प्रश्न - *दी प्रणाम, हमारे मन में किसी के प्रति दुर्भावना क्यू आने लगती है जबकि हम ऐसा नहीं चाहते क्या जिसके प्रति हमारे मन में दुर्भावना आती है वहीं उसका कारण होता है मतलब वह हमारे प्रति दुर्भावना से ग्रस्त हो तो हमे भी उसके प्रति होने लगती है इससे कैसे बचें?*
उत्तर - आत्मीय भाई, बिना आग के धुंआ नहीं उठता। अब यह स्वार्थ की आग चाहे आपके भीतर हो या उस व्यक्ति के भीतर हो जिसके प्रति आपके लिए दुर्भावना उठ रही है। अपने हृदय से स्वार्थ व उस व्यक्ति से कुछ भी चाहने की इच्छा मिटा दो दुर्भावना मिट जाएगी। अब दूसरे के अंदर यदि आपका बुरा करने का भाव होगा तो भी आपके भीतर भी उसे देखकर दुर्भावना उठेगी।
एक कहानी से इसे समझो :-
एक धर्मात्मा राजा अपने मंत्री सहित अपने राज्य के बाज़ार में भेष बदल कर घूम रहा था। तभी एक चन्दन के दुकानदार को देखकर उसके मन मे उसके प्रति दुर्भावना उठी व उसे कोड़ों से पीटने व फाँसी देने की इच्छा हुई। राजा ने मंत्री से पूँछा, मैं इस दुकानदार को जानता भी नहीं फिर इसे देखकर मेरे मन में दुर्भावना क्यों उठ रही है? आप मेरे मन से इस व्यक्ति के लिए उठ रही दुर्भावना को मिटाइये। मंत्री ने कहा, पता करता हूँ महाराज और कुछ दिन में आपको रिपोर्ट करूंगा।
एक महीने बाद पुनः मंत्री सहित राजा उस बाज़ार में घूमने आया। आज उस चन्दन के दुकानदार को देखकर उसे पुरस्कृत करने की इच्छा हुई। स्वयं में आये इस बदलाव का कारण पुनः मंत्री से पूँछा। तब मंत्री ने बताया:-
महाराज पहली बार जब आप इससे मिले थे तो यह आपकी मृत्यु की कामना कर रहा था, क्योंकि इसका चन्दन का व्यापार मंदा चल रहा था। आपकी मृत्यु हो और दाह सँस्कार में चन्दन की लकड़ी लगे। अतः तब आपको इसे देखकर दुर्भावना उठी व दण्डित करने की इच्छा हुई।
मैंने याद होगा कुछ दिन पूर्व आपके कुलदेवता के मंदिर को चन्दन की लकड़ी से बनाने के लिए आपसे बजट अप्रूव करवाया था।मैंने वह ऑर्डर इसे दिया, अब यह नित्य आपकी लंबी उम्र की प्रार्थना करता है। इसलिए इस बार यह व्यक्ति आपको अच्छा लगा और इसे पुरस्कृत करने की इच्छा आपको हुई।
धन्यवाद मंत्री जी, आपने दुर्भावना मिटाई।
लेकिन मेरा एक प्रश्न आपसे है कि मैं पूरी दुनियाँ के प्रति कोई दुर्भावना नहीं लाना चाहता, चाहे कोई मेरी मृत्यु की ही कामना क्यों न कर रहा हो। मंत्री जी यह कैसे सम्भव होगा?
मंत्री ने कहा, राजन इसके लिए आपको बुद्ध बनना पड़ेगा। स्वयं की चेतना को जागृत करना होगा। सुख व दुःख से परे जाना होगा। आत्म तत्व में स्थित हो तत्व दृष्टि-अंतर्दृष्टि विकसित करनी होगी। सब मनुष्यों के भीतर विराजमान परमात्म चेतना को प्रणाम करना होगा। अपने भीतर इतना प्रेम, सद्भावना व आत्मियता भरनी होगी कि उस प्रेम जल से किसी के भी मन के विद्वेष की आग को आप बुझा सकें। दुश्मन से भी प्रेम कर सकें।
इसीतरह आत्मिय भाई आपको अपने भीतर भाव सम्वेदना की गंगोत्री बहाना होगा, व आत्मतत्व में स्थित होना होगा। स्वयं स्वार्थ मुक्त होंगे व विश्वामित्र बनेंगे, तभी दूसरे के मन की दुर्भावना से आप प्रभावित नहीं होंगे।
स्वयं का भला चाहना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन दूसरे का बुरा चाहना अत्यंत बुरा अध्यात्म क्षेत्र में माना जाता है। किसी भी व्यक्ति की निंदा चुग़ली करने से, उस व्यक्ति के लिए दुर्भावना लाने पर उतने ही अंशो व मूल्य का हमें उस व्यक्ति के पापकर्म को स्वयं भोगना पड़ता है हमारे तप पुण्य उतने ही अंशो में उसके पास चले जाते हैं। मानसिक कर्म भी सतर्कता से करें।
कलियुग में मानसिक कर्म ग़लत होने पर क्षमा मिल जाती है यदि वह शब्दों में कन्वर्ट न हो, व्यवहार में न झलके और साथ ही उसे समझ के मन ही मन उस दुर्भावना के विचार को अच्छे विचार से काट दो, उस विचार में रस मत लो। लेकिन यदि ग़लत विचार व दुर्भावना के चिंतन में रस लिया, व शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया, व्यवहार में अभिव्यक्त किया तो पापकर्मफल अवश्य बनेगा।
पुस्तक - *भाव सम्वेदना की गंगोत्री* अवश्य पढ़िये।
🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, बिना आग के धुंआ नहीं उठता। अब यह स्वार्थ की आग चाहे आपके भीतर हो या उस व्यक्ति के भीतर हो जिसके प्रति आपके लिए दुर्भावना उठ रही है। अपने हृदय से स्वार्थ व उस व्यक्ति से कुछ भी चाहने की इच्छा मिटा दो दुर्भावना मिट जाएगी। अब दूसरे के अंदर यदि आपका बुरा करने का भाव होगा तो भी आपके भीतर भी उसे देखकर दुर्भावना उठेगी।
एक कहानी से इसे समझो :-
एक धर्मात्मा राजा अपने मंत्री सहित अपने राज्य के बाज़ार में भेष बदल कर घूम रहा था। तभी एक चन्दन के दुकानदार को देखकर उसके मन मे उसके प्रति दुर्भावना उठी व उसे कोड़ों से पीटने व फाँसी देने की इच्छा हुई। राजा ने मंत्री से पूँछा, मैं इस दुकानदार को जानता भी नहीं फिर इसे देखकर मेरे मन में दुर्भावना क्यों उठ रही है? आप मेरे मन से इस व्यक्ति के लिए उठ रही दुर्भावना को मिटाइये। मंत्री ने कहा, पता करता हूँ महाराज और कुछ दिन में आपको रिपोर्ट करूंगा।
एक महीने बाद पुनः मंत्री सहित राजा उस बाज़ार में घूमने आया। आज उस चन्दन के दुकानदार को देखकर उसे पुरस्कृत करने की इच्छा हुई। स्वयं में आये इस बदलाव का कारण पुनः मंत्री से पूँछा। तब मंत्री ने बताया:-
महाराज पहली बार जब आप इससे मिले थे तो यह आपकी मृत्यु की कामना कर रहा था, क्योंकि इसका चन्दन का व्यापार मंदा चल रहा था। आपकी मृत्यु हो और दाह सँस्कार में चन्दन की लकड़ी लगे। अतः तब आपको इसे देखकर दुर्भावना उठी व दण्डित करने की इच्छा हुई।
मैंने याद होगा कुछ दिन पूर्व आपके कुलदेवता के मंदिर को चन्दन की लकड़ी से बनाने के लिए आपसे बजट अप्रूव करवाया था।मैंने वह ऑर्डर इसे दिया, अब यह नित्य आपकी लंबी उम्र की प्रार्थना करता है। इसलिए इस बार यह व्यक्ति आपको अच्छा लगा और इसे पुरस्कृत करने की इच्छा आपको हुई।
धन्यवाद मंत्री जी, आपने दुर्भावना मिटाई।
लेकिन मेरा एक प्रश्न आपसे है कि मैं पूरी दुनियाँ के प्रति कोई दुर्भावना नहीं लाना चाहता, चाहे कोई मेरी मृत्यु की ही कामना क्यों न कर रहा हो। मंत्री जी यह कैसे सम्भव होगा?
मंत्री ने कहा, राजन इसके लिए आपको बुद्ध बनना पड़ेगा। स्वयं की चेतना को जागृत करना होगा। सुख व दुःख से परे जाना होगा। आत्म तत्व में स्थित हो तत्व दृष्टि-अंतर्दृष्टि विकसित करनी होगी। सब मनुष्यों के भीतर विराजमान परमात्म चेतना को प्रणाम करना होगा। अपने भीतर इतना प्रेम, सद्भावना व आत्मियता भरनी होगी कि उस प्रेम जल से किसी के भी मन के विद्वेष की आग को आप बुझा सकें। दुश्मन से भी प्रेम कर सकें।
इसीतरह आत्मिय भाई आपको अपने भीतर भाव सम्वेदना की गंगोत्री बहाना होगा, व आत्मतत्व में स्थित होना होगा। स्वयं स्वार्थ मुक्त होंगे व विश्वामित्र बनेंगे, तभी दूसरे के मन की दुर्भावना से आप प्रभावित नहीं होंगे।
स्वयं का भला चाहना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन दूसरे का बुरा चाहना अत्यंत बुरा अध्यात्म क्षेत्र में माना जाता है। किसी भी व्यक्ति की निंदा चुग़ली करने से, उस व्यक्ति के लिए दुर्भावना लाने पर उतने ही अंशो व मूल्य का हमें उस व्यक्ति के पापकर्म को स्वयं भोगना पड़ता है हमारे तप पुण्य उतने ही अंशो में उसके पास चले जाते हैं। मानसिक कर्म भी सतर्कता से करें।
कलियुग में मानसिक कर्म ग़लत होने पर क्षमा मिल जाती है यदि वह शब्दों में कन्वर्ट न हो, व्यवहार में न झलके और साथ ही उसे समझ के मन ही मन उस दुर्भावना के विचार को अच्छे विचार से काट दो, उस विचार में रस मत लो। लेकिन यदि ग़लत विचार व दुर्भावना के चिंतन में रस लिया, व शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया, व्यवहार में अभिव्यक्त किया तो पापकर्मफल अवश्य बनेगा।
पुस्तक - *भाव सम्वेदना की गंगोत्री* अवश्य पढ़िये।
🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन