रान्सपर 50 km दूर करवा दिया जिससे मुझे डिप्रेसन रहता है ।क्या करूँ?*

प्रश्न - *दीदी कोई व्यक्ति मुझे समाज मे झूठा बदनाम करना चाहता है मेरी हर जगह बुराई करता है मेरा चरित्र खराब करने पर तुला है मेरा ट्रान्सपर 50 km दूर करवा दिया  जिससे मुझे डिप्रेसन रहता है ।क्या करूँ?*

उत्तर - आत्मीय भाई, इसका अर्थ यह है कि तुम इतने योग्य हो कि तुम्हें बल व बुद्धि, योग्यता व पात्रता के टक्कर से तुम्हारे साथी हरा नहीं पाए। इसीलिए उन्हें षड्यंत्र करने को मजबूर होना पड़ा.. तुम्हे तो खुश होना चाहिए कि लोग तुम्हें हरा नहीं पा रहे, इसलिए तुम्हे बदनाम करने का षड्यंत्र कर रहे हैं।

जिसका नाम होता है, लोग षड्यंत्र करके उसे ही बदनाम करते हैं। जिसका कोई नाम ही नहीं, उसे बदनाम करके कोई अपना समय व्यर्थ क्यों करेगा?

भगवान कृष्ण को जब लोगों ने बदनाम करने की कोशिश की और स्मयन्तक मणि की चोरी का आरोप लगाया। तब तुम तो भगवान भी नहीं, फिर तुम्हे कैसे बख़्श देंगे?

50 किलोमीटर दूर ट्रांसफर करके उन्होंने तुम्हे चुनौती दी है, वह चाहते हैं इससे तुम डिप्रेशन में आ जाओगे, उनकी मनोकामना पूरी हो जाएगी। यदि तुम इस ट्रांसफर के बाद भी सैनिक की तरह ख़ुश होकर कार्य किये तो वह जल भूनकर परेशान हो जाएंगे। तुम सोच लो, तय कर लो, डिप्रेशन में रहकर षड्यन्त्रकारी को खुश करना है, या स्वयं आनन्दित रहकर उन्हें हराना है।

सैनिक की कहीं बर्फीली चोटी में  पोस्टिंग होती है तो कहीं गर्मी के रेतीले जगहों में पोस्टिंग होती है। प्रत्येक क्षण मृत्यु की गोद मे रहता है, कब दुश्मन की एक गोली उसे मृत्यु दे दे इसका कोई तय वक्त नहीं। यदि प्रत्येक सैनिक यह सोचे कि उसे मनपसंद जगह पोस्टिंग मिले, मन पसन्द वातावरण में ही जॉब करे, तो देश की सुरक्षा का क्या होगा? सैनिक ट्रांसफर को लेके डिप्रेशन में रहा तो क्या होगा?

जीवन योद्धा वह है जो अपनी कमजोरी को ताकत बना ले, विपरीत परिस्थितियों में सुखी होने की वजह तलाशे। जिस जगह ट्रांसफर हुआ है उस जगह का कल्याण कर दे। बादल बन खुशहाली बरसा दे। जिस कुर्सी में बैठकर तुम जॉब करते हो, वह कुर्सी धन्य हो जाये कि इतना देवता समान व्यक्ति मुझपर बैठकर कार्य कर रहा है।

तुम स्वयं की सुख-सुविधा सोचोगे तो डिप्रेशन में रहोगे, यदि जनता का कल्याण सोचोगे तो आनन्द में रहोगे।

प्रत्येक डॉक्टर बड़ा अस्पताल ढूढेगा तो रिमोट गांवो में इलाज कौन करेगा? प्रत्येक अध्यापक यदि शहर में नौकरी ढूढेगा तो गाँवो में शिक्षा कौन देगा? प्रत्येक कर्मचारी शहर में जॉब करना चाहेगा तो सरकारी योजनाओं से ग़ांव का कल्याण कौन करेगा?

स्वयं से पूंछो? क्या तुम सेवार्थ जॉब करने नहीं आये हो? यदि हां तो क्या फर्क पड़ता है वह शहर हो या ग़ांव? घर के पास हो या शहर से 50 किलोमीटर दूर ग़ांव में हो?

पूरे देश का प्रत्येक कोना तुम्हारा कर्मक्षेत्र है, भारत से प्रेम करो। तुम सूर्य हो तो बादल कब तक तुम्हे ढक सकेंगे? तुम यश व नाम रखते हो तो बदनामी के बादल कितने क्षणों तक तुम्हे ढक सकेंगे?

किसी भी लकीर को छोटा करना है, तो बड़ी लकीर बन जाओ। तुम अपनी योग्यता व पात्रता और बढ़ाओ। कम्पटीशन के एग्जाम दो, और बड़ी पोस्ट हासिल करो। इतनी ऊंचाई हासिल करो कि वह बदनाम करने वाले तुम्हे देखने के लिए ऊपर मुंह करना पड़े।

चरित्र प्रमाण पत्र उन षड्यंत्रकर्ता को तुम्हे देने की जरूरत नहीं है। बस अपने कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की जरूरत है। अपनी बुद्धिकुशलता बढाने की जरूरत है। हाथी अपने पीछे भौंकने वाले कुत्तों की परवाह नहीं करता, और न ही उसके समक्ष गणेश समझ प्रणाम करने वालो की परवाह करता है। वह तो बस कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता है।

नित्य 108 दिन तक श्रीमद्भगवद्गीता का एक अध्याय का पाठ करो, स्वयं के लिए सवा लाख गायत्री जप करो। स्वयं को अर्जुन मान और श्रीकृष्ण गुरु का लेकर साथ कमर कस के जीवन युद्ध को लड़ो। हार व जीत की परवाह मत करो। बस कर्म करो, आनन्द बांटो।

🙏🏻श्वेता, DIYA

समस्या को मत कहो - why me समस्या को कहो - try me

समस्या को मत कहो - why me
समस्या को कहो - try me

यह मत कहो - समस्या बड़ी है,
यह कहो - इस समस्या से बड़ा मेरा ईश्वर विश्वास है, और भगवान की दी हुई मेरी बुद्धि है। मैं मेरी बुद्धिकुशलता को निरन्तर बढ़ाऊँगा। समस्या से बड़ी मेरी बुद्धिकुशलता बनाऊंगा।

मैं मनुष्य हूँ, ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति हूँ। वीडियो गेम की तरह ही जीवन की समस्याओं का गेम है। एक चरण पार करो तो दूसरे चरण की कठिनाई मिलती है।

जैसे स्वस्थ मन से बच्चा खेल खेलता है, वैसे ही मैं यह जीवन को खिलाड़ी के नजरिये से खेलूंगा। प्रत्येक समस्या का बहादुरी से सामना कर उसका समाधान करूंगा।

इस समस्या को मुझसे बेहतर कोई हल नहीं कर सकता। मैं इसे हल कर सकता हूँ। ईश्वर मेरे साथ मेरे पास है। मैं अर्जुन हूँ, अपना युद्ध अवश्य लड़ूंगा।

चाहे कुछ भी हो जाये, हार नहीं मानूंगा,
काल के कपाल पर, अपनी विजय गाथा अवश्य लिखूंगा।

मैं विजेता था, विजेता हूँ, विजेता रहूंगा।
कभी भी मन से हार नहीं मानूंगा,
हार जीत की परवाह किये बिना,
प्रत्येक जीवन अवश्य युद्ध लड़ूंगा।

🙏🏻श्वेता, DIYA

पूर्वजन्म का कोई पुण्यफ़ल होता है, तब सद्गुरु के दर्शन मिलते हैं, सन्मार्ग मिलता है, तब गीता का ज्ञान जीवन में घटता है।

*पूर्वजन्म का कोई पुण्यफ़ल होता है, तब सद्गुरु के दर्शन मिलते हैं, सन्मार्ग मिलता है, तब गीता का ज्ञान जीवन में घटता है।*

एक कुख्यात डाकू अंगुलिमाल की तरह हत्यारा था। उसके गड़ासे से न जाने कितनों को मौत के घाट उतारा था।

एक भक्तिमय ज्ञानमय सन्त उस ओर से निकले, डाकू ने रोका- कहा जो कुछ तुम्हारे पास है मुझे दे दो, मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ।

*सन्त मुस्कुराए व बोले* - मैं ठहरा हुआ हूँ, लेकिन क्या मुझे स्पर्श करने के लिए तुम मेरे समक्ष ठहरने को तैयार हो? मैं तो प्रत्येक क्षण मौत के लिए तैयार हूँ, लेकिन यह बताओ क्या तुम अपनी मौत के लिए तैयार हो? मेरे पास भक्ति व आत्मज्ञान सम्पदा है, अकूत आनन्द सम्पदा है, मैं तो देने के लिए तैयार हूँ, मग़र क्या तुम इसे लेने को तैयार हो?

डाकू को ऐसे उत्तर की उम्मीद न थी, जिसे भयभीत चेहरे देखने की आदत थी। निर्भय शांत भयमुक्त ज्योतिर्मय सन्त को देखकर वह स्वयं पहली बार जीवन में भयभीत हो गया। स्वयं भी मरेगा यह तो उसने स्वप्न में भी न सोचा था, उसे कुछ समझ न आया।

*🔥तपोमय व स्थितप्रज्ञ सन्त का दर्शन मोमबत्ती की रौशनी की तरह कार्य करता जिसमें जो मोह व लोभ के अंधकार को हटा सत्य दिखाने की क्षमता होती है। 💫तप से सिद्ध वाणी का प्रभाव सीधे हृदय तक पहुंचता है💫।* यही प्रभाव डाकू में परिलक्षित हुआ व गड़ासा फेंक सन्त के चरणों मे गिर गया। बोला प्रभु, आजतक मुझतक कोई ज्ञान की रौशनी पहुंची नहीं। हज़ारो की हत्या करने वाले मुझ पापी का क्या उद्धार सम्भव है? मैं आपकी भक्ति,ज्ञान व आनन्द सम्पदा लेना चाहता हूँ। मैं भी ठहरना चाहता हूँ। मैं भी आपकी तरह निर्भय व शांत बनना चाहता हूँ।

सन्त बोले, उठो पुत्र! इतनी हत्याओं के पाप से मुक्ति तुम्हें प्रायश्चित व जनसेवा करने से मिलेगी, जितनों को रुलाया है अब उन्हें मुस्कुराने की वजह दो। जितनों को मौत के घाट उतारा है उससे अधिक लोगो का जीवन बचाओ। जाओ चार धाम तीर्थों  का दर्शन करो, रास्ते मे जनकल्याण करो। लौट कर आओ, तब मैं तुम्हे इसी वृक्ष के नीचे यहीं मिलूँगा। आज से तुम बाहुबली डाकू नहीं, अपितु आज से तुम बाहुबली अहिंसक हो।

यह सूखी लकड़ी ले जाओ, जैसे जैसे तुम्हारा हृदय व कर्म निर्मल बनेंगे यह हरी होती जाएगी। जब इसमें हरी पत्तियां निकल आये तो जानना तुम गुरु दीक्षा पाने योग्य हो गए हो।

बाहुबली अहिंसक तीर्थाटन को निकल पड़ा, एक कमण्डल, माला व दुशाला साथ लिया व चल पड़ा।

एक ग़ांव पहुँचा जो नदी से बहुत दूर था, स्त्रियों को बहुत कठिनाई से जल ग़ांव तक लाना पड़ता था। बाहुबली व डाकू ने लोगों की जल समस्या हल करने के लिए नदी से नहर गाँव तक खोदने का निश्चय किया। ग़ांव के युवाओं को तैयार कर 20 दिनों में कार्य कर डाला, आसपास पेड़ लगवा दी। ग़ांव वालो ने खूब आशीर्वाद दिया। 21 वें दिन वह आगे तीर्थाटन हेतु निकल पड़ा।

आगे दूसरे ग़ांव में जंगली पशुओं का आतंक था, आये दिन जंगली जानवर बच्चे उठा ले जाते थे। बाहुबली अहिंसक ने गाँव के युवाओं को गाँव के आसपास बाड़े बनाने के लिए तैयार किया। कटीली झाड़ियों,  बांस व मिट्टी की मदद से गाँव के चारो ओर बाड़ा बना दिया। युवाओ को लट्ठ चलाने का प्रशिक्षण दिया, युवाओ का ग्रामीण सुरक्षा दल बना दिया, चार समूह बनवाया। भाले बनवाये और थमाते हुए बोला, प्रत्येक सप्ताह एक सुरक्षा दल ग़ांव की पहरेदारी करेगा। ग़ांव वाले उसे बदले में अनाज देंगे।।  एक महीने से कोई बच्चा जंगली जानवरों से आहत न हुआ। सब खुश हुए बहुत आशीर्वाद दिया।

तीर्थ यात्रा में आगे बढ़ा, मन ही मन सोच रहा था अब तक एक भी तीर्थ के दर्शन नहीं हुए और दो महीने के करीब समय बीत गया। इन्हीं विचारों में खोया था कि उसे कुछ आवाज़ सुनाई दिया। चार डाकू अपने आतंक को साबित करने के लिए एक गाँव को जलाने हेतु रात होने का इंतज़ार कर रहे थे, क्योंकि उस गाँव ने डाकुओं को  धन व कर देने से मना कर दिया था, व राजा से शिकायत कर दी थी, फौज कल तक आने वाली थी। अतः आतंकवाद व ग़ांव के विनाश की योजना उन्हें आज ही पूरी करनी थी।

बाहुबली अहिंसक उन अन्य डाकुओं के पास गया व समझाने की कोशिश की तो उल्टे उन डाकूओ ने इस पर हमला बोल दिया। बाहुबली डाकू ने कहा मेरे जीवित रहते तुम इस ग़ांव के असंख्य लोगों को, पशुओं को यूं जिंदा नहीं जला सकते। बाहुबली डाकू क्योंकि बहुत बलिष्ठ व युद्ध कला प्रवीण था, उन्ही के हथियारों से उसने उन चारों का गला काट दिया। शोर सुनकर गाँव वाले आ गए, उन्होंने डाकूओ को पहचान लिया व ग़ांव को जलने से बचाने के लिए बाहुबली युवक को धन्यवाद दिया।

मृतक डाकूओ की लाश व अपने हाथ मे पुनः रक्त देखकर बाहुबली अहिंसक व्यथित हो गया। उसने मन ही मन सोचा लगता है, इस जन्म में मेरा उद्धार असम्भव है, पिछले कत्ल के पाप धुले नहीं। अभी तक एक भी धाम के दर्शन हुए नहीं, समय बीत रहा है, और आज यह चार डाकू मेरे हाथों मारे गए। पुनः हत्या मैंने की। बड़े पश्चाताप व ग्लानि से रोते रोते वह कब सो गया उसे पता ही न चला। सुबह उसे अपने झोले से कुछ खुशबू आते हुए प्रतीत हुई। उसने झोला खोला तो उस सुखी लकड़ी में न सिर्फ हरे पत्ते थे, अपितु सुंदर महकते पुष्प भी थे।

हरीभरी डाली ने गुरु से पुनः मिलन का सन्देश जैसे उसे दे दिया हो, वह बिना कुछ खाये पिये बेसुध डाली लेकर सदगुरु से मिलने लौटा। कहाँ कदम पड़े व रास्ते में कितने गाँव पड़े उसे कुछ होश न रहा, कितने दिन व रात गुजरे उसे होश नहीं। वह पुनः उसी स्थान में पहुंचा जहां गुरु ने मिलने का वादा किया था। गुरु उसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे, वह उनके चरणों मे गिर पड़ा व उसके अश्रुओं से गुरु के चरण भीग गए।

गुरु ने कहा, वत्स उठो! तुम्हारी गुरु दीक्षा का आज शुभ दिन है। गुरु की वाणी सुनकर मानो उसे होश आया हो। अरे उसे याद आया गुरु ने चार धाम की यात्रा कही थी, वह तो उसने किया ही नहीं। वापस चला आया।

उसने गुरुदेव से क्षमा मांगते हुए कहा, गुरुवर मैंने चार धाम यात्रा तो क्या एक धाम की यात्रा भी न कर सका। उल्टे मैंने चार डाकूओ की हत्या कर दी, पुनः पाप किया। लेक़िन सूखी डाली को सुबह जब हरीभरी व पुष्प युक्त देखा तो आपके दर्शन का सन्देश समझ  इसे लिए यहां चला आया। मुझे क्षमा करें प्रभु! मैंने आपको वचन दिया था कि पुनः पाप व हत्या नहीं करूंगा। उसे मैंने तोड़ दिया।

गुरु मुस्कुराए और बोले, तुम तीर्थयात्रा करके ही आये हो पुत्र। तुमने जितनी हत्याएं की थी उससे अधिक लोगों का जीवन बचाया।
💫
*श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने कर्मयोग की परिभाषा देते हुए कहा है कि कर्म का कर्मफ़ल उस कर्म के पीछे के उद्देश्य व भावना पर निर्भर करती है।*💫

*पहले तुम्हारे द्वारा की गई हत्या का उद्देश्य व भावना दूषित थी, तुम आतंक फैलाकर स्वयं को ऐश्वर्य शाली बनाना चाहते थे। इसलिए इन कर्मो से तुम्हें पाप फल मिला।*

*लेकिन कल रात जो हत्या तुमने की उसके पीछे का उद्देश्य व भावना अत्यंत निर्मल व उत्तम थी। तुम्हारा उद्देश्य ग्रामीण लोगों, पशु व पक्षियों को जिंदा जलने से बचाना था। अतः यह डाकुओं की हत्या भी प्रभु का पूजन बन गयी। धर्म स्थापना व युगपीडा निवारण की वजह बन गयी। इसलिए इस कर्म का पुण्यफ़ल तुम्हे मिला।*

*पहले तुम्हारे प्रत्येक कर्म व श्रम स्वार्थकेन्द्रित व स्वार्थपूर्ति हेतू था। लेकिन पिछले दो महीने से तुम्हारा प्रत्येक कर्म व श्रम लोककल्याण के लिए हुआ। वह नदी से जल की नहर ग्राम तक लाना व लोगों का जलसंकट समाप्त करना कावंड़ लाकर शिवलिंग पर रूद्राभिषेक करने जैसा ही पुण्यफ़ल दायी था पुत्र।*

*लोगों को उनकी सुरक्षा स्वयं करने का प्रशिक्षण देना व ग़ांव के लिए सुरक्षा बाड़ा बनवाना एक महायज्ञ ही था पुत्र।*

यज्ञमय परोपकारी जीवन जीने के कारण व नित्य अपने गुरु के अनुसाशन में जीने व ध्यान में रमने के कारण समस्त तीर्थ तुम्हारे हृदय में स्वयं प्रकट हो गए।

*तुम्हारे निर्मल मन से किये पश्चाताप ने माता गंगा को तुम्हारे हृदय में प्रकट कर दिया पुत्र, तुम्हें गंगा स्नान का पुण्यफ़ल मिल गया। जल संकट दूर करने पर स्वयं शिव और वृक्षारोपण करने से स्वयं प्रकृति माँ पार्वती तुम्हारे हृदय में विराजमान हो गए। डाकूओ की हत्या कर ग्रामवासियों का जीवन बचाने से भगवान विष्णु स्वयं तुम्हारे हृदय में प्रकट हो गए।*

अब आओ तुम्हें गुरुदीक्षा देता हूँ, तुम अपने शुभकर्मों से यूँ ही जनसेवा करते रहना। ईश्वर की कृपा व मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Tuesday, 21 July 2020

जीवन का खेल समझो, इसे हार - जीत की परवाह किये बिना खेलते जाओ

*जीवन का खेल समझो, इसे हार - जीत की परवाह किये बिना खेलते जाओ*

किसी के अपमानित करने पर,
यूँ टूटकर मत बिखरो,
उदास हताश मत हो,
वह भगवान नहीं, वह जौहरी नहीं,
जो तुम्हारा ठीक से मूल्यांकन कर सके।

किसी के सम्मान करने पर,
यूँ अहंकार में मत फूल जाओ,
अत्यंत उत्साहित मत हो,
वह भगवान नहीं, वह जौहरी नहीं,
जो तुम्हारा ठीक से मूल्यांकन कर सके।

पत्नी यदि मधुरभाषिणी व सुख की देवी है,
सौभाग्य को सराहो,
धरती पर स्वर्ग भोगने का अवसर मिला है।

पति यदि मधुर बोलने वाला देवता है,
सौभाग्य को सराहो,
धरती पर स्वर्ग भोगने का अवसर मिला है।

पत्नी यदि कटुभाषिणी व दुःखदायी है,
सौभाग्य को सराहो,
धरती पर तप करने का सुनहरा अवसर मिला है,
घर ही जंगलों का अनुभव देने वाला है,
हिंसक प्रवृत्तियों के बीच तपकर मन निखरने वाला है।

पति यदि गाली-गलौज देने वाला दुःखदायी है,
सौभाग्य को सराहो,
धरती पर तप करने का सुनहरा अवसर मिला है,
घर ही जंगलों का अनुभव देने वाला है,
हिंसक प्रवृत्तियों के बीच तपकर मन निखरने वाला है।

ऑफिस में बॉस व घर में सास,
यदि अच्छे स्वभाव के मिले,
तो परम सौभाग्य है,
ज़िंदगी आसान है।

ऑफिस में बॉस व घर में सास,
यदि कठोर स्वभाव के मिले,
तो भी परम सौभाग्य है,
ज़िंदगी हर दिन नई चुनौतियों से भरा खेल है,
एक चरण पार करने पर,
दूसरे चरण की कठिनाई मिलेगी,
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा,
हमेशा दिमाग़ एक्टिव रहेगा,
स्वस्थ मन से खेलते खेलते इस खेल को,
तुम्हारे अंदर कुशलता आएगी,
इस ज़िंदगी के खेल को खेलने में,
फिर तुम्हें आनन्द आयेगा।

मान अपमान से परे जाओ,
ज़िंदगी के खेल को समझ जाओ,
जन्म व मृत्यु के बीच का जीवन,
बुद्धिकुशलता से जीते जाओ।

यह कलियुग है जनाब,
यहाँ वही रिश्ता निभता है,
जहां लोगों का स्वार्थ सधता है।
अतः अत्यंत भावनात्मक जुड़ाव,
किसी के साथ भी मत करना,
केवल अपनी भावनाओं को,
ईश्वर को समर्पित करते चलना।

इस कलियुग में आनंद से जीने का एक फार्मूला है,
स्वयं के अस्तित्व को स्वीकारो,
अधिकारों की उपेक्षा करो,
बस कर्तव्यों को निभाओ,
किसी से कोई अपेक्षा मत करो,
सबको प्रशन्न रखने की हठ मत करो,
मान अपमान से परे जाकर,
जिंदगी का खेल समझो,
इसे स्वस्थ मन से खेलते जाओ,
फल की परवाह करे बिना,
बस कर्म करते जाओ,
परिस्थितियों को बदलने में मत उलझो,
बस मनःस्थिति को व्यवस्थित करते जाओ।

🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - *भोजन को अभिमंत्रित करने की विधि बताएं*

प्रश्न - *भोजन को अभिमंत्रित करने की विधि बताएं*

उत्तर - जैसे किसी भी वस्तु को खाने या पकाने से पहले स्थूल रूप में धोया जाता है। वैसे ही हमारे शास्त्र व ऋषि परम्परा कहती हैं कि भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से पहले उसका सूक्ष्म संशोधन भी अनिवार्य है।

मनुष्य की तरह ही , अन्न का भी स्थूल व सूक्ष्म भाग होता है। स्थूल भाग के पाचन से शरीर बनता है, सूक्ष्म भाग के पाचन से मन बनता है।

जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन।

अभिमंत्रित करना - अर्थात मंत्र द्वारा भोजन के सूक्ष्म का संशोधन, शुद्ध व पवित्र करना। अन्न के भावों का शोधन।

*अतिउत्तम प्रथम प्रक्रिया है* - बलिवैश्व यज्ञ, घर में जो भी भोजन बने, उसको थोड़ा सा गायत्रीमंत्र की पँच बलिवैश्व आहुतियों से गैस पर ही सूक्ष्म यज्ञ के माध्यम से बलिवैश्व यज्ञ द्वारा यज्ञाग्नि को अर्पित कर दें। इससे भोजन यज्ञ प्रसाद बन जाता है, अन्न संशोधित हो जाता है।

*उत्तम द्वितीय प्रक्रिया है* - भोजन जब समक्ष थाली में आ जाये, तो थोड़ा जल हाथ में लेकर तीन बार गायत्री मंत्र मन ही मन बोलकर उसपर छिड़क दें या केवल थाली का स्पर्श कर लें, इससे भोज्य पदार्थ अभिमंत्रित हो जाएगा, उसका सूक्ष्म संशोधन हो जाएगा, साथ ही अन्न की प्राण ऊर्जा को सक्रिय कर दें( Activate the positive vibration using mantra.)

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अन्न ग्रहण करने से पहले विचार मन मे करना है, श्रेष्ठ जीवन हेतु से इस शरीर का रक्षण पोषण करना है।

हे परमेश्वर एक प्रार्थना नित्य तुम्हारे चरणो में लग जाये तन मन धन मेरा
विश्व धर्म की सेवा में ॥

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:: ॥

भोजन कभी भी टीवी इत्यादि देखते नहीं करना चाहिए। क्योंकि टीवी में अशुभ व व्यर्थ के शब्द भोजन की ऊर्जा को नकारात्मक बना देते हैं।

हमेशा भोजन शांत चित्त व उत्तम मनोदशा में करें। यदि छोटे बच्चे को भोजन करवा रहे हैं तो भी अपनी मनःस्थिति उत्तम रखें। भोजन के वक्त शरीर के साथ साथ मन भी उपलब्ध होना चाहिए। तभी पाचन उत्तम व शरीर को ऊर्जा मिलेगी।

भोजन को अभिमंत्रित अन्य शुभ मंत्रो से भी किया जा सकता है जैसे गीता के श्लोक, महामृत्युंजय मंत्र, दुर्गा मन्त्र, गणेश मन्त्र इत्यादि। किसी भी शुभ मन्त्र से अभिमंत्रित हो सकता है। हम गायत्री मंत्र का प्रयोग करते हैं, अतः हमने उदाहरण में गायत्री मंत्र लिया है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

पँछी आकाश में उड़ता है, घोसला धरती पर बनाता है,

पँछी आकाश में उड़ता है,
घोसला धरती पर बनाता है,
उड़ने के लिए आकाश है,
आराम करने के लिए घोसला है।

यदि वह उड़ने की चाह में,
घोसला न बनाएगा,
जब टूटकर थककर वापस आएगा,
तो आराम की जगह वह न पायेगा।

तुम भी जितने कदम बाह्य जगत में चलते हो,
उसका शतांश अंतर्जगत में भी आओ,
जितना समय बाह्य वैभव जुटाने में खर्चते हो,
उसका शतांश अंतर्जगत के वैभव में भी खर्चो।

तुम्हारे अंतर्मन के घोंसले को,
तुम बनाना न भूलना,
जब थककर आराम करना चाहो,
तब अंतर्मन में प्रवेश कर जाना।

बाह्य व भीतर के संतुलन के महत्व को,
तुम कभी न भूलना,
बाह्य जीवन की उलझन को,
अंतर्दृष्टि से सुलझाना।

अंतर्दृष्टि के अभाव में,
जीवन की ठोकरों से बच न सकोगे।
अंतर्मन यदि कंगाल हुआ तो,
सांसारिक वैभव भी भोग न सकोगे।

नित्य अंतर्मन का घोषला,
गहन ध्यान में जाकर बनाते रहना,
स्वयं के अंतर्जगत के वैभव को,
नित्य व्यवस्थित करते रहना।

ध्यान में इतना अभ्यस्त हो जाना कि,
जब चाहे तब,
अंतर्मन में प्रवेश कर सको,
बाह्य जगत से नेत्र बन्द कर,
अंतर्जगत में आराम कर सको।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Monday, 20 July 2020

श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 5)

*श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 5)*

बच्चे की उम्र - 0 से किशोरावस्था

*अथातो ब्रह्म जिज्ञासा!* *जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से उसे पाने को जुटता है। अध्यात्म की ओर बढ़ता है।*

*जो प्रश्न पूँछता है - वह एक बार मूर्ख बन सकता है, लेकिन जो प्रश्न नहीं पूँछता वह हमेशा मूर्ख रहता है। ज्ञान से वंचित रहता है। विज्ञान की खोज़ का आधार प्रश्न - जिज्ञासा ही तो है।*

समस्त उपनिषद व पुराणों का आधार व जन्म किसी न किसी की जिज्ञासा व उसके समाधान की प्रक्रिया में हुआ।

समस्त वैज्ञानिक खोज़ का आधार व जन्म किसी न किसी की जिज्ञासा व उसके समाधान की खोज में हुआ है।

अपने बच्चे के अंदर "ब्रह्म" व "आत्मा" को जानने की जिज्ञासा उतपन्न कर दो।तुम उसके भीतर यह प्रश्न उठा दो। वह अध्यात्म की ओर चल पड़ेगा

प्रवचन बच्चे को देंगे तो बच्चे आपसे भागेंगे, उन्हें प्रश्न देंगे तो वह उत्तर खोजेंगे, फिर न मिलने पर वह आकर आपसे पूँछेंगे। उनमें जिज्ञासा की भूख पैदा करो।

बच्चे को अंधश्रद्धा मत सिखाना, कहना मैं मेरा अनुभव कह रहा हूँ, पढा हुआ व सीखा हुआ बता रहा हूँ। तुम इस पर विचार करके अपना मत बताओ, शास्त्रार्थ करो। इस पर चर्चा - परिचर्चा करो।

प्रश्न पूंछने वाला बच्चा उत्तम है, आपको उत्तर ढूंढकर उसे बताना चाहिए। यदि उत्तर न आये तो बोलो चलो इसका उत्तर मिलकर ढूढते है। कभी कभी बच्चे ऐसे प्रश्न पूंछते हैं जिनका उत्तर हमारे पास नहीँ होता, तब हम उन्हें डांटकर भगा देते हैं। हम गुस्से का प्रदर्शन करते हैं। तब हम एक बच्चे के जिज्ञासु होने के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं।

बच्चे को समझाएं कि मन में उत्तपन्न समस्त चीज़े विचारों से ही बनती है।
जिन मन के मकड़जाल को तुम्हारे नकारात्मक विचार ही बनाते हैं, इन मकड़जाल को मन के सकारात्मक विचारों की कुल्हाड़ी से तुम नष्ट कर सकते हो।

तुम दूसरों को कुछ साबित करने के लिए मत पढ़ो न मेहनत करो। केवल स्वयं को ईश्वर की बनाई सर्वश्रेष्ठ कृति साबित करने के लिए पढ़ो व मेहनत करो।

तुम मनुष्य हो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति हो। मछली न होते हुए भी तुम मानवीय बुद्धि से बनाई पनडुब्बी से जल के भीतर रह सकते हो। पक्षी न होते हुए भी तुम मानवीय बुद्धि से बनाई हवाई जहाज से उड़ सकते हो। हाथी न होते हुए भी हज़ारो टन वजन मानवीय बुद्धि से बनाई क्रेन मशीन से उठा सकते हो। तुम सर्वश्रेष्ठ हो क्योंकि तुम्हारे पास बुद्धि है, जो जानवरो के पास नहीं है।

*बेटे, लेक़िन यह बुद्धि बीज रूप में सबको मिलती है, वृक्ष रूप में नहीं। इसे रोज नई नई चीज़े पढ़कर खाद पानी देना पडता है। इसके विकास में तुम्हे अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। जब बुद्धि का पेड़ तुम्हारे प्रयत्न से बड़ा हो जाता है, फल लगने लगते हैं।तब जीवन धन्य बनता है। अतः यदि तुम बुद्धि के वृक्ष को बड़ा फलदार बनाना चाहते हो तो आज मेहनत करो। यह तुम्हारा प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष बनेगा, तुम्हारी मनोकामना पूरी करेगा।*

तुम्हारी शक्ति तीन स्तर पर है - प्रथम शरीर , द्वितीय - बुद्धि व तृतीय- भावनाएं

यदि तीन स्तर पर तुम स्वयं को साध लोगे तो तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य को तुम एन्जॉय कर सकोगे।

जिस कुर्सी व पद को तुम चाहते हो उस पद व कुर्सी की जो योग्यता चाहिए उससे डबल योग्य बनो। जिससे सभी अन्य दावेदारों से तुम ज़्यादा योग्य पाओ।

वही तारा तुम नोटिस करते हो जो ज्यादा चमकता है। वही व्यक्ति जॉब हासिल करता है या व्यवसाय में सफल होता है जो अन्य से ज्यादा योग्य होता है।

रौशनी के लिए बल्ब का होना जितना अनिवार्य है उससे कहीं अधिक अनिवार्य बिजली का होना है। दोनों की मौजूदगी होने पर भी स्विच बटन ऑन/ऑफ प्रभावित करता है। तुम्हारा मन वह स्विच है।

तुम्हारा शरीर व बुद्धि मोबाइल की तरह है, यह आत्मा सिम की तरह है। ब्रह्माण्ड से अनन्त प्राण ऊर्जा का प्रवाह बिजली की तरह है। मग़र शरीर व प्राण को चार्ज करने का चार्जर तुम्हारा मन है। यदि प्राणवान व ऊर्जावान स्वयं को बनना चाहते हो तो ध्यान करके मन के चार्जर को कम से कम 20 मिनट उस ब्रह्माण्ड चेतना से जुड़ने दो, स्वयं के प्राण को नित्य चार्ज करो। नेत्र बन्द, कमर सीधी, दोनो हाथ गोदी में रखकर आती जाती श्वांस को ध्यान से देखो और भावना करो कि ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तुम्हारी ओर आकृष्ट हो रही है। तुम्हारा मन का चार्जर उस ब्रह्माण्ड ऊर्जा से तुम्हारे अस्तित्ब को चार्ज कर रहा है। यह ऊर्जा तुम्हे हमेशा उत्साह उमंग व शांति सुकून से ओतप्रोत कर देगी। Where attention goes, energy flows. तुम्हारा ध्यान ज्यों ही आती जाती श्वांस पर जाएगा ऊर्जा को यही श्वांस चुम्बक(magnet) की तरह खींचने में सक्षम हो जाएगा।

बेटे, जैसे अंधेरे में कुछ गुम हो जाये तो उसे ढूढने का पुरुषार्थ तो हमें ही करना पड़ता है।  अध्यात्म की रौशनी तो मोमबत्ती की तरह केवल सहायता करती है, वह मोमबत्ती समान नहीं ढूढती।

अध्यात्म की रौशनी मोमबत्ती की तरह  अंतर्जगत को रौशन कर देगी, लेकिन समाधान तो तुम्हें स्वयं पुरुषार्थ से ढ़ूढ़ना पड़ेगा। अध्यात्म मोमबत्ती की तरह पुरुषार्थ का सहायक(Helper) है, अध्यात्म कोई पुरुषार्थ का स्थानापन्न( Replacement ) नहीं है।

तन, मन व भावनाओं के संतुलन में अध्यात्म सहायक है।

जब केवल पैर चलते हैं तो उसे भटकना कहते हैं, जब पैर के साथ बुद्धि भी चलती है तब उसे यात्रा कहते हैं, जब बुद्धि के साथ भावनाये आबद्ध होती हैं तब उसे सुखद यात्रा कहते हैं, जब इनके साथ आत्मज्ञान की रौशनी होती है। तब इसे पूर्ण सफल सुखद यात्रा कहते है।

🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Sunday, 19 July 2020

पद परम्परा का परित्याग करें और लोकतंत्र में सबको बराबर मौका मिलना चाहिए।

*पद परम्परा का परित्याग करें और लोकतंत्र में सबको बराबर मौका मिलना चाहिए।*

भगवान श्रीकृष्ण को राजनैतिक कारणों व पूर्वजन्म के तपस्वियों के तप के फलस्वरूप अनेक विवाह करने पड़े थे। कुछ विवाह तो राक्षसों के बंधन से छुड़ाई स्त्रियों से किये थे।

सब ठीक था, बस एक समस्या थी, जब भी सन्त समागम होता या देवतागण आते उस दिन मात्र रुक्मणि ही उनके वाम अंग में विराजती थीं। किसी को कोई आपत्ति नहीं थी, मग़र सत्यभामा के पिता को आपत्ति हुई। उन्होंने सत्यभामा से कहा तुम्हे विवाह में सूर्यमणि दी है। तुम्हें भी मौका श्रीकृष्ण के वामांग में सन्त समागम और देवता आगमन के वक्त बैठने का मिलना चाहिए। रुक्मणि व श्रीकृष्ण को सभी रानियों को मौका देना चाहिए, ख़ासकर तुम्हे तो मिलना ही चाहिए।

सत्यभामा ने श्रीकृष्ण व रुक्मणि के समक्ष ज़िद की और सन्तसमागम व देवताओं के आगमन की सभा मे श्रीकृष्ण के वामांग में आकर बैठ गई। सभी सन्त व देवता दुःखी हो गए, वह माता सीता वर्तमान जन्म में रुक्मणि जी के दर्शन से वंचित हो गए। सप्तऋषियों ने नारद से कहा - संकटमोचन हनुमानजी हैं, जाओ उन्हें सन्देश दो कि भगवान राम व सीता जी ने उन्हें याद किया है अविलंब पहुंचे। नारद जी ने सन्देश हनुमानजी को दिया, हनुमानजी जी पवन वेग से द्वारिका की ओर बढ़े।

भगवान श्रीकृष्ण सप्तऋषियों व नारद जी की योजना समझकर मुस्कुरा दिए। उन्होंने सोचा सत्यभामा की तरह सुदर्शन चक्र को भी बहुत अभिमान हो गया है। जब जब श्रीराम अवतार की बात होती, तो बोलते यदि उस अवतार में मुझे धारण किया होता तो रावण वध आसान होता। फ़िर अर्जुन का भी अभिमान था, कि यदि मैं साथ होता तो समुद्र में वाणों का तीर बना देता, नर वानर से समुद्र पर पुल बनाने में समय नष्ट नहीं होता। भीम भी अभिमान में भरे थे, यदि मैं होता तो रावण का मस्तक उखाड़ कर सीता जी को ले आता, आपको परेशान होने की जरूरत नहीं थी। अतः श्री कृष्ण जी ने सोचा हनुमानजी आ ही रहे हैं तो सबकी शंका का समाधान कर ही देते हैं।

उन्होंने सुदर्शन चक्र से कहा, महत्त्वपूर्ण सभा चल रही है, किसी को अंदर मत आने देना। सुदर्शन पहरा देने लगे।

हनुमानजी पहुंचे और ज्यों ही द्वारिका में प्रवेश करने लगे तो सुदर्शन चक्र ने रोक दिया। हनुमानजी के समझाने पर भी न समझे तो हनुमानजी ने चक्र को पकड़ा व अपनी कांख में दबा कर सभा मे प्रवेश किया। सभी ऋषि व देवतागण संकटमोचन हनुमानजी को देखकर प्रणाम करने उठ खड़े हुए। हनुमानजी ने श्रीकृष्ण की ओर देखा और कहा प्रभु माता सीता कहाँ है। हे भक्त वत्सल यह किस दासी को अपने वामांग में स्थान सन्तो व देवताओं की सभा मे स्थान दे रखा है। प्रभु माता सीता को बुलाइये, प्रभु मुस्कुराए व सत्यभामा सकुचा गई।

श्रीकृष्ण के इशारे पर रुक्मणि जी आयी व भगवान श्रीकृष्ण के वामांग में बैठ गयी। श्रीराम सीता के दर्शन को पाकर हनुमानजी जी कृत कृत्य हुए व चरणों मे गिर गए। सत्यभामा को भूल का अहसास हो गया, तभी भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुरा के बोले हनुमान किसी ने द्वार पर तुम्हे रोका नहीं, रोका था प्रभु आपके सुदर्शन चक्र ने... भुजाओं में दबे सुदर्शन चक्र को कांख से बाहर निकालते हुए हनुमानजी ने कहा... प्रभु यदि यह आपका सुदर्शन चक्र न होता तो शायद यह टुकड़े टुकड़े हो गया होता... सुदर्शन का अभिमान चूर चूर हो गया।

हनुमान जी ने कहा, माता सीता आपके हाथ की रसोई नहीं खाई। माता रुक्मणि ने सभी सन्तो व हनुमानजी के लिए भोजन बनाया। हनुमानजी खाते ही गए, जितना बना था सब खत्म होने लगा तब माता सीता आई व पूड़ी में अनामिका उंगली से जय सिया राम लिख के परोसा। हनुमानजी तृप्त हो गए।

हनुमानजी श्रीकृष्ण वाटिका में पूंछ फैलाकर भोजन करके आराम कर रहे थे तभी भगवान कृष्ण भीम के साथ आये। बोले हनुमान आराम कर रहा है, मुझे उस पार जाना है। तुम इसकी पूंछ उठाकर उस ओर रख दो। भीम ने कहा, जो आज्ञा प्रभु! हनुमानजी की पूंछ उठाने की भरपूर कोशिश की मग़र हिला तक नहीं पाए। सर झुकाकर बोले प्रभु मुझे बड़ा घमण्ड था अपनी भुजाओं पर, लेकिन आज वह बिखर गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, चलो हनुमानजी को द्वारिका घुमा लाते हैं और श्रीकृष्ण, अर्जुन व हनुमानजी द्वारिका घूमने लगे। तभी रास्ते मे एक नदी आयी, भगवान ने अर्जुन से कहा तुम इस पर वाणों से पुल बनाओ, हमें व हनुमानजी को उस पार जाना है।

अर्जुन ने तुरन्त वाणों का पुल बना दिया, मग़र ज्यो ही हनुमानजी पुल पर चढ़े वह पुल टूट गया तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने हाथों का सहारा देकर हनुमानजी को गिरने से बचाया। वाणों की नोक से श्रीकृष्ण के हाथ से लहू निकल आया। हनुमानजी दुःखी हुए, बोले प्रभु आपने अर्जुन की मूर्खता व व्यर्थ अभिमान के कारण पुल बनाने दिया। प्रभु आप जानते थे मेरे वजन को यह पुल नहीं सम्हाल पायेगा। लेकिन हे भक्त वत्सल आपने अर्जुन को सन्मार्ग पर लाने के लिए कष्ट स्वयं  सहा।

अर्जुन शर्म से पानी पानी हो गए, अभिमान तिरोहित हो गया।

हनुमानजी माता सीता(रुक्मणि जी) व श्रीराम(श्रीकृष्ण जी) को प्रणाम करके चले गए। पुनः कभी सत्यभामा ने सन्त समागम व देवता आगमन के वक़्त वामांग में बैठने की जिद नहीं की।

अध्यात्म जगत में वर्तमान जगत की योग्यता से अधिक आत्मा के मूल स्रोत व पूर्वजन्मों के सँस्कार को महत्व दिया जाता है। कभी भी सांसारिक जगत के चश्मे से आध्यात्मिक जगत का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। सांसारिक स्कूल - कॉलेज की डिग्री से आध्यात्मिक जगत की योग्यता सिद्ध नहीं होती। आत्म ऊर्जा व गुणवत्ता से आध्यात्मिक जगत चलता है। 

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - *कोई मुझे समझता नहीं, मेरी फीलिंग्स और इमोशनल अटैचमेंट का मज़ाक उड़ाते हैं। मेरे सही कार्य को भी गलत साबित करने पर लोग तुले रहते हैं, मेरे भीतर क्या चल रहा है उसे समझे बगैर मेरे लिए जजमेंट पास कर देते हैं। कोई मेरी कद्र नहीं करता। मेरी एक बुराई को हाइलाइट करते हैं और अनेकों अच्छाइयों को भूल जाते हैं। क्या करूँ?*

प्रश्न - *कोई मुझे समझता नहीं, मेरी फीलिंग्स और इमोशनल अटैचमेंट का मज़ाक उड़ाते हैं। मेरे सही कार्य को भी गलत साबित करने पर लोग तुले रहते हैं, मेरे भीतर क्या चल रहा है उसे समझे बगैर मेरे लिए जजमेंट पास कर देते हैं। कोई मेरी कद्र नहीं करता। मेरी एक बुराई को हाइलाइट करते हैं और अनेकों अच्छाइयों को भूल जाते हैं। क्या करूँ?*

उत्तर - एक बार ऐसा ही प्रश्न एक शिष्य ने अपने गुरु से किया। गुरु ने एक बहुमूल्य पत्थर शिष्य के हाथ मे देकर बोला इसकी कीमत पता करके आओ। ध्यान रहे इसे बेचना मत।

शिष्य बहुमूल्य पत्थर लेकर सर्वत्र घुमा और शाम को गुरुजी को बताया कि, मैंने क्रमशः  धोबी को दिखाया, धोबी ने उसका मूल्य चार आने तय किया। सब्जी वाले ने दो बोरे आलू और अनाज वाले ने 5 बोरा गेँहू उस पत्थर के मूल्य तय किया। सुनार ने उसकी कीमत 100 स्वर्ण मुद्राएं तय की। लेकिन जौहरी ने ज्यों ही उस बहुमूल्य पत्थर को देखा तो पहले रेशम का कपड़ा बिछाया और उस पर रख प्रणाम कर बोला। यह बेशकीमती बहुमूल्य रत्न रूबी है, इसे खरीदने की मेरी औकात नहीं है। इसे राजा को बिकवा सकता हूँ, यदि तुम चाहो।

तब गुरुजी मुस्कुराए, और बोले कुछ समझे। तुम इसी रत्न की तरह हो, तुम्हारा मूल्यांकन सभी अपनी योग्यता , समझ, भावना व ज्ञान अनुसार करते हैं, न कि तुम्हारी योग्यता, समझ, भावना व तुम्हारे ज्ञान के अनुसार तुम्हें जज करते हैं, तुम्हारी कद्र करते हैं। जो जौहरी नहीं वह यदि तुम्हारा धोबी की तरह मूल्यांकन चार आने कर रहा है, तो इसका कदापि अर्थ नहीं कि तुम्हारी औकात चार आने की है, यह भी हो सकता है कि मूल्यांकन करने वाले की अक्ल व औकात चार आने की हो। अतः दुःखी व व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है।

तुम भी अपना सही मूल्यांकन तब कर सकोगे जब आत्मज्ञानी जौहरी बनोगे। स्वयं के अस्तित्व को जानोगे, अपनी फीलिंग्स को स्वयं जांचोगे, परखोगे, उसका एनालिसिस निष्पक्ष होकर करोगे। जब तुम स्वयं को नहीं जानते तब तुम दूसरों से कैसे उम्मीद कर सकते हो कि वह तुम्हें जाने समझे व तुम्हारी कद्र करे।

यह कलियुग है, जहाँ स्वार्थ सधता है, वहीँ यहां रिश्ता निभता है।  अतः यहां सतयुगी निःश्वार्थ प्रेम करने वाला जीवनसाथी या अच्छा मित्र चाहना उचित नहीं है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - *मोह सकल व्याधिन कर मूला* - इमोशनल अटैचमेंट किसी भी वस्तु या व्यक्ति के साथ दुःख का सृजन करती है।

*प्रेम व मित्रता तब बहुत सही व अत्यंत सुखदायी है* - जब आप किसी से बिना किसी स्वार्थ के करें, बदले में कुछ पाने की भावना से न करें, उसका भला चाहें। यहां सिर्फ प्यार व मित्रता में देने का भाव है।

*प्रेम व मित्रता तब बहुत गलत व अत्यंत दुःखदायी होता है* - जब आप सामने वाले से अपनी मनपसंद प्रेम चाहें, मन पसन्द व्यवहार बदले में चाहे, वह आपकी इच्छानुसार आपसे बात करे। वस्तुतः आप एक रिमोट कंट्रोल प्रेमी का या मित्र का चाहते हैं। उससे अपना भला करवाना चाहें। यहां  व्यापार चाहिए - गिव एंड टेक नियम चलता है। व्यपार सफल और असफल दोनो हो सकता है।

स्वयं की भावनाओं को सम्हालने की हमारी क्षमता होनी चाहिए। जैसे भोजन का पाचन सही न हो तो लूज मोशन हो जाता है। दस्त -पेचिश स्वास्थ्य खराब कर देता है। ऐसे ही भावनाओं - इमोशन का पाचन न हुआ तो इमोशनल लूज मोशन, भावनाओं की दस्त-पेचिश आपका जीवन खराब कर देगा।

हम मनुष्य पशु जैसे स्वतंत्र नहीं की जहां भी दस्त-पेशाब लगे, कहीं भी खुले में कर दें। हम मनुष्य एक सामाजिक व्यस्था के अंग हैं। हम खुले में शौच करेंगे तो असभ्य कहलायेंगे। अतः हमें अपने घरों में टॉयलेट- वॉशरूम की व्यवस्था करनी होती है। मल मूत्र विसर्जन में भी विवेकदृष्टि अपनानी पड़ती है।

इसी तरह भावनाओं की अभिव्यक्ति भी खुले में नहीं की जा सकती। किसी के साथ भी यूँ ही इमोशनल अटैचमेंट करना उचित नहीं है। सहमति से विवाह करें, यदि सामने वाले की इच्छा नहीं तो उसे विवश न करें। विवशता में कर्म हो सकता है, प्रेम नहीं।

मित्रता किसी से करते वक्त भी सावधानी बरतें। पहले दो लड़कों की मित्रता व दो लड़कियों की मित्रता पर शक नहीं किया जा सकता था। परंतु आज़कल कलियुगी जमाना है। यहां दो अच्छे व सहज मित्रों को भी कलियुगी चश्मे से देखने वाले लोग अभद्र टिप्पणियों से पुकार सकतें हैं। अतः इसमे व्यथित होने या रोने धोने की आवश्यकता नहीं है। यह धोबी के द्वारा मूल्यांकन है, जौहरी के द्वारा नहीं जो इसे सीरियस लें। सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग।

आपकी अंतरात्मा की सुने, स्वयं के विवेक को जागृत करें। किसी से भी अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट न हो। स्वयं की पूर्णता को स्वयं में तलाशें।

गुलाब को कांटो के बीच ही खिलना होता है। इंसान को तानों के बीच ही जीना होता है।

विवाह, मित्रता, रिश्तेदारी, सन्तान, माता-पिता सबके प्रति उत्तरदायित्व व कर्तव्य निर्वहन करें। लेकिन मोह में न पड़े, अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट में न पड़ें। किसी की इमोशन की बैसाखी पर जीवन न चलाएं, अपने पैरों पर चलें, अपने इमोशन को स्वयं सम्हालने की योग्यता बढ़ाये।

जब ध्यान व योग प्राणायाम करेंगे, *श्रीमद्भागवत गीता* का और *प्रसुप्ति से जागृति की ओर* जैसी पुस्तको का स्वाध्याय करेंगे, तब यह इमोशन के पाचन की दवा की तरह कार्य करेंगी। अपने इमोशन को पचाने में मदद करेंगी।

तब प्रेम तो करेंगे, मग़र मोह के मकड़जाल में आप नहीं जकड़ेंगे। मुक्त व मोक्षदायी आनन्दमय जीवन को जीने की कला सीख जाएंगे।

आप सूर्य बन जाएंगे। जैसे कोई सूर्य की कद्र करे या न करे, उसे जल चढ़ाएं या न चढ़ाए, वह नित्य उदय होगा, प्राण ऊर्जा बिखेरेगा।  इसी तरह आप नित्य मानवीय कर्तव्य करेंगे, श्रेष्ठ कर्मो की ऊर्जा बिखेरेंगे, कोई इसकी कद्र करता है या नहीं आप उसकी परवाह नहीं करेंगे।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

*नोट:-* भगवान मेरी सुनता नहीं, यह उन्हें कहने का अधिकार नहीं जिन्होंने कम से कम 108 बार श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ी नहीं है, जो नित्य 15 मिनट ध्यान ईश्वर का करते नहीं है। क्योंकि जब तुमने भगवान को नहीं सुना, तब तुम क्यों चाहते हो कि भगवान तुम्हें सुने। विटामिन डी चाहिए तो सूर्य के समक्ष बैठना होगा। भगवान की कृपा चाहिए तो 15 मिनट ध्यान व 15 मिनट स्वाध्याय तो करना ही पड़ेगा।

Thursday, 16 July 2020

रक्षाबंधन पर्व की अनन्त शुभकामनाएं - 3 अगस्त 2020, सोमवार

रक्षाबंधन पर्व की अनन्त शुभकामनाएं - 3 अगस्त 2020, सोमवार

प्रश्न- *दी, रक्षा बंधन की विधि और शुभमुहूर्त बतायें*

उत्तर -  आत्मीय बहन *राखी बांधने के मुहूर्त- रविवार 3 अगस्त 2020* इस प्रकार है:-

रक्षाबंधन - रक्षा सूत्र बांधकर रक्षा का वादा लेने का त्यौहार प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाते हैं, इसलिए इसे राखी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। वहीं इस साल यानि 2020 में रक्षाबंधन का पर्व 3 अगस्त 2020, सोमवार को मनाया जाएगा।

वस्तुतः यह त्योहार रक्षक की भूमिका निभाने वालों को सम्मानित व एक दूसरे के प्रति प्रेम सद्भाव जगाने का त्योहार है। जनता राजा, सैनिकों व क्षत्रिय वीरों ऱक्षासूत्र बांधकर धन्यवाद व आभार प्रकट करती थी। राजा, सैनिक व क्षत्रिय वीर अपने क्षेत्र की जनता की सुरक्षा का वचन देते थे।

शिष्य गुरु को ऱक्षासूत्र बांधकर आध्यात्मिक जगत में उसकी सुरक्षा हेतु आभार व धन्यवाद प्रकट करता था। गुरु संरक्षण का वचन देता था।

परिवार में बहन भाई को रक्षा सूत्र बांधकर धन्यवाद व आभार प्रकट करती थी। भाई अपनी बहन की सुरक्षा व उत्तरदायित्व का भार उठाता था। उसे सभी प्रकार की विपदाओं में संरक्षण का वचन देता था।

*ऱक्षासूत्र राखी बांधने का मुहूर्त*
*राखी बांधने का मुहूर्त* : 09:27:30 से 21:11:21 तक
*अवधि* : 11 घंटे 43 मिनट
*रक्षा बंधन अपराह्न मुहूर्त* : 13:45:16 से 16:23:16 तक
*रक्षा बंधन प्रदोष मुहूर्त* : 19:01:15 से 21:11:21 तक

वर्तमान में यह पर्व भाई-बहन के प्रेम के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन बहनें भाइयों की समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर रंग-बिरंगी राखियां - मूलतः रक्षासूत्र बांधती हैं, वहीं भाई बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं।


👉🏼👉🏼🙏🏻 *राखी बांधने की विधि*

सबसे पहले बहनों का सुबह- सुबह पूजा की थाल तैयार कर लेनी चाहिए। उपरोक्त मुहूर्त में से किसी भी मुहूर्त में सुविधानुसार राखी बांधे।

इस थाल में रोली, मिठाई, कुमकुम,रक्षा सूत्र, अक्षत, पीला सरसों ,दीपक और राखी हो यह सुनिश्चित कर लें।

🙏🏻 भाई बहन एक साथ गायत्री मंत्र बोलते हुए, भाई बहन सद्बुद्धिं की प्रार्थना करे।

*ॐ भूर्भुवः स्व: तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात*

👉🏼इस दौरान दीप जरूर जला लें।

 निम्नलिखित मंन्त्र बोलते हुए सबसे पहले भाई को तिलक लगाएं, फिर भाई अपनी बहन को तिलक लगाएं।

*ॐ चन्दनस्य महत्पुण्यं, पवित्रं पापनाशनम्।*
*आपदां हरते नित्यम्, लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा॥*

फिर दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र बांधें, निम्नलिखित मंन्त्र के साथ बांधे:-

*ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।*
*दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते॥*

उसके बाद राखी को बांधें निम्नलिखित मंन्त्र के साथ बांधे।

*ॐ येन बद्धो बलीराजा, दानवेन्द्रो महाबलः।*
*तेन त्वां प्रति बध्नामि, रक्षे मा चल मा चल॥ *

अर्थात्- जिस रक्षासूत्र से दानवेन्द्र, महाबली राजा बलि बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधती हूँ। हे रक्षे (रक्षासूत्र) यहाँ से (अपने प्रयोजन से) विचलित न होना अर्थात् अपनी बहन की सदैव रक्षा करना।धर्मपरायण होकर अपनी बहन की रक्षा करना।

फिर राखी और रक्षा सूत्र बांधने के बाद, भाई की आरती उतारें।और पुष्पवर्षा उस पर निम्नलिखित मन्त्रों के साथ करें:-

*मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम गरुड़ ध्वज।*
*मंगलम पुण्डरीकाक्ष, मंगलाय तनो हरि।।*

फिर भाई को मिठाई खिला दें।

भाई आपसे बड़ा हो या छोटा आज कर दिन भाई बहन का  चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेगा।
फिर  निम्नलिखित  वचन भाई अपनी  बहन  को देगा, बड़ा भाई अपनी बहन के सर पर हाथ रखके आशीर्वाद भी देगा :-

1- जीवन में कभी कोई ऐसा कार्य नही करूंगा जिससे मेरे परिवार को शर्मिंदा होना पड़े।
2- कभी किसी को भी माँ-बहन की गाली नहीं दूंगा और न ही किसी को देने दूंगा।
3- स्त्रियों को सम्मान दूंगा।
4- नशा न करूंगा और न ही किसी को करने दूंगा।
5- बहन की सुरक्षा करूंगा और राष्ट्र की सुरक्षा हेतु भी ततपर रहूंगा।

अंत में पूजा की थाल को आप कुछ देर के लिए पूजा स्थान पर रख सकते हैं। भाई बहन के लिए जो गिफ्ट लाया है दे सकता है। बहन जो भाई के लिए गिफ्ट लाई है दे सकती है।

दीप को अंत तक जलने दें उसे बुझाए नहीं।

*एक सन्देश* - बहन जिस तरह तुम्हें तुम्हारा भाई प्यारा है, वैसे ही आपकी ननद को आपका पति प्यारा है। जो आदर सम्मान आप अपने भाई और भाभी से चाहती है वही आपको अपनी ननद को भी देना चाहिए। आपकी भाभी को आपके माता-पिता का ख्याल रखना चाहिए, वैसे ही आपको भी अपने सास ससुर का ख्याल रखना चाहिए। इस त्यौहार की ख़ुशी तभी निखर के आएगी जब प्रेम और सौहार्द के साथ इसे मनाया जाएगा। कन्या के जन्म को भी स्वीकार किया जाएगा। अन्यथा भाईयों की कलाई सुनी ही रहेगी। आज जब एक बच्चे अधिकतर लोग रखते है तो विश्व कुटुम्बकम का भाव रखते हुए, नाते रिश्तेदार, आस-पड़ोस में मिलकर भाई बहन का यह पवित्र त्योहार मनाये। कुछ ऐसा करें कि आज के दिन कोई कलाई सुनी न हो।

🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

जगतगुरु श्रीकृष्ण के जन्म उत्सव - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बधाई (11 अगस्त 2020 व्रत व मध्यरात्रि पूजन, 12 अगस्त पारण)

*जगतगुरु श्रीकृष्ण के जन्म उत्सव - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बधाई (11 अगस्त 2020 व्रत व मध्यरात्रि पूजन, 12 अगस्त पारण)*

*भगवान श्रीकृष्ण का  5247 वाँ जन्मोत्सव*

प्रश्न - *कृष्णजन्माष्टमी 2020 के व्रत  कब है? पूजन मुहूर्त का वक्त कब है? पूजन विधि बताइये। साथ ही व्रत के बाद पारण(अन्न) कब खाएंगे?*

उत्तर - *जन्माष्टमी की अग्रिम बधाई, गीता व कृष्ण एक दूसरे के पूरक हैं जन्माष्टमी के दिन सभी गीता का स्वाध्याय जरूर करें।*

*संक्षिप्त परिचय* - जब जब धरती पर धर्म की हानि होती है व राक्षसों का उत्पात बहुत बढ़ जाता है। श्रीविष्णु भगवान धर्म की पुनः स्थापना के लिए अवतार लेते हैं।

 भगवान श्रीकृष्ण विष्णु जी के 8वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर माने जाते हैं। कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। भगवान श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से युक्त थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है।

श्रीमदभगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है।

जो भी व्यक्ति मोह में हो या बौद्धिक उलझन में हो, यदि वह 108 दिनों तक गायत्रीमंत्र जप, भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान, 21 बार प्राणायाम, 10 बार गायत्रीमंत्र का लेखन और श्रीमद्भागवत गीता के एक अध्याय का पाठ नित्य करता है, वह बुद्धिकुशलता को प्राप्त करता है। एक से 18 दिन पाठ करने के बाद 19 वें दिन से पुनः प्रथम पाठ शुरू होता है। इस तरह 108 दिन में गीता के 18 अध्याय 10 बार पढ़ लिए जाते हैं। साधक को जीवन की समस्त समस्याओं को सुलझाने की बौद्धिक व कर्म में कुशलता आ जाती है।

भगवान श्रीकृष्ण की याद में उनके जन्मदिन को जन्माष्टमी के नाम से बड़े धूम धाम से मनाया जाता है।

*व्रत का दिन* - 11 अगस्त

*निशिता पूजा का समय 11 अगस्त व 12 अगस्त की मध्य रात्रि* = 24:05 से 24:48 तक ( मध्यरात्रि 12:05 PM से 12:48 PM )

*पूजन अवधि* = 0 घण्टे 43 मिनट्स
मध्यरात्रि का क्षण = 24:26

*12th अगस्त को, पारण का समय* = 11:16 AM के बाद



*कृष्ण जन्माष्टमी व्रत, भोग और पूजा विधि*

अष्टमी के व्रत वाले दिन भगवान कृष्ण के भक्त केवल फलों, दूध, छाछ और रसाहार का सेवन करते हैं।  कृष्ण जन्माष्टमी के दिन सभी लोग विधि-विधान के साथ व्रत रखकर कृष्ण जी की पूजा करते हैं और अगले दिन अष्टमी तिथि समाप्त होने के बाद ही सुबह नहा धोकर अपना उपवास तोड़ते हैं(अन्न खाते हैं), जिसे पारण कहते है। कुछ लोग पूजन के तुरंत बाद रात को भोजन कर लेते है जो कि धर्म शास्त्र के विरुद्ध है। हिन्दू धर्म में रात्रि पारण वर्जित है। दूसरा दिन और तिथि तभी माना जाता जब उस तिथि में सूर्य उदय हो। यदि सूर्योदय से पहले किसी ने भोजन किया तो जन्माष्टमी का व्रत पूर्ण नहीं माना जाता।

कृष्ण जन्माष्टमी के दिन भगवान कृष्ण का पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के बाद सबको उसका प्रसाद बांटा जाता है।

*पंचामृत का अर्थ है 'पांच अमृत' इसलिये मुख्‍यरूप से पंचामृत मेंं पॉच सामग्री हाेती है*, थोड़ा आइडिया निम्नलिखित से ले लें -

1- दूध 1 कप
2- दही 1 कप
3- शहद 1/4 चम्मच
4- शुद्ध घी 1/4 चम्‍मच
5- चीनी या  बूरा (स्वादानुसार)

वैसे तो पंचामृत मुख्यतः ऊपर दी गई 5 सामग्री को मिलाकर ही बनाया जाता है, साथ मे नीचे दी गई सामिग्री भी डाल दीजिये:-

👉🏼तुलसी के पत्ते- 4 या 5
👉🏼बारीक कटे हुए मखाने- 1 कप
👉🏼चिरौंजी- 1 चम्मच कप
👉🏼गंगाजल 1 चम्मच

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात्रि को कृष्ण का जन्मदिन मनाते हैं और प्रसाद का सेवन करते हैं। भगवान कृष्ण को  दूध से  बनी रबड़ी, फल और खीरा का भोग लगाना बहुत ही शुभ माना जाता हैं।  धनियां को भूनकर उसमे चीनी/बुरा मिक्स करके  उसका पंजीरी बनाकर  कृष्ण भगवान को भोग लगाएं। ये सभी प्रसाद व्रत में खाने योग्य होते हैं।

।। *पर्वपूजन क्रम*॥

प्रारम्भ में प्रेरणा संचार के लिए गीत/भजन एवं संक्षिप्त उद्बोधन करके पूजन क्रम आरम्भ करें। यदि सामूहिक कर रहे हैं तो सबको अपने अपने घर से पूजन थाल और 5 घी के दीपक लाने को बोलें। षट्कर्म से रक्षा विधान तक का क्रम अन्य पर्वों की तरह चले। विशेष पूजन में भगवान् कृष्ण का आवाहन, सखा आवाहन एवं गीता आवाहन करें। तीनों का संयुक्त पूजन षोडशोपचार से करें। भगवान् कृष्ण को नैवेद्य के रूप में विशेष रूप से गो द्रव्य चढ़ायें जाएँ। अन्त में यज्ञ- दीपयज्ञ ,समापन देव दक्षिणा सङ्कल्प, संगीत आदि का क्रम रहे।

॥ *श्री कृष्ण आवाहन*॥

ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥ - कृ० गा०.
ॐ वंशी विभूषितकरान्नवनीरदाभात्, पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
ॐ श्रीकृष्णाय नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।

॥ *श्रीकृष्ण- सखा आवाहन*॥

ॐ सखायः सं वः सम्यञ्चमिष œ स्तोमं चाग्नये।
वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते॥ - १५.२९
ॐ श्रीकृष्ण- सखिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।

॥ *गीता आवाहन*॥

ॐ गीता सुगीता कर्त्तव्या, किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य, मुखपद्माद्विनिःसृता॥

गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि, गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य, त्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्॥

सर्वोपनिषदो गावो, दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्॥
ॐ श्री गीतायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥

आवाहन के पश्चात्

कृष्णभगवान की मूर्ति हो तो उसे पंचामृत से नहलाये/अभिषेक करें, फ़िर साफ़ जल से नहलाकर वस्त्र आभूषण पहनाए। यदि फोटो है तो यह अभिषेक भावनात्मक मन मे ध्यान में करें।। पंचामृत थोड़ा सा अलग प्रसाद हेतु भी अर्पित करने हेतु रखें। पूजन के बाद  अभिषेक  का  पंचामृत और प्रसाद का पंचामृत मिला दें। फिर प्रसाद रूप में सबको वही बांटे। नहलाते समय *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः* दोहराते रहें।

पुरुषसूक्त से षोडशोपचारपूजन करें।

॥ *गोद्रव्य- /पंचामृत अर्पण- भोग लगाएं॥*
मन्त्र के साथ पंचामृत भगवान् कृष्ण को अर्पित करें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय, मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ - ऋ० ८.१०१.१५

।। *दीप यज्ञ*।।
सभी से कहें दीप प्रज्वलित  कर लें और  निम्नलिखित मन्त्रों  के साथ भावनात्मक आहुति दें।
👉🏼  *11 गायत्री मंत्र* - *ॐ भूर्भुवः स्व: तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात।*

👉🏼5 कृष्ण गायत्री मंत्र - *ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि। तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥*
👉🏼3 महामृत्युंजय मंत्र -  *ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्*
👉🏼3 चन्द्र गायत्री मंत्र - *ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्।*

॥ *सङ्कल्प*॥

अंत मे निम्नलिखित  सङ्कल्प बोलकर अक्षत पुष्प माथे  में लगाकर  कृष्ण भगवान के चरणों मे अर्पित करें।

.< *यहाँ अपना नाम बोलें*>....... नामाहं कृष्णजन्मोत्सवे/ गीताजयन्तीपर्वणि स्वशक्ति- अनुरूपं न्यायपक्षवरणं तत्समर्थनं च करिष्ये। तत्प्रतीकरूपेण....< *यहां धर्म स्थापना और युगपिड़ा शमन हेतु सङ्कल्प बोलें* >.....नियमपालनार्थं संकल्पयिष्ये।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

श्रेष्ठ संस्कारी व बुद्धिमान बालक निर्माण --21 वर्षीय परियोजना है।* (भाग 1)

*श्रेष्ठ बालक निर्माण --21 वर्षीय परियोजना है।* (भाग 1)

👉🏻 *गर्भधारण से पूर्व प्रथम एक वर्ष*:-  माता पिता द्वारा सुयोग्य सन्तान प्राप्ति हेतु उच्च मनःस्थिति और परिस्थितियों का निर्माण अनिवार्य है।

घर में दीवारों में लगे चित्र, घर की साज सज्जा, माता पिता का खान-पान, वस्त्र परिधान, घर में बजने वाला सङ्गीत, चलने वाला सीरियल, पढ़ने वाले साहित्य सब वैसे होने चाहिए जैसी आत्मा को सन्तान बनाने की इच्छा है।

एक वर्ष की गायत्री मंत्र की सहस्त्रांशु साधना अनुष्ठान माता पिता को करनी चाहिए। दैनिक बलिवैश्व यज्ञ, साप्ताहिक यज्ञ या मासिक यज्ञ अवश्य करें।

गर्भ धारण दिन के समय या सायं गौधूलि बेला में या ब्रह्ममुहुर्त में न करें। गर्भ धारण हमेशा रात्रि के दूसरे तीसरे प्रहर में उत्तम है।

👉🏻 *गर्भधारण के दौरान - 9 महीने* -  गर्भस्थ आत्मा को माता गर्भ में धारण करेगी और पिता उसे मष्तिष्क में धारण करेगा। अतः माता गर्भिणी है तो पिता ने भी मष्तिष्क से गर्भ धारण किया हुआ है। दोनों स्थूल व सूक्ष्म तरंगों से सीधे गर्भ से जुड़े हैं।

गर्भस्थ बच्चे के संतुलित विकास हेतु माता ल-पिता ध्यान दें:-
*गर्भस्थ के शरीरबल के लिए* - माता संतुलित आहार करें, योग व व्यायाम करें, आनन्दमय मनोदशा में भोजन करें।

*गर्भस्थ के मनोबल व बुद्धिबल के लिए* - माता संतुलित आचार, विचार, विहार व व्यवहार करें। जो बच्चे को बनाना चाहते हैं उनके चित्र देखें, उनके बारे में सोचें, वैसा साहित्य अधिक से अधिक पढ़े व वीडियो देखें। माता के वस्त्र परिधान व कमरे की सज्जा भी गर्भस्थ के निर्माण में असर करेगी। घरवालों की बातें व व्यवहार भी असर डालता है। पहेलियां सुलझाएं व माइंड गेम्स खेलें।

*गर्भस्थ के आत्मबल व प्राण ऊर्जा हेतु* - माता-पिता जप, तप, ध्यान व संतुलित भावनाओं का समावेश जरूरी है। अतः धार्मिक व प्रेरक पुस्तको का अध्ययन करें। महापुरुषों और योद्धाओं के प्रेरक जीवन संघर्ष पढ़े। नित्य ध्यान करें। यज्ञीय औषधीय धूम्र में गहरी श्वांस ले।

गर्भावस्था कोई बीमारी नहीं है, अतः बीमारों की तरह आराम करने का ख़्याल मन से निकाल दें। स्वस्थ व्यक्ति की तरह दैनिक कार्य सुचारू रूप से करें। तन को आलस्य में रखेंगे तो बच्चे का शारीरिक मानसिक विकास अवरुद्ध होगा।

पिता नित्य गर्भस्थ शिशु को कहानियां सुनाए व गर्भ सम्वाद में माता-पिता दोनों भूमिका निभाएं।

👉🏻 *बालक के जन्म से लेकर तीन वर्ष तक*  -

बच्चे को खिलाते पिलाते समय अपनी आनन्दमय मनोदशा रखें। भोजन में आपकी मनोदशा मिश्रित होकर उसके पेट मे जाएगी व उसकी मनोदशा को प्रभावित करेगी।

उसे ध्यानस्थ होकर स्तनपान यदि छः महीने भी करवा दिया, तो विश्वास मानिए बच्चे को पढ़ने हेतु कभी एकाग्रता की कमी नहीं पड़ने वाली है।

रोज़ बच्चा समझे न समझे उसे महापुरुषों की प्रेरक कहानियां सोते वक्त सुनाएं।

बच्चे के समक्ष हिंसक व अश्लील सीरियल न देखें, कोई हरकत घर में न करें।

अत्यंत वृद्ध या रोगी व्यक्ति की गोदी में बच्चे को अधिक समय न रखें अन्यथा वह बच्चे की प्राण ऊर्जा को कम कर देंगे। उन्हीं वृद्ध की गोदी में बच्चा देना सुरक्षित है जो अश्लील वीडियो न देखते हों व दिन में कम से कम आधे घण्टे ध्यान व पूजन करते हों।

बच्चे को गोदी में लेने से पूर्व हाथ धोना चाहिए औए तीन बार गायत्रीमंत्र पढंकर अपना औरा शुद्ध कर लेना चाहिए।

👉🏻 *बालक के तीन वर्ष से सात वर्ष तक*  -  बालक के तीनों शरीर स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर को भोजन मिलना चाहिए। एक भी शरीर का पोषण सही नहीं हुआ तो संतुलित विकास नहीं हो पायेगा।

1- *स्थूल शरीर - शरीर बल* - योग-व्यायाम व अच्छा भोजन, व्यवस्थित रहना व व्यवस्थित पहनावा पहनना। वस्त्र पहनने के तरीके से पता चल जाता है कि सन्तान आत्मविश्वास से भरी है या डरी डरी सहमी है। चाल में कंधे उठे हुए व कदम सधे हुए, ऊंचा सोचते हुए  बच्चे को चलना चाहिए। बच्चे की चाल पर भी बहुत कुछ निर्भर है। 15 मिनट बच्चे को कमर सीधी रखके सर थोड़ा ऊपर करके बैठने को बोलना चाहिए।

2- *सूक्ष्म शरीर - मनोबल* - अच्छी प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय व चिंतन, जीवन लक्ष्य बनाना और उसके लिए अपेक्षित मेहतन करने हेतु प्रेरित करना चाहिए।  उसके ज्ञान में निरन्तर वृद्धि करना चाहिए। आपका बच्चा जब भी बोलें तो शब्द इतने सधे व आत्मविश्वास से भरे हों कि लोग बात करके जान सके कि आपका बच्चा अपनी उम्र के अनुसार ज्ञानवान है।

3- *कारण शरीर - आत्मबल* - बच्चे से अब नित्य जप, ध्यान व स्व-संकेत देने की कला सिखाना शुरू कर दीजिए, इसके माध्यम से वह स्वयं को सन्देश देगा कि वह ईश्वर की बनाई सर्वश्रेष्ठ कृति है, उसके अंदर अपार बुद्धि है, उसका सही उपयोग वह स्वयं के उत्थान के लिए करेगा, स्वयं को मजबूत बनाएगा। वह छोटा है व कोमल है लेकिन कमज़ोर नहीं है। वह अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु समर्थ है। आपके सन्तान की दृष्टि में सूर्य सा ओज होना चाहिए, जिससे कोई बुरी नजर से उसकी ओर देख न सके।

क्रमशः......

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

शिव पूजन माह- श्रावण मास - सावन सोमवार की शुभकामनाएं

*शिव पूजन माह- श्रावण मास - सावन सोमवार की शुभकामनाएं*

प्रश्न - *भगवान शिव-शंकर का तत्व दर्शन और फिलॉसफी समझाएं...*

*क्यों शंकर जी की शक्ति / वरदान / चमत्कार हमें अब दिखाई नहीं पड़ते? कहाँ चूक रह जाती है, कहाँ भूल रह जाती है बतायें?*

*महाशिवरात्रि में रुद्राभिषेक/शिवाभिषेक क्यों करते हैं?*

उत्तर - युगऋषि परम् पूज्य गुरुदेव ने पुस्तक शिव-शंकर का तत्व दर्शन बहुत सरल शब्दों में समझाया है जो इस प्रकार है:-

*भवानि शङ्करौ वन्दे श्रध्दा विश्वास रूपिणौ |*

*याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ||*

'भवानीशंकरौ वंदे' भवानी और शंकर की हम वंदना करते है। 'श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर। श्रद्धा और विश्वास- का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते,जल चढ़ाते, बेलपत्र चढ़ाते, आरती करते है। 'याभ्यांबिना न पश्यन्ति' *श्रद्धा और विश्वास के बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते।*

भगवत कृपा न मिलने में चूक और गलती वहाँ हो गई, जहाँ भगवान शिव और पार्वती का असली स्वरूप हमको समझ में नहीं आया। उसके पीछे की फिलॉसफी समझ में नहीं आई|

*आइये समझते है शिव शंकर का सही स्वरूप ताकि हम लोग भी शंकर भगवान के अनुदान प्राप्त कर सके* -

👉🏼 *शिव लिंग*

यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर की गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

१ 👉🏼 *शिव का वाहन वृषभ / बैल “नंदी”*

शिव का वाहन वृषभ शक्ति का पुंज भी है सौम्य- सात्त्विक बैल शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है।

२. 👉🏼 *चाँद - शांति, संतुलन* -

चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है,चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है, शंकर भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भाँति प्रफुल्ल और उसी के समान खिला निःशंक होता है।

३. 👉🏼 *माँ गंगा की जलधारा* -

सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है|गंगा जी यहाँ 'ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं।महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है |माँ गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं | मस्तिष्क के अंतराल में मात्र 'ग्रे मैटर' न भरा रहे, ज्ञान- विज्ञान का भंडार भी भरा रहना चाहिए, ताकि अपनी समस्याओं का समाधान हो एवं दूसरों को भी उलझन से उबारें। वातावरण को सुख- शांतिमय कर दें।अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके| | शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है| महान बौद्धिक क्रांतियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाए हुए हों।वही ब्रह्मज्ञान को धारण कर उसे लोक हितार्थ प्रवाहित कर सकता है। ।

४. 👉🏼 *तीसरा नेत्र*

-ज्ञानचक्षु , दूरदर्शी विवेकशीलता . जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। | यह तृतीय नेत्र स्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।

५.  👉🏼 *गले में सांप*

-शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधरोंसाँप का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि,उनके लिए वे फायदेमन्द हो गए, उपयोगी हो गए और काटने भी नहीं पाए।

६.  👉🏼 *नीलकंठ - मध्यवर्ती नीति अपनाना*-

शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता।शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे। मध्यवर्ती नीति ही अपने जाये योगी पुरुष पर संसार के अपमान, कटुता आदि दुःख- कष्टों का कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें वह साधारण घटनाएँ मानकर आत्मसात् कर लेता है और विश्व कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति निश्चल भाव से बनाए रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है। यही योगसिद्धि है।

७.  👉🏼 *मुण्डों की माला -जीवन की अंतिम परिणति और सौगात*

राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं।वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है । जिस चेहरे को हम बीस बार शीशे में देखते हैं, सजाते संवारते हैं , वह मुंडों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। जिस बाहरी रंग के टुकड़ों को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि इनसान की जो खूबसूरती है उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है।

८.  👉🏼 *डमरु* –

शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित- प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार- पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेती है।

९.  👉🏼 *त्रिशूल धारण – ज्ञान, कर्म और भक्ति*

लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला ,साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला एक एसा अस्त्र – त्रिशूल. यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।

१०. 👉🏼 *बाघम्बर* -

वे बाघ का चर्म धारण करते है। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके |

११.  👉🏼 *शरीर पर भस्म – प्ररिवर्तन से अप्रभावित*

शिव बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं, ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े। मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुँथा हुआ देखता है उस पर न आक्रोश के आतप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का । वह निर्विकल्प निर्भय बना रहता है।

१२. 👉🏼 *मरघट में वास* -

उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। वे प्रकृतिक्रम के साथ गुँथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते तथा बसंत के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। गंदगी जो सड़न से फैलती है। काया की विधिवत् अंत्येष्टि कर दी गई तो सड़न का प्रश्न ही नहीं रहा। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।

१३. 👉🏼 *हिमालय में वास*

जीवन की कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊँचाइयों को प्राप्त करता है | जीवन संघर्षों से भरा हुआ है | जैसे हिमालय में खूंखार जानवर का भय होता है वैसा ही संघर्षमयी जीवन है | शिव भक्त उनसे घबराता नहीं है उन्हें उपयोगी बनाते हुए हिमालय रूपी ऊँचाइयों को प्राप्त करता है |

१४. 👉🏼 *शिव -गृहस्थ योगी* -

गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृ- शक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है। ऋद्धि- सिद्धियाँ उनके पास रहने में गर्व अनुभव करती हैं। यहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्मकल्याण की साधना असंभव नहीं। जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते- खेलते पूरा किया जा सकता है।

१५. 👉🏼 *शिव – पशुपतिनाथ*

शिव को पशुपति कहा गया है। पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पशुपति का काम है। नर- पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याणकर्त्ता शिव की शरण में आता है तो सहज ही पशुता का निराकरण हो जाता है और क्रमश: मनुष्यत्व और देवत्व विकसित होने लगता है।

१६.  👉🏼 *शिव के गण – शिव के लिए समर्पित व्यक्तित्व*

''तनु क्षीनकोउ अति पीन पावन कोउ अपावन तनु धरे।" – रामायण

शंकर जी ने भूत- पलीतों का, पिछड़ों का भी ध्यान रखा है और अपनी बरात में ले गए। शिव के गण भूत- पलीत जैसों का है। पिछड़ों, अपंगों, विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा- सहयोग का प्रयोजन बनता है। शंकर जी के भक्त अगर हम सबको साथ लेकर चल नहीं सकते तो फिर हमें सोचने में मुश्किल पड़ेगी, समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और फिर जिस आनंद में और खुशहाली में शंकर के भक्त रहते हैं हम रह नहीं पाएँगे।

२०. 👉🏼 *शिव के प्रधान गण – वीरभद्र*-

वीरता अभद्र-अशिष्ट न हो,भद्रता – शालीनता डरपोक न हो, तभी शिवत्व की स्थापना होगी |

२२. 👉🏼 *शिव परिवार – एक आदर्श परिवार*

शिवजी के परिवार में सभी अपने अपने व्यक्तित्व के धनी तथा स्वतंत्र रूप से उपयोगी हैं | अर्धांगनी माँ भवानी ज्येष्ठ पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय तथा कनिष्ठ पुत्र प्रथम पूज्य गणपति हैं | सभी विभिन्न होते हुए भी एक साथ हैं | बैल -सिंह , सर्प -मोर प्रकृति में दुश्मन दिखाई देते हैं किन्तु शिवत्व के परिवार में ये एक दुसरे के साथ हैं |शिव के भक्त को शिव परिवार जैसा श्रेष्ठ संस्कार युक्त परिवार निर्माण के लिए तत्पर होना चाहिए |

२३. 👉🏼 *शिव को अर्पण-प्रसाद* - भांग-भंग अर्थात विच्छेद- विनाश। माया और जीव की एकता का भंग, अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय- कल्मषों का भंग। यही है शिव का रुचिकर आहार। जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अंधकार की निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय वह पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।

👉🏼 *बेलपत्र*- बेलपत्र को जल के साथ पीसकर छानकर पीने से बहुत दिनों तक मनुष्य बिना अन्न के जीवित रह सकता है | शरीर भली भांति स्थिर रह सकता है | शरीर की इन्द्रियां एवं चंचल मन की वृतियां एकाग्र होती हैं तथा गूढ़ तत्व विचार शक्ति जाग्रत होती है |अतः शिवतत्व की प्राप्ति हेतु बेलपत्र स्वीकार किया जाता है |

२४. 👉🏼 *शिव-मंत्र “ ॐ नमः शिवाय*

“शिव' माने कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए- यह शिव शब्द का अर्थ होता है। सुख हमारा कहाँ है? यह नहीं, वरन कल्याण हमारा कहाँ है? कल्याण को देखने की अगर हमारी दृष्टि पैदा हो जाए तो यह कह सकते हैं कि हमने भगवान शिव के नाम का अर्थ जान लिया। इसी भाव को बार बार याद करने की क्रिया है मन्त्र ।

२५. 👉🏼 *शिव- “ महामृत्युंजय मंत्र “*

महामृत्युञ्जय मंत्र में शिव को त्र्यंबक और सुगंधि पुष्टि वर्धनम् गाया है। विवेक दान भक्ति को त्रिवर्ग कहते हैं। ज्ञान, कर्म और भक्ति भी त्र्यंबक है। इस त्रिवर्ग को अपनाकर मनुष्य का व्यक्तित्व प्रत्येक दृष्टि से परिपुष्ट व परिपक्व होता है। उसकी समर्थता और संपन्नता बढ़ती है। साथ ही श्रद्धा, सम्मान भरा सहयोग उपलब्ध करने वाली यशस्वी उपलब्धियाँ भी करतलगत होती हैं। यही सुगंध है। गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता का प्रतिफल यश और बल के रूप में प्राप्त होता है। इसमंन तनिक भी संदेह नहीं। इसी रहस्य का उद्घाटन महामृत्युञ्जय मंत्र में विस्तारपूर्वक किया गया है। फ़िर वह खर्बुजे की तरह मृत्यु बन्धन, मृत्यु के भय से मुक्त हो मोक्ष के अमरत्व को प्राप्त करता है |

२६. 👉🏼 *महाशिवरात्रि* -

रात्रि नित्य- प्रलय और दिन नित्य- सृष्टि है। एक से अनेक की ओर कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है |इसके विपरीत अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इंद्रियाँ हमारे भीतर से बाहर निकल बाहरी प्रपंच की ओर दौड़ती हैं | रात्रि में फिर बाहर से भीतर की ओर वापस आकर शिव की ओर प्रवृत्ति होती है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय की द्योतक है। समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से अल्प- समाधान की साधना ही शिव की साधना है। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है, वह रात्रि जो आत्मानंद प्रदान करने वाली है और जिसका शिव से विशेष संबंध है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में यह विशेषता सर्वाधिक पाई जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उस दिन चंद्रमा सूर्य के निकट होता है। इस कारण उसी समय जीव रूपी चंद्रमा का परमात्मा रूपी सूर्य के साथ भी योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को की गई साधना से जीवात्मा का शीघ्र विकास होता है।

३०. 👉🏼 *शिव उपासना उपासना का अर्थ है*-

मनन और उन्हें ग्रहण करने का प्रयत्न करना, उस पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना। सच्चे शिव के उपासक वही हैं, जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति को अपनाते हैं |

31- 👉🏼 *रुद्राभिषेक का महत्त्व*

अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है –  स्नान (Bath) करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में  ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा  प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी  जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय  माना गया है।

32 - *रुद्राभिषेक क्यों करते हैं?*

रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:  अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।

33 👉🏼 *ऑनलाइन शिवाभिषेक/रुद्राभिषेक विधि एवं मंन्त्र*

 http:// literature. awgp. org/book/karmkand_pradip/v2.47

34- 👉🏼 *रुद्राष्टाध्यायी पाठ एवं रुद्राभिषेक पीडीएफ डाउनलोड लिंक*

http:// vicharkrantibooks. org/vkp_ecom/Sugam_Shivarchan_Vidhi_Hindi

आइये हम भी भगवान शंकर के भक्त बने उनके अनुदान वरदान पाएं ।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 4)

*श्रेष्ठ सुसंस्कारी बुद्धिमान सन्तान का निर्माण - 21 वर्षीय परियोजना (भाग 4)*

बच्चे की उम्र - 0 से 3 वर्ष की दिनचर्या

यह वह समय है, जब बच्चे का मूलाधार खुला हुआ है। आपके संदेशों को मना करने हेतु उसका चेतन मन उपस्थित नहीं है। जो भी बोलोगे वह स्वीकारेगा। अतः कुछ भी उसके समक्ष बोलने से पहले विचार कर ही बोलें। आपके द्वारा कही अच्छी हो या बुरी सब बातें वह ग्रहण अभी करेगा और प्रकट बड़ी उम्र में करेगा।

*बच्चों के विकास के लिए नीचे दी गयी बातों पर ध्यान देना होता है:-*
👉🏻 *खान – पान*

जब बच्चा माँ के पेट में पल रहा होता है तो अपना भोजन माँ के शरीर से पाता है। माता - पिता के खानपान के गुण उसके डीएनए में होता है।

स्तनपान करवाने वाली माँ के लिए जरूरी है की  वह सेहत ठीक रखने वाली पौष्टिक आहार ले, नहीं तो उसके दूध की पौष्टिकता प्रभावित होगी औऱ बच्चा कमज़ोर होगा। हमेशा स्तनपान शुभ मनोदशा में गीत गुनगुनाते हुए, अच्छा सोचते हुए व मन्त्र जपते हुए पिलाएं। इससे अच्छे हार्मोन्स बच्चे के भीतर दूध के माध्यम से जाएंगे।

क्रोध व तनाव की अवस्था में बुरे हार्मोन्स ज़हर के रूप में दूध में मिलते हैं, क्रोध अवस्था मे पिलाया दूध बच्चे के लिए अत्यंत हानिकारक है।

हमारी सामाजिक रीतियाँ कुछ क्षेत्रों व राज्यों में इतनी बुरी है की  महिलाओं, किशोरियों लड़की यों को सही भोजन नहीं मिलता है, इसलिए उनसे जन्मे व उनका दूध पीकर उनकी सन्तान कमज़ोर और बीमार रहते हैं।  अच्छे भोजन की  कमी से किशोरियों और महिलाओं में खून की कमी रहती है, जरूरी है की  लड़का-लड़की में भेद भाव न रखा जाय सबको बराबर ढंग से पौष्टिक भोजन मिले ताकी  परिवार के सभी लोग स्वस्थ्य रहें।

गर्भावस्था में तो महिलाएं सही भोजन मिलना चाहिए ताकी  वह स्वस्थ्य बच्चा पैदा कर सके।

बच्चे का जन्म  के तुरत बाद स्तनपान कराना चाहिए। माँ के स्तनों में खूब दूध आए इसके लिए जरूरी है की  माँ का भोजन सही हो।

बच्चे का स्वस्थ्य माँ के भोजन पर ही टिका रहता है। जच्चा व बच्चा दोनो के भोजन को सही रखें।

जैसे जैसे बच्चा बड़ा हो, उसे ठोस आहार में घर मे बने आहार खिलाएं। मार्किट में पैकेट में रेडीमेड सेरेलक इत्यादि प्रोडक्ट बच्चे के पाचनतंत्र को बिगाड़ देते हैं, उनकी रुचि बिगाड़ देंगे, बच्चा चिड़चिड़ा व क्रोधी बनेगा। शुभ मन्त्र पढ़ते हुए घर में दलिया, खिचड़ी, हल्के पुलाव, फुल्के, सब्जियां उबली पेस्ट करके खिलाये। मन्त्र पढ़ते हुए खिलाएं बच्चा शांत प्रकृति व धैर्यवान बनेगा।

👉🏻 *लाड-दुलार*

अगर परिवार के सभी लोग और आस-पडोस के लोग अगर बच्चे को पूरा लाड़-प्यार देते हैं तो उसका सामाजिक विकास ठीक ढंग से होगा।

अगर उसे लाड़-दुलार नहीं मिलता तो वह दुखी महसूस करता है, कुछ भी उत्साह से नहीं करता है।

कम से कम तीन वक़्त नित्य माता पिता का बच्चे को लाड प्यार करना अनिवार्य है। बच्चे को सुबह उठाते वक्त, रात को सुलाते वक्त और भोजन करवाते वक्त भरपूर प्यार दुलार दें।

👉🏻 *सुरक्षा*

बच्चे के सही विकास के लिए जरूरी है की  वह अपने को सुरक्षित महसूस करें..

वह महसूस करे की  लोग उसका ध्यान रखते हैं..

उसके पुकारने पर लोग जवाब देते है..

उसको लगे की  लोग उससे प्यार करते हैं, उसकी परवाह करते हैं..

बच्चे को परिवार और समाज का एक व्यक्ति समझना चाहिए...

उम्र में छोटा है फिर भी उसका भी अपना स्वाभिमान है, उसे बालक समझ के ठेस न पहुंचाए...

बच्चे केवल प्यार नहीं चाहते, उन्हें सम्मान भी चाहिए... अतः बेवजह बालक समझ अपमानित न करें...

उसकी पसंद और नपसंद का ख्याल रखना... उसकी नापसंद को बुद्धिकुशलता से सही करना...

उसे दूसरे बच्चों से उंचा या नीचा नहीं समझना... उसकी तुलना न करें...

जब वह कोई नयी चीज समझता है या करता है तो उसे शाबासी देना, उसकी तारीफ करना.. उसे प्रोत्साहित करना...

तारीफ करने से उसका उत्साह बढ़ता है... उसे अच्छा महसूस होता है..

उसकी आवश्यकता को पूरा करना... अय्याशी को बुद्धिमत्ता से मना करना.. जरूरत व अय्याशी का फर्क स्वयं समझना व बच्चे को समझाना...

बच्चों को स्वाभाविक रूप से काम करने देना... हमेशा रोक टोक न करें.. उसे गलती करने दें.. उसे स्वयं से सीखने दें..

उस पर किसी तरह का दबाव न पड़े यह ध्यान रखें.. यदि कोई दबाव बना रहे हैं तो ध्यान रखें इससे उसका मनोबल न टूटे..

उससे हर वक्त  यह न कहना की  - यह करना है व यह न करना है। प्रत्येक नहीं कहने के पीछे पूरा विवरण समझाएं कि इसे क्यों नहीं करना चाहिए।

बच्चा खतरे में न पड़े इसका ध्यान देना है, लेकिन ओवर प्रोटेक्ट नहीं करना है।

बच्चे का स्वाभविक विकास रहे इसके लिए जरूरी है की  बच्चा खेल-कूद में भाग लें... समय निकालकर बच्चे के साथ खेलें... समय न दे पाने को गिफ्ट देकर पल्ला न झाड़े... जब आप वृद्ध होंगे तब वह भी आपको वस्तु देगा समय नहीं देगा... भविष्य में बच्चे से समय चाहिए तो उसके मन के बैंक में समय दीजिये...

खेल –खेल में बच्चा नयी चीजें सीखता है। कभी कभी आप भी बच्चे बन जाये उसके साथ खेले। जिससे वह आपको एक दोस्त समझे, स्वयं पर शासन करने वाला शासक नहीं समझे..

उसे समाज का एक जवाबदेह सदस्य बनने में मदद मिलती है, जब आप स्वयं सामाजिक उत्तरदायित्व उसके समझ निभाते हैं। सप्ताह में एक बार देशभक्ति गीत सपरिवार सुने। कुछ देशभक्ति वीडियो देखें। कहानियां महापुरुषों, देशभक्तों की पढ़े व सुनाएं।

जब बच्चों का दूसरों के साथ मेल-जोल बढ़ता है, तो उसके बोलचाल और भाषा में विकास होता है।

👉🏻 *हमारा विश्वास, हमारी परंपरा और माँ-बच्चे का स्वास्थ्य*

सभी समाज में कुछ मान्यताएं होती हैं, कुछ संस्कार, कुछ विश्वास, कुछ परम्परागत दिनचर्या होती है।

उनमे से कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे और हानिकारक भी।

यह बातें माँ और बच्चे की  देख भाल, सेहत और स्वास्थ्य पर भी लागु होती है।

*हमारे विश्वाश,हमारे संस्कार चार तरह के होते हैं* :-

1- वे जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है

2- वे जो न लाभदायक हैं न हानिकारक 

3- वे जो खतरनाक और हानिकारक है

4- ऐसे विश्वास जो अब तक साबित नहीं हुए हैं कि वे हमारे लिए लाभदायक हैं या हानिकारक

हमारे लिए जरूरी है कि हम परम्पराओं की जगह विवेक को महत्त्व दें। भेड़चाल न चले, प्रत्येक कर्म को विवेक की कसौटी पर कसे। हम पहचाने और जाने की  कौन से विश्वास लाभदायक है।

हमें लोगों के साथ लाभदायक विश्वाशों के साथ काम शुरू करना है । युगऋषि की लिखी पुस्तक - *हमारी भावी पीढ़ी और उसका नवनिर्माण*, *बच्चों का भावनात्मक विकास* और *बच्चों को उत्तराधिकार में अच्छे गुण दें* अवश्य पढ़ें, उसे अमल में लाये।

कोई भी अंध विश्वास एक दिन में खतम नहीं होता, समाज के लोगों के साथ उनपर काफी चर्चा करनी पड्ती है। विश्वास व अंधविश्वास में बहुत बारीक अंतर होता है। हमारे यहां ऐसे ही होता है बोलकर पल्ला न झाड़े। यह बच्चे को अवश्य बताएं कि हमारे परिवार में इस परम्परा के पीछे यह लॉजिक है, यह लाभ है, यह कारण है।

बच्चे के भीतर विवेक दृष्टि जागरण करने हेतु उसे नित्य रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता, प्रेरक महापुरुषों के प्रषंग सुनाएं। यह मत सोचे अरे यह इतना छोटा है अभी से क्या समझेगा। वह अभी समझेगा और बस प्रकट बड़ा होकर करेगा। आप तो बस अच्छे विचारों के बीज उसकी कोमल उपजाऊ मनोभूमि में डालते रहो।

बच्चा हाथ मे रखी चीज़े पकड़कर फेंकता है, बाल खींचता है, मारता है, क्रोध करता है। तो इसका अर्थ यह है माता ने गर्भ के दौरान बहुत कुछ बर्दास्त किया लेकिन उस क्रोध को पी गयी। दिखने में दब्बू माँ मन ही मन क्रांतिकारी सोच रही थी। उसके भीतर गुस्सा उबल रहा था। कभी बहुत हताशा का शिकार हुई। नकारात्मक भावनाओं का मनोवैज्ञानिक व्यवस्थित निष्कासन नहीं किया। इसलिए वह क्रोध बच्चे के अचेतन में सुरक्षित है।

ऐसी अवस्था मे माता व पिता को विशेष प्रयास करने पड़ेंगे। बच्चे के साथ खेल खेल में बोले देखे कौन कितनी देर बिना हिले रह सकता है। कौन कितनी देर आंख बंद करके रह सकता है। भीतर की आवाज कौन सुन सकता है। आसमान या घड़ी 2 मिनट तक देखेंगे, नजर नहीं हटाएंगे। यह क्रिया कलाप बच्चे को मन पर नियंत्रण करने में मदद करेगा।

बच्चे को व्यस्त रखें, प्यार से समझाने की कोशिश करें।

अत्यधिक मार और डांट खाने वाला बच्चा ढीठ बनता है, उसमे आपराधिक प्रवृत्ति जन्म लेती है।

सपरिवार रात को किसी भी समय 24 गायत्री मंत्र बच्चे सहित जपें।

बच्चा जब सोये तो उसे शुभ वाक्यों की लोरी सुनाएं। मन्त्र बोलकर सुलायें। बच्चा शांत होगा।

घर को साफ सुथरा व व्यवस्थित रखे। बच्चे से छोटे छोटे काम मे मदद लें।

उसे गणित की पहेली व संस्कृत के श्लोक याद करवाये। प्राणायाम करना सिखाएं। बच्चे को दोनो हाथ से बराबर कार्य करना सिखाये। दोनो हाथों से लिखने के लिए प्रेरित करें। बड़े बड़े वाक्य यादकर बोलने को कहें। पहाड़े इत्यादि सिखाएं।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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